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अब न होगा....ये तेरा घर....ये मेरा घर

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ये दुनिया बदलती ही रहती है
हर पल
हमारी पृथ्वी,
इसे गोल-गोल घूमते उपग्रह
और वो भी
जिसके परितः हम घूमते हैं
पृथ्वी के संग;
अगर सृष्टि परिवर्तित होती है
तो हम भी कुछ कम नहीं,
हमारे वैज्ञानिक
मल्टी-प्लेनेट प्रजाति में
भविष्य देख रहे हैं,
फैलकन 9 इंजन 
मंगल ग्रह पर प्रोपल्सिव लैंडिंग तो
16 बार कर चुका है,
अब ऑक्सीजन संग मानव की बारी है
जिसकी खातिर 1200 टन
ऑक्सीजन भंडारण क्षमता की
डीप क्रायो लिक्विड ऑक्सीजन टैंक
मैदान में उतारी है,
अब वहाँ ले जाने को 
नया शिप बनाया जाएगा,
2022 में मंगल पहुंचाने का मिशन लाया जाएगा
उपरोक्त मेरे नहीं
28 सितम्बर 2017, एडिलेड में
इंजीनयर, अविष्कारक 
'इलोन मस्क' द्वारा व्यक्त उदगार हैं,
अब तो बस हर दिल अजीज़
ये तेरा ग्रह, ये मेरा ग्रह गुनगुनाइए
कदमों से भले ही दूर रहिये
पर दिलों के करीब आइये।

जाने क्यों मेरा मन आज बंजारा हो गया!


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भटकता फिर रहा है बेसुध सा
राही है किसी पथ का न रहबर
फ़िज़ा-फ़िज़ा में कुछ तलाशे है
ढूंढे हवा-हवा आशियाना
नील-गगन में इंद्रधनुष की छत के तले
हवाओं के सहन में रहना चाहे
किसी डोर पे ये ठहरे न कहीं
सरे-शाम से ही आवारा हो गया
जाने क्यों मेरा मन आज बंजारा हो गया
अठखेलियां करे हिरनियों सी
इठलाए नदी की रवानियों में
टहलता रहे बादलों, तितलियों सा
है तो मेरा, मुझसे भी भागा फिरे
डोर रह गयी मेरे हाथ में
छोड़कर मेरा मधुमास
ऐसी लगी इन निगाहों की प्यास
कि थम गयी तुमपे तलाश
अपना तो हुआ न कभी, तुम्हारा हो गया।

कैसे पहुँचे 10,000 पाठकों तक 1 घण्टे में!!!


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बहुत दिमाग घुमाया
सर चकराया
गुस्सा भी आया,
क्या मेरी बातें हैं
जलेबी की तरह गोल-गोल
समझ नहीं आते लोगों को
मेरे सीधे बोल
जो मेरे संग नहीं बिताते
दो मिनट अनमोल,
2017 तो गया बीत
कहाँ बदली उनकी रीत
मैं हारी नहीं तो क्या
कहाँ हुई जीत,
लिखने से पहले 
अब पूछती हूँ खुद से
कि मेरी बेजान लेखनी
अब कौन पढ़ेगा
फिर दिमाग कैसे
कोई सृजन गढ़ेगा,
इस व्यंग्य को पढ़ने वालों
मेरे प्रिय मित्रों
मेरा सवाल सुलझा दो
कहीं मिलता हो गर
दस हजार का आँकड़ा
मुझे भी दिला दो,
कमेंट बॉक्स में उत्तर लिखे बिना मत जाना
पहली बार मंगल ग्रह पर पार्टी रखी है
आप सब जरूर आना,
2018 दस्तक पर है
मुस्कराते हुए बुलाना
वर्ष का हर दिन मंगलमय हो
बस गुनगुनाते हुए बिताना।

जिज्ञासा के बाद शून्यता!

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कहाँ होती है
जिज्ञासा के बाद शून्यता
वो तो अनुभवों के
असीम द्वार खोलती है,
हर बचपन एक बार 
ओले खाने की
लालसा रखता है
बड़प्पन हमें
'कैसे बनते हैं ओले'
इस प्रश्न पर घुमाता है;
बढ़ता ही रहता है
जिज्ञासा का आकार,
शून्यता तो 
जिज्ञासा के बाद
कुछ खोने की 
अवस्था में आती है
कि
हर बचपन की आंखों में
एक सपना पलता है
जब वो बड़ा होगा
माँ-पापा को 
महलों की नवाज़िशें देगा
मग़र ए दिल 
जिज्ञासा युवा पत्नी की 
आंखों में शून्य हो जाती है
और बुढ़ापा 
वृद्धाश्रम की सीढ़ियों पर
भंडारे की पूड़ियों में दम तोड़ता है।

मत छोड़ मुझे ज़िंदा!!!


दर्द का दशानन जीत गया
उम्मीद की सिंड्रेला हार गई
'निचोड़ लो रक्त इन स्तनों से
लहू-लुहान कर दो छाती,
घुसा दो योनि-मार्ग में
जो कुछ भी चाहो'
मेरी आत्मा चीखी थी
फफोलों से दुख रहा था
मेरा जिस्म
जब वो सारे वहशी
बारी-बारी से
अपनी गंधेली साँसे भर रहे थे
मेरी नासिका में,
उन कुत्तों का बदन 
मसल रहा था
मेरी छाती के उभारों को,
बारी-बारी से चढ़ रहे थे
मेरे ऊपर
मैं छटपटा रही थी दर्द में
और वो हवस की भूख में
कसमसा रहे थे,
भयंकर दर्द कि
मेरी साँसे घुट रही थी
दोनों हाथों से
मेरी गर्दन को भींचकर
मेरे मुंह पर 
चाट रहे थे
पूरे चेहरे पर
दांतो के निशान आ गए थे,
एक हाथ से
नंगा कर दिया था
योनि में लगातार 
प्रहार हो रहे थे
कुछ अंदर गया पहली बार
मेरी चिंघाड़ आस-पास तक 
गूंज गयी थी,
फिर एक दो तीन चार
...........
कितने ही नामर्द, नपुंसक
कुत्तों का लिंग
अंदर-बाहर होता रहा,
वो आह-आह कर 
सिसकी भरते रहे,
मैं बेजान-बेजुबान
पत्थर सी हो चुकी थी,
मेरी योनि 
अनवरत रिस रही थी
मैं नहीं जानती 
वो द्रव्य सफेद, लाल था
या फिर पीला,
मुझे तो मेरे पास
संवेदना का ज़र्द, सफेद, 
असंवेदनशील मृत चेहरा
दिख रहा था बस;
शायद मेरा रस झड़ चुका था,
तभी तो
वो मुझे
ज़िंदा लाश बनाकर छोड़ गए थे,
सांस तो अब भी आती है
मगर शर्म अब नहीं आती;

कान्हा की बाँसुरी बने अब सुदर्शन!

आस्था गंगा-यमुना में
हर रोज डुबकी लगाती है
मगर दिल का मैल कलयुग सा
सदियों से जमा रहता है;
भगवा पहन राम-नाम जपके
लोग महलों से पत्थरों में
दिखाई देते हैं,
पर रामलला अपना
त्रिपाल में ही खुश रहता है;
हे प्रभु!
अब तो मुस्कराओ
रोंग से राइट नंबर पे आओ

माखन चुराओ
लीला दिखाओ
कलयुग मिटाओ
दाल-रोटी खाओ
हर सांस पर लगा
जी एस टी मिटाओ
भक्त के गुण गाओ
आशा-विश्वास का
परिणय कराओ;
दहन हो रही
गर्भ में बेटियां
और बेटे
दहेज की खातिर
हवन हो रहे;
डिग्री रखने वाले
जमीन पर हैं
अनपढ़ सितारे
गगन हो रहे;
कहीं कफ़न की खातिर
लग रहीं
बोलियां रिश्तों की
और कहीं हवस का जना
कुत्तों से नुच रहा;
अच्छे-बुरे को तोलने की
कौन सी तुला है
चन्द सिक्कों पे
स्वाभिमान ही बिका जा रहा;
लोग सत्ता बनाते हैं
बनाते ही रहेंगे,
वादों के काशी-मदीना
जाते ही रहेंगे;
अर्जुन का गांडीव अब धरा को बचाये
कृष्ण को बाँसुरी नहीं सुदर्शन दिखाए।

हाँ, मैं कुरूप हूँ....

unattractive dorky girl with glasses and pimples
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नहीं हूँ
मैं औरों के जैसी;
बस अपने जैसी
थोड़ी सी अलग हूँ,
नहीं फर्क पड़ता
कि मैं किसी दिखूँ,
पर बहुत फर्क पड़ता है
कि कैसे महसूस करते हो मुझे,
मेरे अंदर बहुत सी
साँसें सुलगती हैं
आहत करता है
तुम सबका दर्द
मुझे अपने दर्द से ज़्यादा,
भींच लेना चाहती हूँ
तुम्हें अपने सीने में
एक बच्चे की तरह
जब तुम्हें मेरी जरूरत होती है,
नहीं ढूंढती मैं तुम्हारा हाथ
अपनी जरूरतों के वक़्त
पर मेरी हथेली उठ ही जाती है
तुम्हारे माथे की सिलवटों पर
छुपा लेना चाहती हूँ
तुम्हें
अपने अहसास की छांव में
क्या फर्क पड़ता
किसी के आंकलन का मुझ पर
उनके बोलने से पहले कहती हूँ,
हाँ, मैं कुरूप हूँ
पर जीवन्त हूँ।

और हम सब......????

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जाने कितने दिन का वीज़ा है
पासपोर्ट तो लाये थे साथ
घुसपैठिये तो नहीं ही थे
जो अवैध होते हैं
वो तो
सजा पाते है
तुरन्त आता है उनका वारंट
काल के गाल में समा जाते हैं
और हम सब
टहल रहे हैं
इस सल्तनत में
जाने कब वीज़ा खत्म होने का
आदेश मिले
और दूरन्त सफर पर निकलना हो
हे मुसाफिर
जन्म के आँकड़े पर मत जाओ
कर्म की पोटली की ओर देखो
क्योंकि
वीज़ा की अवधि
भभोग में समाहित रहती है।

याद बहुत आओगे तुम

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खुशी की अदा हो 
या फिर संजीदगी
याद आती रहेगी
वो मुस्कराहट तेरी

क्या यही इंसाफ है?

"जज साहब, मैंने इस आदमी को मारा है। मुझे सजा दीजिये। प्लीज जज साहब...." कहते-कहते निर्मला की चीखें पूरे कोर्ट में गूंज गयीं थीं। हर कोई यही जानना चाहता था कि कटघरे में खड़ी ये औरत खुद के लिए सजा क्यों चाहती है जबकि इसका पति भी इसे निर्दोष कह रहा है। सारे सुबूत निर्मला के पक्ष में थे वो कहीं से भी अपने श्वसुर की हत्या जैसे जधन्य अपराध की दोषी नहीं दिख रही थी। जज साहब चाहकर भी फ़ैसला नहीं सुना पा रहे थे। निर्मला की घिग्गी के साथ ही सारा माहौल शांत था। हर आंख में ढेरों सवाल थे। वहीं एक ओर निर्मला का पति शांत खड़ा हुआ था।
जज साहब ने 2 घंटे के लिए कोर्ट को बर्खास्त कर दिया ताकि वो पूरा मामला समझ सकें।
थोड़ी ही देर में एक अर्दली ने निर्मला को जज साहब से मिलने का फरमान सुनाया। ये जज साहब की ज़िंदगी का पहला ऐसा केस था जिसमें गुनाह चीख़ रहा था कि निर्दोष को बरी किया जाए पर निर्दोष खुद को सलाखों के पीछे ले जाना चाहता था।
"निर्मला जी, देखिये मैं आपको व्यक्तिगत रूप से नहीं जानता पर ये जानना चाहता हूँ कि आप खुद को दोषी क्यों मानती हैं? अगर बता सकने लायक हो तो मुझे बताइये शायद मैं कुछ मदद कर सकूँ?" निर्मला जज के सामने सर झुकाये खड़ी थी जज का सवाल सुनते ही फफक पड़ी।
"जज साहब, मैं इस आदमी के साथ नहीं रहना चाहती। मेरा इस दुनिया में कोई और नहीं है। रही बात छविनाथ की तो उसको मैं ज़िंदा छोड़ने वाली नहीं थी। मैं हंसिया से उसकी गर्दन उड़ा देती मगर वो छज्जे के किनारे आकर कूदकर मर गया। ये आदमी जिसे आप लोग मेरा पति कहते हो ये जहरीला नाग है। ब्याह के बाद से ही इसने अपनी पत्नी बाप को सौंप दी। खुद नशा पीकर धुत रहता, बाहर की औरतों के साथ अय्याशी करता। मैं इसके बाप की हवस का शिकार बनती। कुछ बोलती तो खाल उधेड़ देता।  ऐसी ही मौत मरना था इसे। जज साहब मुझे उम्र क़ैद की सजा दो। अगर आज़ाद हुई तो...." निर्मला जज साहब के पैरों में लिपट गयी।
निर्मला को एक ओर लगभग धकेलते हुए खिड़की तक चले गए। शून्य में इस कदर खो गए कि ज़िन्दगी निर्वात लगी उस पल।
उन्हें तो फैसला गवाहों और सुबूतों के आधार पर करना था। अदालत मानवीय संवेदना को नहीं मानती न ही इन पर आधारित निर्णय लेती है।

लांछन

"सन्नो..." ननद की आवाज सुनते ही सन्नो ने पलटकर देखा। खीझ भरा गुस्सा देखकर सहम गयी। वो कुछ बोल पाती इससे पहले ही उसकी बात काट दी गयी, "देख अब तक बहुत सह लिया तुझे। अब तो नरेश भी नहीं रहा, क्या करेंगे हम लोग तेरा। वैसे भी हमारे घर में छोटे-छोटे बच्चे हैं कहीं इन्हें कुछ हो गया तो। अब तेरा यहाँ से जाना ही ठीक है।"
सन्नो को कुछ बोलने का मौका नहीं दिया गया। ननद और जेठानी उसे आंगन से खीचते हुए बाहर अहाते तक ले गयीं, लगभग धकेलते हुए दरवाजा अंदर से बंद कर लिया। सन्नो ने सास की तरफ़ ज्यों ही पलट कर देखा उसने ऐसे मुँह फेर लिया जैसे पहचानती ही नहीं।
अब वो अहाते के दरवाजे पर गुमसुम उस दहलीज को निहार रही थी जहाँ 2 साल पहले ब्याह कर लायी गयी थी। नरेश दिल्ली के एक कारखाने में काम करता था और वहीं एक चॉल में रहता था। उसे अपने पति के चाल-चलन पर शुरू से ही संदेह था पर कभी घर की इज्जत और कभी उसके औरत होने की मजबूरी उसे चुप रखती थी। माँ-बाप बूढ़े हो चले थे, भाइयों ने कोई सुध ही नहीं ली।
पिछले महीने नरेश की तबियत अचानक बिगड़ गयी। दिल्ली से आने पर पता चला कि वो एड्स के शिकंजे में है। उसके पैरों तले जमीन खिसक गयी। तब सास, जेठानी और ननद ने पैरों पर सर रख दिया था कि घर की इज्जत का सवाल है बात बाहर न जाये। सन्नो ने पूरे एक महीने तक पति की जी-जान से सेवा की, अंततः वो चल बसा। अंतिम समय में सन्नो को उसकी आँखों में पश्चात्ताप दिखा था पर तब जब जीवन में कोई झनकार नहीं बची थी।
आज सन्नो की सिसकी नहीं रुक रही कि कौन उसे निर्दोष मानेगा। नरेश के जीते जी वो चुप रही अब किससे कहेगी कि वो बदचलन नहीं है।
'हे प्रभु, अगर कलयुग में धरती नहीं फट सकती समाने को तो सीता मइया जैसा लांछन क्यों लगवाते हो???' सन्नो की आत्मा चीख रही थी।

एक मीरा और दूसरी भी मीरा

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अपनी मीरा श्याम दीवानी
और ये है नाम दीवानी,
12वें दक्षिण-एशियाई खेल में
अपनी उम्र से बड़ा वज़न उठा लिया
अमेरिका की सरजमीं पर
हम सबको चकित किया;
ये है मीराबाई चानू
आप सब भी जानो
48 किलो भार उठाया
स्वर्ण-पदक पाया
बेलन चलाती महिला
डम्बल भी उठाती है,
अब किस बराबरी की बात करते हो 
सबको बताती है:
मणिपुर की सरजमीं को नमन
ऊंचा करो यूँ ही परचम
देश का हरदम।

एक रिश्ते की मौत

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एक रिश्ता 

जो तारीख से उपजा 
कैलेंडर पर बड़ा हुआ 
समय के साथ उम्रदराज़ हुआ.

एक रिश्ता 

जो मन की गहराइयों में उमगा 
सपनों में जवान हुआ 
उम्मीदों में पनपता रहा.

एक रिश्ता          

जिसमे थी समय की बंदिश 
दूरियों की परवाह 
और ही भविष्य की फिकर.

एक रिश्ता 

जो बस प्यार में बना था 
प्यार में पला था 
और प्यार के लिए था.

एक रिश्ता 

जिसमे छाँव थी तुम्हारी 
और धूप मेरी
सुख थे तुम्हारे 
दुःख मेरे 
वर्तमान था तुम्हारा 
और भविष्य मेरा


एक रिश्ता 

जिसमे जीना तो मुझे था 
तुम्हे तो बस टहलना था. 
.........................
मार दिया तुमने मुझे 
मेरे अंदर ही कहीं,
रिश्ता जब मरता है 
कांधा नहीं दिया जाता 
अर्थी नहीं निकलती है,
ही होता है राम-नाम सत्य 
वहां तो बस पिघलती है 
संवेदनाओं की चाशनी 
........................
मैं भोर के तारे सदृश 
आकाश में टक गयी 
ये देखने को 
...............
क्या होगा इस रिश्ते का पुनर्जन्म???

क्या संभव है?

आओ एक कहानी लिखें 
जिसमें स्त्री पुरुष हो 

और 
पुरुष … स्त्री,
क्या संभव है 
एक पुरुष के लिए 
स्त्री बनना?
आज सोचा 

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तो समझ आया 
स्त्री बहुत महान है,
वो हर साँचे में ढल जाती है,
हर किरदार में 
समा जाती है
और पुरुष 
वो तो स्त्री से जन्मा,
समा लेती है                  
स्त्री 
उसे अपने अंदर 
तन से,
मन से,
अर्पण से,
फिर भी 
पुरुष दम्भी 
और 
स्त्री कुंठित क्यों???



फीलिंग्स का गूगल सर्च

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वो सहमा-सहमा सा था मेरे भीतर 

और मैं इठलाई सी
यूँ लगे कि
सारे जहां की
रौनकें मुझपे छायी सी,
एक ऊर्जा सी थी
मेरे अंदर दिव्यता समाने की
मैं माँ बनने जा रही
ये तो सच ही था
पर मैं क्या खोने जा रही
ये अलग सा प्रश्न था अंदर,
जब मैं बहुत प्रेम में थी
मेरे अंदर का मैं
खो दिया था मैंने,
आज जब प्रेम का अंकुर 
प्रस्फुटित हुआ
मैं अपने मन का बच्चा
खोने जा रही
क्योंकि अब तुम
खसखस के बीज वाले आकार से
तिल के बीज वाले आकार में
रूपांतरित हो चुके हो,
तुम्हारे चेहरे के कुछ हिस्से उभरे होंगे
65 की रफ्तार से धड़कने वाले
दिल की नली भी,
तंत्रिका-नली भी तो बन गयी होगी;
पाचन-तंत्र और संवेदी-तन्त्र
भी बनने लगे होंगे,
उपास्थि आ गयी होगी,
बड़ा सा दिखता है सर अभी,
बहुत से सवाल आते हैं मन में,
सामान्य हो जाती हूँ 
जब इनका तसल्ली भरा हाथ
मेरी हथेली को गर्माहट देता है;
गूगल बताता है मुझे
तुम्हारी लम्बाई इंचों में
और वज़न ग्राम में,
पहले सेमेस्टर के आखिर में
तुम अपने पूरे वजूद में हो,
तुम्हारी मुट्ठी खुलती है, बन्द होती है
मगर गर्भ की दीवारों पर 
नाखूनों के निशान नहीं आते
मेरा समूचा अस्तित्व सिमट गया तुझमें
और तुम मेरे अहसास में ज़र्रा-ज़र्रा।