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लांछन

"सन्नो..." ननद की आवाज सुनते ही सन्नो ने पलटकर देखा। खीझ भरा गुस्सा देखकर सहम गयी। वो कुछ बोल पाती इससे पहले ही उसकी बात काट दी गयी, "देख अब तक बहुत सह लिया तुझे। अब तो नरेश भी नहीं रहा, क्या करेंगे हम लोग तेरा। वैसे भी हमारे घर में छोटे-छोटे बच्चे हैं कहीं इन्हें कुछ हो गया तो। अब तेरा यहाँ से जाना ही ठीक है।"
सन्नो को कुछ बोलने का मौका नहीं दिया गया। ननद और जेठानी उसे आंगन से खीचते हुए बाहर अहाते तक ले गयीं, लगभग धकेलते हुए दरवाजा अंदर से बंद कर लिया। सन्नो ने सास की तरफ़ ज्यों ही पलट कर देखा उसने ऐसे मुँह फेर लिया जैसे पहचानती ही नहीं।
अब वो अहाते के दरवाजे पर गुमसुम उस दहलीज को निहार रही थी जहाँ 2 साल पहले ब्याह कर लायी गयी थी। नरेश दिल्ली के एक कारखाने में काम करता था और वहीं एक चॉल में रहता था। उसे अपने पति के चाल-चलन पर शुरू से ही संदेह था पर कभी घर की इज्जत और कभी उसके औरत होने की मजबूरी उसे चुप रखती थी। माँ-बाप बूढ़े हो चले थे, भाइयों ने कोई सुध ही नहीं ली।
पिछले महीने नरेश की तबियत अचानक बिगड़ गयी। दिल्ली से आने पर पता चला कि वो एड्स के शिकंजे में है। उसके पैरों तले जमीन खिसक गयी। तब सास, जेठानी और ननद ने पैरों पर सर रख दिया था कि घर की इज्जत का सवाल है बात बाहर न जाये। सन्नो ने पूरे एक महीने तक पति की जी-जान से सेवा की, अंततः वो चल बसा। अंतिम समय में सन्नो को उसकी आँखों में पश्चात्ताप दिखा था पर तब जब जीवन में कोई झनकार नहीं बची थी।
आज सन्नो की सिसकी नहीं रुक रही कि कौन उसे निर्दोष मानेगा। नरेश के जीते जी वो चुप रही अब किससे कहेगी कि वो बदचलन नहीं है।
'हे प्रभु, अगर कलयुग में धरती नहीं फट सकती समाने को तो सीता मइया जैसा लांछन क्यों लगवाते हो???' सन्नो की आत्मा चीख रही थी।

एक मीरा और दूसरी भी मीरा

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अपनी मीरा श्याम दीवानी
और ये है नाम दीवानी,
12वें दक्षिण-एशियाई खेल में
अपनी उम्र से बड़ा वज़न उठा लिया
अमेरिका की सरजमीं पर
हम सबको चकित किया;
ये है मीराबाई चानू
आप सब भी जानो
48 किलो भार उठाया
स्वर्ण-पदक पाया
बेलन चलाती महिला
डम्बल भी उठाती है,
अब किस बराबरी की बात करते हो 
सबको बताती है:
मणिपुर की सरजमीं को नमन
ऊंचा करो यूँ ही परचम
देश का हरदम।

एक रिश्ते की मौत

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एक रिश्ता 

जो तारीख से उपजा 
कैलेंडर पर बड़ा हुआ 
समय के साथ उम्रदराज़ हुआ.

एक रिश्ता 

जो मन की गहराइयों में उमगा 
सपनों में जवान हुआ 
उम्मीदों में पनपता रहा.

एक रिश्ता          

जिसमे थी समय की बंदिश 
दूरियों की परवाह 
और ही भविष्य की फिकर.

एक रिश्ता 

जो बस प्यार में बना था 
प्यार में पला था 
और प्यार के लिए था.

एक रिश्ता 

जिसमे छाँव थी तुम्हारी 
और धूप मेरी
सुख थे तुम्हारे 
दुःख मेरे 
वर्तमान था तुम्हारा 
और भविष्य मेरा


एक रिश्ता 

जिसमे जीना तो मुझे था 
तुम्हे तो बस टहलना था. 
.........................
मार दिया तुमने मुझे 
मेरे अंदर ही कहीं,
रिश्ता जब मरता है 
कांधा नहीं दिया जाता 
अर्थी नहीं निकलती है,
ही होता है राम-नाम सत्य 
वहां तो बस पिघलती है 
संवेदनाओं की चाशनी 
........................
मैं भोर के तारे सदृश 
आकाश में टक गयी 
ये देखने को 
...............
क्या होगा इस रिश्ते का पुनर्जन्म???

क्या संभव है?

आओ एक कहानी लिखें 
जिसमें स्त्री पुरुष हो 

और 
पुरुष … स्त्री,
क्या संभव है 
एक पुरुष के लिए 
स्त्री बनना?
आज सोचा 

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तो समझ आया 
स्त्री बहुत महान है,
वो हर साँचे में ढल जाती है,
हर किरदार में 
समा जाती है
और पुरुष 
वो तो स्त्री से जन्मा,
समा लेती है                  
स्त्री 
उसे अपने अंदर 
तन से,
मन से,
अर्पण से,
फिर भी 
पुरुष दम्भी 
और 
स्त्री कुंठित क्यों???



फीलिंग्स का गूगल सर्च

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वो सहमा-सहमा सा था मेरे भीतर 

और मैं इठलाई सी
यूँ लगे कि
सारे जहां की
रौनकें मुझपे छायी सी,
एक ऊर्जा सी थी
मेरे अंदर दिव्यता समाने की
मैं माँ बनने जा रही
ये तो सच ही था
पर मैं क्या खोने जा रही
ये अलग सा प्रश्न था अंदर,
जब मैं बहुत प्रेम में थी
मेरे अंदर का मैं
खो दिया था मैंने,
आज जब प्रेम का अंकुर 
प्रस्फुटित हुआ
मैं अपने मन का बच्चा
खोने जा रही
क्योंकि अब तुम
खसखस के बीज वाले आकार से
तिल के बीज वाले आकार में
रूपांतरित हो चुके हो,
तुम्हारे चेहरे के कुछ हिस्से उभरे होंगे
65 की रफ्तार से धड़कने वाले
दिल की नली भी,
तंत्रिका-नली भी तो बन गयी होगी;
पाचन-तंत्र और संवेदी-तन्त्र
भी बनने लगे होंगे,
उपास्थि आ गयी होगी,
बड़ा सा दिखता है सर अभी,
बहुत से सवाल आते हैं मन में,
सामान्य हो जाती हूँ 
जब इनका तसल्ली भरा हाथ
मेरी हथेली को गर्माहट देता है;
गूगल बताता है मुझे
तुम्हारी लम्बाई इंचों में
और वज़न ग्राम में,
पहले सेमेस्टर के आखिर में
तुम अपने पूरे वजूद में हो,
तुम्हारी मुट्ठी खुलती है, बन्द होती है
मगर गर्भ की दीवारों पर 
नाखूनों के निशान नहीं आते
मेरा समूचा अस्तित्व सिमट गया तुझमें
और तुम मेरे अहसास में ज़र्रा-ज़र्रा।

17 साल बाद 20 वर्षीय मिस इंडिया वर्ल्ड

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एक बार फिर भारत की ब्यूटी मुस्करायी
मानुषी मिस वर्ल्ड क्राउन में नज़र आयी
मैक्सिको, इंग्लैंड को भी पीछे छोड़
हरियाणा को विश्व पटल पर दिखाया
जब स्टेफनी ने
मिस छिल्लर को ताज पहनाया,
मेडिकल में दखल रखने वाली ने
17 सालों का सूखा मिटाया
आखिरी जवाब से
भारत की सभ्यता का मान बढ़ाया,
प्रियंका हमें आप पर नाज है
मानुषी ने इस मान को सम्मान दिलाया,
हम भारतवासी आपको देते हैं बधाई
भारत की सुंदरता हर कहीं मुस्करायी।

मैं अपनी फ़ेवरिट हूँ.


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कितना खूबसूरत है
मेरे मैं से मेरा रूबरू होना
वो हर शब्द
भावनाओं की झीनी चादर से ढ़के
मैं पढ़ती रही जो तुमने कहे
कभी खुलकर
तुमने अहसास की बारिश कर दी
मेरे दिल के मोती कभी
अपने नेह की चाशनी में पगे,
तुम तो तुम हो
ये जानती थी मैं हरदम
मैं क्या हूँ खुद में
वो लम्हे जादू के तुमने रचे,
शब्दों की दहलीज पर
कदमों की हलचल कर दी,
सरसों उगाने को
अपनी हथेली रख दी,
मुझमें कविता है मेरी
सीप में मोती की मानिंद,
समंदर की सहर पर तुमने
शाम की इबारत रच दी,
तुम हो
तो गुमां होता है खुद पर
तुम्हें खुद में
सोचती रह जाती हूँ अक्सर
तुम्हारे इन शब्दों में उलझ गयी हूँ
कि मैं अपनी फ़ेवरिट हो गयी हूँ।

तलाश है अच्छी लड़की की...

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तलाश है मुझे
एक अच्छी लड़की की
अच्छा लड़का तो
पहले ही मिल चुका है;
दिमाग के घोड़े दौड़ाइये
न टेंशन में आइये,
ये कोई मैरिज ब्यूरो का आफिस नहीं
न ही बच्चों को गोद लेने-देने वाली संस्था
ये तो बस एक समतल सी जगह है
मैदानी इलाके की
जहाँ मन विश्राम पे है,
सो मन में
एक अहमक सा ख़याल आ गया
सुषुप्त आरजू में उबाल आ गया
थक गयी हूँ अपने आस-पास
सौंदर्य-प्रसाधन का बेजा प्रचार देखकर
अब हिरनी सी आँखे हवा हो गयीं
आई-लाइनर मस्कारा के आगे,
होंठों की गुलाबी रंगत कहाँ खो गयी
कहाँ गुम गए झुर्रियों के धागे,
अब चेहरे उम्र नहीं बोलते
कंपनी का ट्रेड मार्क उगलते हैं,
गाय दरवाजे पर गोबर कर जाए
तो चौबीस घंटे महकता है
मगर स्कूटी पर बैठी दीदी का
चेहरा दमकता है,
फिगर जीरो, कपड़ों का साइज छोटा
अच्छे होने की बस
इतनी सी निपुणता है,
सेल्फी का ट्रेंड है जी:
ब्यूटी प्लस की पोल
एक बार अच्छे लड़के ने मुझसे खोली थी
जो बात मेरे दिल में थी
उसने मुँह खोलकर बोली थी,
वो अच्छा लड़का है
मैं कहती हूँ,
उसमें दुनियादारी की बनावट नहीं है
वो जैसा भी है
उसके शब्दों में मिलावट नहीं है;
तलाश बाकी है अभी
एक अच्छी लड़की की
अब ये मत कहना
कि मैं आईना देख लूँ।

हाई ब्लड प्रेशर: नए मानक



अब खून भी रगों में
सुपरफास्ट हो गया है,
सिस्टोलिक 130
और डायस्टोलिक 80 भी
पार कर गया है।
ये मैं नहीं कहती
एएचए व एसीसी की
गाइड लाइन है:
अगर ज़िन्दगी प्यारी है
तो नमक का इस्तेमाल कम करिए,
न खुद के लिए
न औरों के जख्मों पर छिड़किये;
चटनी-अचार के चटखारे न लगाइये
तेल के कुवें से बाहर आइये;
घड़ी देखकर सोइये,
अलार्म पर उठ जाइये;
सुबह-शाम पार्क जाकर
खूबसूरत चेहरों का
दीदार करिए;
जरा सी बात पर
बाजू वाले का मुंह मत तकिये,
परिश्रम कीजिए
और स्वस्थ बने रहिये;
फिर भी रफ्तार तेज हो
खून की रगों में
तो गोलियां खाइये;
अरे बाबा,
तनाव में मत आइये
अपना दिल और गुर्दा बचाइए;
सुकून एक स्पीड-ब्रेकर है
रक्त-ए-रफ्तार का
खुशी को अपना सहचर बनाइये
और मुस्कराइए;
आबो-हवा खराब हो चली है बहुत ही
मुस्कराने को लखनऊ तो
हरगिज न जाइये।

मुझे एक सोसाइटी बनानी है


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मुझे फीता काटना है
और दीप भी प्रज्ज्वलित करना है
हाँ, मुझे एक सोसाइटी बनानी है
ऐसे लोगों की
जिनके चेहरे प्लास्टिक के न हों,
जहाँ चाँद हर आँगन में हो,
खुशियों को तोलने वाला वहाँ
कोई तराजू न हो;
जहाँ पैसा जरूरत के हिसाब से हो,
कोई बड़ा या छोटा न हो,
अमीर और गरीब भी न हो,
बस एक बस्ती हो इंसानों की
हांड-मांस का जो
पुतला भर न हो,
अपने स्वार्थ के लिये जहाँ इंसान
मुर्दे न बन जाते हों,
वो बस्ती होगी
हम सब के सपनों की,
मुस्कराहटों की,
ईर्ष्या और जलन का प्रदूषण न होगा
हर घर में भाईचारा नहीं
हर मन में दिखेगा।

बच्चे मन के सच्चे



सवालों से जवाबों से इन्हें किताबों से न आंको
उम्र और मन के मिलन को जुराबों में न झांको

चंचल हैं बहुत ये है ठिकाना इनका बहता पानी
हैं चट्टान से मगर ये, बदल दे नदियों की रवानी

उमंगों में जीते रहते और होते सपनों में बड़े ये
हर नज़र में हसीं मुस्कराहटों के दर पे खड़े से

एक उम्मीद बने सब, हैं दस्तक सुनहरे पल की
इनके ही हाथों सौंपी अब डोर अपने कल की

100 सालों के अहसास की दास्तां



मेरे इश्किया जुनून पर पहरे की तरह तुम
ज़िन्दगी के मजमून पर सहरे की तरह तुम

ये लाइनें हूबहू चरितार्थ होती हैं दादाजी के लिए अम्मा के मन के प्यार को जब पढ़ती हूँ। हम सब मतलब हमारी पीढ़ी उन्हें दादाजी और अम्मा बुलाते थे पर थे वो हमारे परदादा। मैं 23 लोगों के संयुक्त परिवार की सबसे छोटी मगर नायाब हीरा थी। खुद से अपनी तारीफ नहीं करती पर सभी का मानना था। मैं अपनी दादी के मुंह से अक्सर उनकी सास की बचपन की कहानी सुनती थी।
अम्मा का बाल-विवाह महज़ 9 साल की उम्र में हो गया था तब दादाजी की उम्र उनसे भी 1 साल कम 8 साल की थी। इस बात पर मैं अक्सर अम्मा को छेड़ती रहती थी, "आखिर क्या देखकर आपके लिए गुड्डा पसन्द कर लिया गया?"
अम्मा भी बहुत बेबाकी से जवाब देती थी, "अरे हम तो कनॉट प्लेस जाते ही रहते थे अपनी बुआ के यहां, सामने वाले घर में तुम्हारे दादाजी रहते थे छोटी सी निकर पहनकर छत पर पतंग उड़ाया करते थे। जब दोपहर हो जाये अम्मा के बुलाने से न आये तो पिताजी बड़ी सी छड़ी लेकर जाते थे। हम भी अक्सर दोपहर में कबूतरों को पानी देने जाते थे और हमारे सामने ही इनकी धुलाई हो जाती थी। ये हमें कनखियों से देख लेते थे फिर गुस्से और शर्म से आग-बबूला हो जाते थे। एक दिन इन्होंने कुंडी खटकाई, हमने दरवाजा खोला सामने ही चरखी लिए दिख गए। इन्होंने कहा हमारी पतंग तुम्हारे छत पर है, हमने मना कर दिया कि तीन माले चढ़कर नहीं जाएंगे बाद में आना। ये भौं सिकोड़ते हुए चले गए। तब से नोंक-झोंक का सिलसिला शुरू हो गया। एक दिन अम्मा आयीं बुआ से मिलने, बुआ ने बातों ही बातों में कहा अपनी लोई बहुत लड़ती है धीरू से इन दोनों का ब्याह करा दें तो ठीक रहेगा। अम्मा ने तो जैसे सपना देख लिया मेरे ब्याह का। बाबू के न रहने से अम्मा की बहुत जिम्मेदारी थी। बुआ को मनाने में लग गयीं कि चर्चा करो ब्याह हो जाये गौना बाद में देंगे। बस फिर क्या था हमारा ब्याह हो गया।
"फिर क्या हुआ अम्मा?" जब भी मैं पूछती अम्मा बताने लगतीं।
"फिर होना ही क्या था, हमने भी बोल दिया हम इसके घर रहने नहीं जाएंगे। जब हमें विदा कराकर लाया गया तो हम सबसे नज़र बचाकर बुआ के यहाँ भाग गए। शुरुआत में तो सब ठीक था पर बाद में हमें वहीं रहना पड़ा। स्कूल में दाखिला हो गया। हम लोगों का रिक्शा लग गया। पूरे रास्ते झगड़ा होता रहता। बस छुट्टी के समय हमारी याद आती। पत्नी की तरह हमने इनके कपड़े नहीं धोए कभी मग़र स्कूल का काम हमीं करते थे। धीरे-धीरे दोस्ती हो गयी। इनकी जिम्मेदारी हमपर आने लगी थी। अक्सर दोपहर का खाना हम इन्हें छत पर ही खिलाते।  ये छत के एक कोने से पतंग उड़ाते हम दूसरे कोने पे छुडइया देते। जब पतंग ऊंचे उड़ने लगती हम इनकी चरखी सम्हालते। जब हम अपने पल्लू से इनका पसीना पोछते तो हमें चुम्मी ले लेते थे। हम दिन भर इनके आगे-पीछे लगे रहते।" ये बताते हुए अम्मा आज भी लाल हो जाती हैं।
"और कुछ बताइये न अम्मा, आपकी लव स्टोरी आगे कैसे बढ़ी?"
"बस ऐसे ही चलती रही, हमें गर्व होता है कि हम इतने समय तक रिश्ते में हैं।"
आज अम्मा की शादी की 100th एनिवर्सरी मनाने की तैयारी चल रही है। अपने अनुभव के पलों को वो बहुत गर्व के साथ शेयर करती हैं।
"धीरे-धीरे हम लोगों ने पढ़ाई पर मेहनत शुरू करी। पिताजी छड़ी लेकर काम देखते थे। हम दोनों को बराबर डाँट पड़ती थी। जब कक्षा 9 में इनका दाखिला हुआ तो ये दोस्तों की सोहबत में ज़्यादा रहने लगे। स्कूल में हमसे तो बात ही नहीं करते थे मगर हमारे आगे-पीछे रहते थे, क्या मजाल जो हम किसी से बात कर लें।"
"क्या कहकर डांटते थे अम्मा?"
"बस हम आँखे देखकर समझ जाते थे। फिर घर आने पर लाड़ भी दिखाते थे। इसी तरह कक्षा 12 तक चलता रहा। फिर इनको वकालत की पढ़ाई के लिए दूसरे स्कूल भेज दिया गया। हमने वहीं से बी ए करा। तब तक हमारे अंदर का बचपन बहुत कम हो चुका था। इनकी वकालत की डिग्री और तुम्हारे बड़े पापा की पैदाइश, इन दो बड़ी बातों ने हमारी ज़िंदगी बदल दी। तुम्हारी बड़ी बुआ और बड़े चाचा का भी आना हुआ।हम घर-गृहस्थी और वो दुनियादारी इन्हीं में लगे रहे।"
नोंक-झोंक, तकरार के जवाब में अम्मा कहती हैं, "ये सब कभी हुआ ही नहीं हमारे बीच। जब शादी हुई तो समझदारी नहीं थी जब समझदार हुए तो कदमों को अपनी दिशा पता थी। हम तो एक-दूसरे की मंजिल के राही थे। लेकिन इतना तो है कि हमने ज़िंदगी ठेली नहीं एक-एक अहसास जिया है। 100 बरस का रिश्ता निभाया है।" अम्मा की आँखों में वो कॉन्फिडेंस दिखा मुझे कि एकबारगी मन बाल-विवाह की वकालत कर बैठा। मुझे समझ में आ गया था कि अगर कोई अनचाही घटना हो जाती है तो डरकर, पीछा छुड़ाकर भागने की बजाय उसे खूबसूरत मोड़ देने की कोशिश की जाए तो उससे ज़िन्दगी बेहतरीन हो जाती है।
"अरे दादाजी वहाँ कहाँ बैठ गए आप मेहमान नहीं हैं। अम्मा क्या अकेले केक काटेंगी।" मैंने मेहमानों से खचाखच भरे हॉल में दादाजी के पास जाते हुए कहा।
"अरे मीठी आज शायद ही केक कट पाए। अम्मा तैयार नहीं हो पाई।" दीदी बलून उड़ाते हुए बोली पर दादाजी ने टोक दिया उसे,
"मीठी, आज पहली बार तुम्हारी अम्मा केक काट रही हैं तैयार हो लेने दो जी भरकर।" दादाजी की आंखों से 100 साल का अनुभव और स्नेह झलक रहा था।
"हम तो ज़िन्दगी की जिम्मेदारियों में इतने उलझ गए कि कोई खुशी ही न दे पाए उसे।" अम्मा रेड कलर की साड़ी में जैसे ही सामने से आते हुए दिखीं हॉल में मौजूद सभी लोग टकटकी लगाकर देखने लगे। दादाजी तो पूरे 90 डिग्री के एंगल पर टर्न हो गए। उनकी आँखों में प्यार ही प्यार था। वो प्यार जो बचपन में ममत्व से, तरुणाई में मार्गदर्शन की भावना से और उम्र के इस पड़ाव पर सहयोगी की तरह रूबरू कराता है। 8 साल की उम्र से फलता-फूलता हुआ आज यहाँ तक पहुंच गया।
अम्मा और दादाजी केक काट रहे थे। सारा माहौल इतना खुश था जैसे उन्हें हर जन्म साथ-साथ रहने का आशीर्वाद दे रहा हो।

मैं तुम्हारी ही तो हूँ।

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तुमने मुझे
रंगों में जाना,
छन्दों में जाना, 
काग़ज़ के हर
अनुबंधों में जाना;
पर जहाँ मैं तुम्हारी
बस तुम्हारे लिए हूँ,
तुमने न जाना,
वहीं बस न माना.

इंसानियत से इंसानियत तक



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ट्रैफिक सिग्नल पर ग्रीन लाइट का इंतज़ार करते हुए मेरी नज़र गाड़ी साफ करते लड़के पर गयी। कुछ जान-पहचाना चेहरा दिखते ही मैंने कार का शीशा खोला, "अरे मासूम तुम!" मुझे खुशी से चहकता देख मासूम मेरी कार विंडो के पास आ गया।
"दीदी आप, पहचान गयीं मुझे?" इतना कहते ही उसकी आंख में आँसू आ गए।
"क्यों नहीं पहचानूँगी तुझे...अच्छा ये बता हुस्ना कैसी है, और तूने ये हुस्ना का काम कब से शुरू कर दिया?"
"दीदी हुस्ना का उसके अब्बू ने घर से निकलना बंद कर दिया, आप तो जानती ही हैं सब कुछ।" इतना कहते ही वो फफक कर रो पड़ा।
मैंने मासूम से गाड़ी में बैठने को कहा और अनुभव से हुस्ना के घर चलने को। वहाँ से तकरीबन 30 मिनट की दूरी पर था।
गाड़ी हाई वे पर दौड़ रही थी और मैं अपनी यादों की हसीन गलियों में। यही कोई 5 साल पहले मुझे मेरे अब्बू ने कल्याण अपार्टमेंट के एक फ्लैट में जेल की तरह शिफ्ट कर दिया था वहाँ कोई इंसान तो दूर परिंदा भी पर नहीं मार सकता था। मेरा गुनाह ये था कि मैं एक हिन्दू लड़के से प्यार कर बैठी थी। पूरे 72 घण्टे बाद मुझे सामने वाले फ्लैट में एक लड़का पेपर डालते हुए दिखा। मेरे आवाज देने पर वो खिड़की के पास आ गया। पूछने पर पता चला वो हॉकर है, रोज नीचे से पेपर डालकर चला जाता था आज सामने से खिड़की बन्द थी तो ऊपर आ गया। मैंने एक चिट पर अपना फ्लैट नंबर और अपार्टमेंट का नाम लिखकर अनुभव का पता बताते हुए देने को कहा।
अगले दिन वो अनुभव का रिप्लाई लेकर आ गया साथ ही हुस्ना को अब्बू की गाड़ी साफ करने को लगा दिया। हुस्ना और मासूम की मदद से अनुभव ने एक सेल फ़ोन मुझ तक पहुंचाया। मैं बाहर तो नहीं जा सकती थी पर अनुभव तक अपने मेसेज पहुंचा सकती थी। हुस्ना और मासूम हमारा बहुत ख़याल रखते थे। मेरे पैदा होते ही अम्मी गुजर गई। अब्बू मुझे इस बात का दोषी अब तक मानते हैं। मुझे अनुभव में माँ-बाप हर किसी का प्यार दिखा और अब मासूम, हुस्ना तो मुझे अल्लाह के बंदे दिखे। हुस्ना गाड़ी साफ करती थी और मासूम हॉकर था। हुस्ना उन मासूमों में से एक थी जो अपनों में रहकर यौन-उत्पीड़न का दंश झेलते हैं। मासूम की पाकीज़गी पर वो फिदा थी। उसे पहली बार कोई ऐसा मर्द मिला था जो उसके जिस्म का दीवाना नहीं बल्कि मन का तलबगार था।
जैसे ही अनुभव की फाइनेंसियल क्राइसिस खत्म हुई, हमने शादी कर ली। अब्बू की रज़ामन्दी तो नहीं मिली दुवाएं भी न मिल सकीं। आज उन बातों को 5 साल बीत गए। इस दौरान मैं खुद में इतनी मशरूफ़ रही कि मासूम और हुस्ना से न मिल सकी। जबकि मैं और अनुभव अक्सर उन दोनों का जिक्र किया करते थे।
अचानक लगे ब्रेक से मैं हक़ीक़त में आ गयी। गाड़ी हुस्ना के घर के सामने वाली गली में थी। हम लोगों को इस तरह आया देख हुस्ना के अब्बू सहम गए। अनुभव को देख उनकी आँखों में मीडिया का भय दिखा। हुस्ना रोते हुए मुझसे लिपट गयी। मैंने उसके माथे को सहलाया। उसकी आँखों में यकीन दिख मुझे। हम हुस्ना को लेकर आ गए। वापिस आते एक अच्छा सा सुकून मिल रहा था मुझे पर एक सवाल ज़ेहन में था कि एक हुस्ना को तो मैंने आज़ाद करा दिया समाज तो ऐसी हुस्ना से पटा पड़ा है। वो खुली हवा में सांस लेने को छटपटा रही हैं कब चेतेंगे हम अपने कर्तव्यों के प्रति कि कोई हुस्ना अत्याचार सहने को मजबूर न हो?

माँ बनना मुश्किल तो नहीं!


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माँ बनना इतना मुश्किल नहीं है
दर्द अहसासों में कहाँ गुम हो जाता है
किसे खबर रहती,
दिन उम्मीदों में
और रातें सपनों में हवा होती हैं,
जो नहीं है
उसके होने का अहसास
सर्दियों में खिली
मुट्ठी भर धूप की तरह है,
है तो अजन्मा
पर सोच की उँगली थामे
देखो न कहाँ खड़ा है;
हर दरख़्त के साये में
हर दीवार से बड़ा है,
जब नरम हथेलियों की गुनगुनाहट में
करवटें लेता है,
रोम-रोम खिल उठता है,
यूँ तो है सुरक्षित
मेरे अंदर नौ महीने,
पर सीने से लगा लूँ अभी
मन मचल उठता है:
कितना कलरव करता है अंदर
सिसकियां भी भरता है कभी,
घूमता है, फिरता है, पुकारता है
जैसे कहता हो
मुझे दुनिया देखनी है अभी;
पहले दिनों में होती थी
महीनों की गिनती
अब तो हर घण्टे हिसाब होता है,
तुम्हारे होने में हम दोनों
बस तुम्हारे हो गए
उनकी शिकायतें सर-आंखों पर
पर तुम सबसे प्यारे हो गए,
जब सुनाती हूँ उन्हें तुम्हारी धड़कन
दूरी हमारे
और भी करीब लाती है,
तुम सांस लेते हो मेरे भीतर
और खुशी हमारी मुस्कराती है:
इतना मुश्किल नहीं है माँ बनना
मैं तो महसूसना चाहती हूँ
तुम्हारे जन्म का पल
नींद का इंजेक्शन लेकर नहीं,
प्रसव-पीड़ा सहते हुए,
योनि-मार्ग से निकलते हुए,
तुम्हारा पहला रोना
मैं सुन सकूँ
इतना मुश्किल भी नहीं है
माँ बनना
मैं गर्व से कह सकूँ।

ये कहाँ आ गए हम!!!


 













महबूबा भले ऐश्वर्या सी दिला दो
मगर वर्चुअल है तो क्या
खुशियाँ पहाड़ सी भले ऊँची कर दो
मगर डिजिटल हैं तो क्या
हक़ीक़त से मिला दो हमें
हमको भी तो लिफ्ट करा दो
ज़िन्दगी हमारी वही अच्छी थी
कागज़ के नोट को थूक से गिनते थे
एक बड़े से मैदान में
चौपालों में सजते थे
तब एक हॉल में बीस होते थे
पता चलता था
अब दो सौ हों तो भी
सर झुके रहते हैं
ज़िन्दगी है तो शहद सी
पर नीम पे चढ़ी
हम दौड़ में आगे भाग रहे हैं
क्योंकि
हमारे साथ कोई नहीं
खुश हैं बहुत अपने आप मे
क्योंकि मंजिल का पता नहीं,
जब पहाड़ जैसे सपनों का
बौना सा अंत दिखता है
ज़िन्दगी का उम्बर घाट
मछली की मानिंद
तलहटी पर तड़पता है।

कुछ तो करो!

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उ कहे
भगवान जी से
बढ़ा दो, बढ़ा दो
भगवान जी भी
बढ़ावत नहीं रहे
फिर का
एक दिन
उ हिमालय चले गए
लगे तपस्या करन
भगवान जी सो के उठे ही थे
दातुन करी
हिमालय से आवाज आई
वहाँ चले गए
जो कुछ समझे आवा
बढ़ा दिहिन
सैलरी जस की तस
मुसीबतें ठूंस ठूंस के
जी एस टी समेत
तब से आज तक
उ हिमालय पर हैं।

ज़िन्दगी, तू ही तो है!

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वो तेरे जिस्म को छूती मेरी प्यासी ये निगाहें
न कोई और है रहबर, मांगे बस तेरी पनाहें
तू तो बस अब ही ठहर न किसी रोज़ न आ
मैं तो हूँ तुझमें ज़िबा तेरा कोई और ठिकाना

उस रोज से प्यासी है ज़मीं
तेरी चाह बस वहीं थमीं
उस ओर ही टूटा था सितारा
जिस ओर मेरी आँखों ने
तुझे जी भरके निहारा
तेरी खुशबू, तेरा जादू
बस तेरी ही तेरी कमी
तू है तो कहीं
पर यहाँ तो नहीं

मैं तेरे दर्द की शहनाई पे दिल अपना रख दूँ
हो तेरा कोई ख्वाब अधूरा उसे पूरा कर दूं
मुझे ज़ीनत न समझ दिल की ये इनायत कर
तुझे चाहूं मैं बेसबब, खुद को ज़िंदा कर दूं

ये गुलशन भी खामोश है
तेरी हर अदा पर फिदा
छू ले एक बार मेरा दर्द
सुकूँ हो जाये
मैं जागती रहूँ तुझमें
और ये रात हममें सो जाए
ये खिला-खिला सा तू
वक़्त दे बस इतना सुकूँ

मुझको देता है तू हर रोज़ गुनाहों की सजा
मैं चीर के दिल रख दूँ, तू गुनाह तो बता
तुझको चाहा है, बस चाहा है और चाहा है तुझे
ये गुनाह है तो आकर दे दे एक रोज़ सजा

लम्हा-लम्हा मरती हूँ मैं
बस एक लम्हे के लिए
मैं छोटी सी नदी
वो सैलाब तेरी मोहब्बत का
मैं बह तो गयी
पर फना होकर

दे वो लम्हा, मैं चाहूँ तुझे ये गंवारा कर ले
तेरी आँखों में सिमट जाए, ख़्वाब हमारा कर ले
है तेरे सुरूर की हसरत और बस दीवानगी तेरी
तू मेरे दिल का हो रहबर सितम भले सारा कर ले

वो जूस वाला...


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"देख...देख...जरा ढंग से, आज फिर नहीं आया तेरा वो जूस वाला।"
"हाँ तो ठीक है न! कौन सा मेरी जागीर ले गया?"
"और क्या अब तो ऐसे बोलेगी ही तू!"
"अपने काम से काम रख और गाड़ी चलाने पे ध्यान दे। वैसे मुझसे ज़्यादा अब तू जूस वाले का इंतज़ार करती है।" मेरा इतना कहना था कि वो चुप होकर गाड़ी चलाती रही। मैं अपनी फ्रेंड के साथ रोज़ इसी रास्ते से आफिस जाती थी। पहले तो कभी ध्यान नहीं दिया पर एक दिन साथ में पानी न होने पर जूस का ठेला दिख गया। वैसे तो मैं बाजार की कभी कोई चीज़ नही खाती-पीती थी पर वो जूस उस दिन मुझे अमृत सरीखा लगा। जूस पीने से पहले मेरी दो शर्त थीं। पहली तो ये कि साफ-सफाई हो और दूसरी कि मौसमी मतलब मौसमी, इसके अलावा कोई और जूस न निकाला गया हो। दोनों कैटेगरी में जूस वाले को 100 आउट ऑफ 100 जाते थे। उसका सर्व करने का शालीन तरीका भी मुझे बहुत पसंद आया।
हम दोनों अक्सर रुककर जूस पी लेते थे। एक दिन हम सामने से बिना रुके निकल गए। दूसरे दिन जाते ही उसने पूछा, "मैडम आप कल नहीं आयीं?"
"अरे भैया जी, कल हमारे पास चेंज नहीं था।"
"तो क्या हुआ बाद में ले लेते। अब रोज़ पी लिया करिए पैसे एक साथ लेंगे।"
मैंने उसे सौ का नोट दिया, वो चेंज वापिस करने लगा।
"आप इसे रख लीजिए, कल फिर आऊंगी तो नहीं दूँगी।"
"अरे नहीं मैडम हम ये नहीं लेंगे। आप पहले जूस पियेंगी जब 100 रुपये हो जाएंगे हम इकट्ठा ले लेंगे।"
मैंने ज़बरदस्ती 100 रुपये ठेले पर डाल दिये और चली गयी। रास्ते भर मेरी दोस्त बड़बड़ाती रही, न जान न पहचान क्या जरूरत थी 100 रुपये देने की उसे। ये सब ऐसे ही होते हैं, अगर भाग जाए तो....। मैं चुप रही।
पर उस दिन के बाद से मैं आज तक ताने सुन रही हूँ। मैं भी परेशान हूँ इसलिए नहीं कि पैसों का गम है बल्कि उस जगह वो जूस का ठेला देखने की आदत सी हो गयी थी। अब किसी और जूस में वो टेस्ट नहीं आता था।
मैं उधेड़बुन में थी कि गाड़ी एक गाय से टकराकर डिवाईडर पर पलट गई। मेरी आँखें हॉस्पिटल में खुलीं। बाद में पता चला कि गिरने की वजह से मेरे सर में चोट आ गयी थी। मेरी फ्रेंड किसी की हेल्प से मुझे हॉस्पिटल तक लायी। हेल्प करने वाला कोई और नहीं बल्कि वही जूस वाला था। आज से ठीक 21 दिन पहले उसके बेटे का रोड एक्सीडेंट हो गया था। तब से आज तक वो इसी हॉस्पिटल के आस पास रहता है। पैसों के लिए कभी-कभी मौसमी का जूस भी निकालता है। एकदम बदल सा गया है वो, पहले से बहुत दयनीय लाचार सा दिखने लगा है। मेरे होश में आते ही जूस का गिलास लेकर आ गया। आज कितने दिनों के बाद वो टेस्ट पी रही थी मैं। मेरी फ्रेंड ने पैसे निकालकर देने को हाथ बढ़ाया।
"क्यों शर्मिंदा कर रही हैं मैडम, अभी तो आपके 100 रुपये हैं हमारे पास। हम गरीब हैं पर बेईमान नहीं। बहुत लाचार हो गए बच्चे को कोई दवा असर नहीं कर रही। आपको पैसे देने भी न आ पाए।" मेरी फ्रेंड कुछ बोलती इससे पहले ही डॉक्टर का बुलावा आ गया।
"रामआसरे जी, आपके बच्चे को होश आ गया। डॉक्टर साहब आपको बुला रहे हैं।"
मैं जूस वाले भैया उर्फ रामआसरे को वार्ड की तरफ भागते देख रही थी। मेरी फ्रेंड आँखों की कोरों पर आँसुओं को छुपाने की कोशिश कर रही थी।

एक थी शी

रोज़ की तरह आज भी शी उसे बेपनाह याद किये जा रही थी। शरीर बुखार से तप रहा था फिर भी उसे अपना नहीं ही का ही ख्याल आ रहा था। एक तरफ ही था जो दूर भागता रहता था। शी कितना भी कोशिश करती पर खुद को नहीं समझा पा रही थी। उसके लि दूरी मौत का दूसरा नाम थी। ही जो पहले उसे इमोशनली सपोर्ट करता था, अब अचानक कतराने लगा था। काफी दिनों से ये सब देखते हुए शी अब अंदर तक टूट गयी थी। एक अलग सा वैक्यूम बन गया था उसके अंदर।
लेटे-लेटे अचानक शी को कुछ घबराहट सी महसूस हुईअनजाने में ही उसका हाथ गले पर चला गया, बहुत खालीपन सा महसूस हुआ उसे। शी के गले में हमेशा ही एक ैन हुआ करती थी। एक रोज़ ही से बाते करते हुए वो कब उसे निगल गयी पता ही न चला। बहुत परेशान हुई थी वो। उसकी परेशानी का सबब ये नहीं था कि चैन गयी या लोगों को क्या जवाब देगी या ैन के बगैर वो रह नहीं पाएगी बल्कि उसे ये लग रहा था कि माँ से नज़र कैसे मिलाएगी? बहुत प्यार से माँ ने उसे गिफ्ट किया था, क्या कहेगी उनसे कि सम्हाल नहीं सकी उनका प्यार या फिर ये कि ही उसके लि माँ से भी ज़्यादा इम्पोर्टेन्ट हो गया था।
आज शी की घुटन का सबसे बड़ा कारण यही है कि ही उसकी जिंदगी में ऐसे मिल गया था जैसे हवा में साँसे घुल जाती हैं पर ही ने एक अलग ही दुनिया बना ली थी। जिसमें हर वो शख्स था जिसे वो अपना कहता था अगर कोई नहीं था तो वो शी।
शी के लि जीने की कोई वजह नहीं थी। यहां तक कि उसने अपने आखिरी वक्त में ही से बोलना भी नहीं जरूरी समझा। कहीं दो शब्द भी न छोड़े अपने ही के लि
रात के दो बजे बिस्तर से उठकर माँ के कमरे में आयी। उसका ये वक़्त चुनने का कारण ही था। वो हर रात दो बजे तक उसकी कॉल का वेट करती रहती थी, आज भी किया पर उसे मायूसी इस कदर निगल चुकी थी कि इंतज़ार को एक और रात नहीं दे सकती थी।
"मुझे माफ़ कर दो माँ, मैंने तुम्हारा दिल दुखाया। अब मुझे जीने का कोई हक़ नहीं।" इतना कहकर माँ के पैरों पर सर रख दिया। अब तक नींद की गोलियां अपना असर कर चुकी थीं।
शी इज़ नो मोर नाउ.....

मेरी पहली पुस्तक

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