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तुम हो इस पल!

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एक अजीब सी घुटन हो रही मेरे भीतर
जैसे तुम मेरे शब्दों से बंधकर रह गए हो,
महसूसती हूँ तुम्हें अपने बहुत पास,
हाथ बढ़ाती हूँ तुम्हें छूने को;
तुम मुस्कराते हो,
कहते हो,
'कदम भी तो बढ़ाओ'
और मैं कदम-दर-कदम
सफर तय करती जा रही हूँ।
ये तो वो मुकाम है
जिसे लोग ज़िंदगी कहते हैं;
इसमें तुम कहाँ हो?
मुझे तो तुम्हारा होना
अपनापन लगता है बस,
बाकी सब तिलिस्म की दीवारें हैं
अजनबी आहटें हैं यहाँ,
आओ न एक रोज
कुछ देर ठहरो
बादलों के बिम्ब पर,
मैं अपनी देह की ऊष्मा गलाकर
स्याही बनाना चाहती हूँ,
इस रूहानी मिलन की बेला में
मेरे लरजते होठों को इतना शान्त कर दो
कि भीतर की ऊर्जा का आकाश
कलम की लेखनी सोखकर अमर कर दे
मेरे उन्माद भरे शब्दों को,
कम न पड़ने दो मेरे आवेग को,
मैं जीती रहना चाहती हूँ
स्नेह से पगे इस आकर्षण में,
तुम्हारे होने के इस पल में।

Be with me ever, no alternate.

The addition of two words
Ash+Sha=Asha, makes me perfect.
Abhilasha
I'm really owed to God to bless me wonder of the universe. I dedicate whole journey both of my pillars. If first one is Generator, second one is Observer then obviously me Destructor but they accepted me as I'm. I famished for nothing because they are with me. They stood beside before I stumble. They are the reason if I came to know my worth. I have no words of gratitude coz they are on extreme.
I'm really destined having them.
Be with me ever, no alternate.


मेरा पुनर्जन्म

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सुनो,
आज की रात
चाँद जमीन पर उतारकर भी करना!
जब अहसासों की जुम्बिश
निंदिया की हथेली पर
धीरे-धीरे करवट लेगी
तो तारे अपनी नींद भर सोएंगे,
मैं तुम्हारे पहलू में रात भर
भोर की राह तकुंगी।
अपने जीवन के प्रलय को
तुम्हारे सृजन के क्षणों से धोती रहूँगी।
आज की रात
तुम्हारे देह की उष्णता से
हुई बूंदों का स्खलन
मेरे भीतर का बीज प्रस्फुटित कर चुका है,
अब वो ऋतु नहीं होगी कुछ माह
मेरे अंतर में होता रहेगा
मेरा ही पुनर्जनम।

मनुहार की हथेली

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सुनो
अब इतनी भी खामोशी
अच्छी नहीं होती,
ये झूठमूठ का अनशन क्यों?
देखो न ये शब्द
सुहागरात को मचल रहे हैं,
और तुमने तो
कलेवा भी नहीं किया,
इन्हें इनके हक़ का दे दो,
अब हम खाली शब्दों से
नहीं मानने वाले,
हमें तो खुशी की पलक पर
उम्मीद का दिया जलाना है,
रात की रानी को
तुम्हारी हँसी से सजाना है,
आओ न
मनुहार की हथेली पर
हां की हल्दी का टीका करो
और
नज़रों के अक्षत से
इस सेज का श्रीगणेश।

वक्रीय दुश्वारियां


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वो हर रास्ता तय करता गया
ये समझे बगैर
कि उसका हर कदम उल्टा है,
जीवन की बारीकियों में उलझा रहा,
मोटी रेखाएं उसके चारों ओर
त्रिभुज की तरह अड़ गईं,
घेरा तो हर ओर से आच्छादित था
मगर उसने
एक रेखा उठाकर राह बनानी चाही,
समानांतर क्रम टूटा
और राह बनी रेखा पर
समय की वीभत्स दुश्वारियां
360° में नियत हो गईं।

गुनाह

उसने प्यार को गुनाह बताकर
अपने सिरहाने
मगर तकिये के नीचे रखा,
आंखों से रिसते हुए आँसू
उस गुनाह की स्याही को
बूंद-बूंद धोते रहेंगें
और वो तिल-तिल
कसमसाता रहेगा।
उस पाकीज़गी को
गुनाह बनाने में
वो भी तो गुनहगार था
लम्हा दर लम्हा।
कल की सुबह भी
उस गुनाह की स्याही
ज्यों की त्यों मिलेगी
क्योंकि
आंख से रिसने वाली हर बून्द
तकिये के अहम को
भेद नहीं पाएगी
गुनाह और संवर जाएगा।

मेरी पहली पुस्तक

http://www.bookbazooka.com/book-store/badalte-rishto-ka-samikaran-by-roli-abhilasha.php