मुझे तुमसे
लड़ना नहीं था
पर तुम्हारे सामने
खड़े होना था
जब तुम्हारी ओर
बढ़ने लगे
बहुत से हाथ
सहानुभूति के
जब तुम बढ़ाने लगे
अपने दायें बायें
क़द औरों का
तब मेरी ज़िद थी
मुझे तुमसे
आगे निकलना था
To explore the words.... I am a simple but unique imaginative person cum personality. Love to talk to others who need me. No synonym for life and love are available in my dictionary. I try to feel the breath of nature at the very own moment when alive. Death is unavailable in this universe because we grave only body not our soul. It is eternal. abhi.abhilasha86@gmail.com... You may reach to me anytime.
मुझे तुमसे
लड़ना नहीं था
पर तुम्हारे सामने
खड़े होना था
जब तुम्हारी ओर
बढ़ने लगे
बहुत से हाथ
सहानुभूति के
जब तुम बढ़ाने लगे
अपने दायें बायें
क़द औरों का
तब मेरी ज़िद थी
मुझे तुमसे
आगे निकलना था
'मैं तुम संग प्रेम में हूँ'
यह कोई प्रणय निवेदन नहीं
मेरे मन का माधुर्य भर है
शकरपारे से पगी अपनी दीद
रख देना चाहती हूँ
मैं तुम्हारी हथेली पर
लज्जारुण हो तुम लगा लेना
हथेली अपने सीने से
संध्या विनय के क्षणों में
नीड़ चहकने तक
तुम आकाश सुमन हो मेरा
सौम्य नभ कमल
मेरे विनयी साथी
मेरी तंद्रा का आकर्षण
कल्पनाओं की नीलगिरि से
आती हुई परिचित भाषा
मुझे नहीं पता मैं कौन
और तुम मेरे मन का मौन
घर बैठे कमायें बिना किसी निवेश
जब लुभावने शब्दों की बात आती है तो एक शब्द मेरे ज़ेहन में कौंधता है और वह है रेपटा. हाँ यह वह शब्द है जो मुझे आकर्षित करने वाले शब्दों में से एक है. जाने क्यों इस शब्द से मुझे लगाव है. लेकिन रेपटा अर्थात थप्पड़ का शाब्दिक मायने बहुत कम रहा मेरे जीवन में. हाँ किसी ने कोई जधन्य अपराध किया तो मेरे मुँह से बरबस ही निकल जाता है कि अगर सामने होता तो मैं रेपटा मार देती लेकिन यह कहने सुनने की बातें हैं. अधिकतम गुस्से में मेरे मन में आया एक ख्याल भर है. हाँ यह मानती हूँ कि अगर किसी ने आत्म सम्मान को ठेस पहुँचायी है तो ले देकर सामने ही हिसाब किताब बराबर कर लो. थप्पड़ की गूँज होती है. थोड़ा सा झनझनाहट भी होती है लेकिन कोई ऐसी चोट नहीं आती जिससे टूटन हो. बिना वजह मारा गया थप्पड़ आत्म सम्मान को गंभीर नुकसान पहुँचाता है. कंगना रनौत को लगा थप्पड़ मैं निंदा की श्रेणी में रखती हूँ. थप्पड़ मेरे लिए निंदा का विषय ना होता अगर मामला तुरंत सुलटा लिया जाता (विचार मेरे अपने हैं इसमें किसी का कोई लेना देना नहीं है)
किसी को भी किसी के आत्म सम्मान को ठेस पहुँचाने का कोई अधिकार नहीं है क्योंकि कई बार इन थप्पड़ों की गूँज नहीं हो पाती है और वह डाह बनकर गलाते हैं किसी के मन को. इंसान अवसाद में आकर आत्महत्या तक की ओर क़दम उठा लेता है.
थप्पड़ बस एक थप्पड़ नहीं राजनीतिक दृष्टिकोण से समीकरण होता है व्यवहारिक दृष्टिकोण से सम्मान और अपमान होता है और नैतिक दृष्टिकोण से? इसके बारे में सोचा है कभी?
नहीं न! सोचोगे भी कैसे इस समाज को राजनीति का अखाड़ा जो बना दिया है. नैतिकता किस चिड़िया का नाम है. न तो नैतिकता उसके पास होती है जिसने थप्पड़ मारा न ही उसके पास जिसको थप्पड़ पड़ा क्योंकि इसके बाद समाज में एक थप्पड़ की गूँज से दो धड़े हो जाते हैं. इनमें से एक आत्म सम्मान का वास्ता देकर नैतिक ठहराता है और दूसरा बदले की भावना से ग्रस्त कुंठित ठहराता है. एक थप्पड़ से जितनी गरिमा आहत नहीं होती है इससे ज्यादा थप्पड़ पर हो रहे बहस मुबाहिसे से, विचार विमर्श से, कविता शायरी से, मीडिया चर्चा से होती है. थप्पड़ ट्रेंड करने लगता है. लोग खोज कर पढ़ने लगते हैं. बस यही तो चाहिए ठेलुओं को. नैतिक पतन के साथ-साथ सामाजिक पतन की भी पराकाष्ठा है यह.
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जंगलों में अक्सर चलती हैं सभायें
हिसाब होता है हर रोज संपदा का
कोई सज़ा मुकर्रर नहीं होती
मग़र लाली पर
बस ले जाती है कभी-कभार वह
मात्र इतनी लकड़ियाँ
जितनी आग से
बुझायी जा सके जठराग्नि
इन लकड़ियों के बदले
वह रक्षा भी तो करती है
जंगल, जीवन और प्रकृति की
इस पेड़ के नीचे आज की यह
अंतिम सभा है
हत्या का इस पर स्टिकर लगा है
सुंदर से गछ को मिटाकर
किया जायेगा सौंदर्यीकरण
दहन कर इसकी जड़ों को
करेंगे किसी मल्टीप्लेक्स का अनावरण
@main_abhilasha
चित्र सुशोभित जी की स्टोरी से चुराया था.
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शब्दों से ध्वनियों को विरत कर
उसने कहा, 'अब कहो प्रेम'
बधिर हो लाज तज
एक मूक ने उन आँखों पर लिख दिया
'अब भी हूँ तुम्हारी सप्रेम’
एक मूक से वाचाल भी
अब मूक हो गया
तवे पर रोटी का सिक जाना
कोई नयी बात कहाँ
प्रेम में रोटी दो जून की बनाना
कोई नयी बात कहाँ
रोटी और तवे का स्नेह जलता रहे!
@main_abhilasha
माथे पर थी
स्वेद की धार
मन, तृष्णा की
मीन बयार
दर्द की हर
लज्जत से प्यार
इमली, कैरी, कैथा बेर
गुम गयी सहेलियाँ चार
बैर, द्वेष से भरा है मन
खोया स्मित का संसार
फेंक दो सारी
खुली किताबें
प्यारा बचपन
लौटा दो यार
मुझे लड़कियाँ बेहद पसंद है
मूंज की लड़कियाँ
कांस की लड़कियाँ
होती हैं कहीं कहीं ताश की लड़कियाँ
मिट्टी की लड़कियाँ
गिप्पल की लड़कियाँ
बिन सूरमे, लाली के सिम्पल सी लड़कियाँ
देर तक इन लड़कियों को देखते रहना
मुझे पसंद है,
ठहर कर देखना
टिक कर देखना
उनकी हर अदाओं को आँखों में क़ैद करना
कैसे जीती है लड़कियाँ
यह सोचना पसंद है
किस बात पर कैसे प्रतिक्रिया करती है लड़कियाँ
मुझे समझना पसंद है
लड़की होकर उन्हें
लड़की होने का अहसास होता है क्या
यह सवाल मुझे झकझोरता है
उनके बारे में और सोचने को मजबूर करता है
फिर सोचती भी हूँ कि
मैंने बस मालीवाल, ईरानी या रनौत को ही नहीं देखा
मैंने तो दौड़ते देखा है
कोटेश्वर मंदिर से चिरबटिया तक सरोजनी को
अल्ट्रा मैराथन में मेडल के लिए, और
बेरेगाड़ से नारायणबगड़ तक
पुलवामा में शहीद हुए जवानों को
श्रद्धांजलि देने के लिए
मैंने देखा है
बछेंद्री और किरन को, इंदिरा नूयी को
ये वो लड़कियाँ हैं जो ढ़क लेती हैं
सूरज को अपने हाथों से
कोई फर्क नहीं पड़ता उनको
सूरज डूब रहा है या उग चुका
परित्यक्ता के माथ पर
प्रश्न है बड़ा जड़ा
"मुझे छोड़कर गया है जो
क्या बुद्ध बन गया है वो?"
जो जाते स्त्री को रास्ते
अज्ञान ही क्या बाँटते?
स्त्री यदि पथ शूल है
तो शूरवीर पुरुष कहाँ?
हाथ छोड़ भार्या का
भागता है मुँह छुपा?
क्या निर्णय था उचित
छोड़ना पथ में अनुचित?
अभिलाषा
तुम एक प्रयोज्य हो स्त्री
खोखली वायु के आकाश में विचरने वाली
क्या उदाहरण बनोगी किसी के समक्ष?
नहीं निकाल पायी थी तलवार
अपने म्यान से औचक
तो नोंच लेती उसकी खाल
दाँत और नाखून भी तो हथियार ही हैं
कुछ नहीं तो घृणा से थूक ही देती
उस भेड़िये की आँखों में
तुम्हारे रुदन की पीड़ा कुछ तो कम होती
अपमान का घूँट तो न गटकना पड़ता
छाती और पेट पर मार तो न लगती
तुम्हें पता है तुम्हारे बहाने से
यह पुरुष समाज एक बार फिर करेगा अट्टहास
और मनायेगा स्त्री की कमजोरी
इन्हीं में से कुछ पुरुष आयेंगे आगे
और जबरन रख लेंगे तुम्हारा सिर
अपने कंधे पर
उनकी सहानुभूति में मिश्रित रहेगा
पुरुष के वर्चस्व का महिमामंडन
‘स्त्री दुर्बल है और दुर्बल ही रहेगी’
तुम्हारे दरवाजे पर पसरी भीड़ का स्लोगन
भले ही उच्च स्वर में न हो
पर परिस्थितियों में प्रमाणबद्ध रहेगा
मार खाकर डंके की चोट पर दण्ड दो
अथवा क्षमा
स्त्री ही रहोगी
संभवतः इसीलिए नियति ने तुम्हारे वास्ते
बस एक दिवस बनाया है
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अन्न उगाया
सूत बनाया
बाग लगाये
घर बनाये
जीने से मगर मरने तक
मेरे हिस्से कुछ न आये
श्रमिक जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी
सूखे आँसू, मिले न रोटी, नून और पानी
वह मेकअप नहीं लगाती
बाल सँवारती भी है
तो कामचलाऊ
उसे देखना है
तो तुम्हें अपनी आँखों को
करना होगा एडजस्ट
उसके लेवल तक
क्योंकि वो एडिट नहीं करती.
तुम सब भी तो नहीं
ला पाये ख़ुद को टाॅप पर
तुम ब्यूटीफुल हो
और वह ‘जेनुइन’
तुम सब एक जैसे हो
और वह ‘यूनीक’
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