Wikipedia

खोज नतीजे

मित्र, बस तुम ही तो थे!


 GOOGLE IMAGE

जब तपती दोपहरी में
रेत पर नंगे पाँव चल रही थी मैं,
ठंडी हवा के झोंके के मानिंद,
हौले से आये और
अहसास बनकर ठहर गए पास मेरे
मित्र, तुम ही तो थे!
तुम्हीं तो महसूसते हो मेरी ठिठुरता
दे जाते हो सर्द रातों में
अपना नर्म, गुलाबी अहसास,
तुम्हारे शब्द कड़कते हैं रातों में
और अहसासों की रजाई दे जाते मुझे
मित्र, तुम ही तो थे!
तुम्हारे स्नेह की चितवन
बस मुझपे ही ठहर जाती है,
कड़कती बारिशों में तुम अपनी
छतरी नई मुझपे लगा गए
तुमपे बरसता रहा मौसम जार-जार
मित्र, तुम ही तो थे!
कल्पनाओं से पगी है ये दुनिया
किंतु तुम्हारा होना यथार्थ है,
मेरे होने में तो बस मैं होती हूँ,
तुम हो तो हम है,
थी टूटी शाख पर नाउम्मीदी की मानिंद
तरु नया बना गए
मित्र, तुम ही तो थे!

मुझे स्त्री ही बने रहने दो!

GOOGLE IMAGE

स्त्री हूँ मैं
और जीना चाहती हूँ
अपने स्वतन्त्र अस्तित्व के साथ;
क्यों करूँ मैं बराबरी पुरुष की,
किस मायने में वो श्रेष्ट
और मैं तुच्छ!
वो वो है
तो मैं भी मैं हूँ,
ये मेरा अहम नहीं
मुझे मेरे जैसा
देखने की तीक्ष्णता है
स्वीकारते हो न,
मैं और तुम
ये दो पहिये हैं हम के;
अगर तुम्हारे बेरिंग घिस रहे जीवनपर्यंत
तो मेरे कौन सा
गुणवत्ता की कसौटी से परे हैं,
इन्हें श्रेष्ठता के तराजू में
नहीं तोलना है मुझे,
ये तो ज़िन्दगी के कोल्हू में
पहले से मंझे हुए हैं;
एक द्वंद जो चल रहा मैं के भीतर
उसका समूल विनाश ही तो बनाएगा
हम का संतुलन:
मैं तुच्छ नहीं
वही तो है इस सृष्टि की सृजक
और तुम पालक हो इस सत्ता के
तभी तो हम से सन्तुलन है,
और अहम विनाश की
व्यापक स्वरूपता।

स्त्री रक्त पिलाकर क्या रक्तबीज पालती है?

 PIC CREDIT: PINTEREST

स्त्री को मानव न समझकर
अबला समझने वाले ए सबल पुरुषार्थियों,
रे दम्भी समाज,
मत पिला इन कानों को तेजाब का अमृत,
अगर ये आंखें बेकाबू हो गयी
तो मेरे सीने का दर्द
तेरी ज़िंदगी पर
ज्वालामुखी की मानिंद बरसेगा,
कब तक बिठाएगा मुझे
परीक्षा की वेदी पर ये समाज,
जिस दिन कदम उठ गया
रौंद जाएगी
दुष्टता की ये सत्ता खुद-ब-खुद,
मूकदर्शक होकर देखोगे तमाशा,
उस दिन ये मत कहना कि 
मेरे अवचेतन मन को जगाया क्यों नहीं,
मौका है अब भी सुधार खुद को
और संवारने दे मुझे
सृष्टि के नए सृजन की कहानी,
तुझे कोख में पालते वक़्त ही इतिश्री की होती,
अगर भान होता तू कलंकित करेगा,
एक स्त्री ने पुरुष को
बंधक बनाकर नहीं
रक्त पिलाकर नौ महीने सींचा,
मत कर अपमान उस ममता का,
मत जमा पाँव गुनाह के दलदल में,
तेरे घर में भी एक राजकुमारी होगी 
उसका सोच,
तेरे जैसी जाने कितनी
निगाहों के हवस के दायरे में होगी,
सोच एक बार
एक मासूम लड़की
ज़िल्लत में जी रही
तू हरकत पे हरकत किये जा रहा,
अगर अब भी न सुधरा
तो डूब जाएगा
उसके आंसुओं की बाढ़ में,
क्या बोला था, 'नपुंसक हो जाऊं'
अरे नपुंसक नहीं
तेरा दिमाग बंजर हो जाएगा,
अगर रक्तबीज से
किसी दर्द की फसल लहलाहएगा।

हिंदी से है हिन्दोस्तान!

GOOGLE IMAGE


हम सब के माथे की शान
हिंदी से है अपना हिन्दोस्तान,
कश्मीर से कन्याकुमारी और
पोरबन्दर से सिलचर तक
हिंदी ने कभी कोई
सरहद या दीवार नहीं बनाई,
सबने वही जुबां बोली
जो समझ में आई;
फिर भी ये उपेक्षा की
दहलीज़ पे ही रहती है:
स्वर-व्यंजनों का स्नेहिल संयोजन
पहले अपनों को ही समझना होगा,
फिर हिंदी की मशाल से रोशन
समूचे विश्व को करना होगा।
ओंकार से आज सब बिस्मिल्लाह कीजिये
कोटि-कोटि इन शब्दों का नमन कीजिये।

हम बड़े क्यों हो गए

 PINTEREST IMAGE.

तुम्हारे आलिंगन में
आज वो अनुभव नहीं रहा,
तुम्हारे अनुभवों में
अब वो मिठास नहीं रही.
पहले तो नहीं आते थे ऐसे
जैसे कि तुम्हारा आना
कोई बहुत बड़ी बात हो.
वो तुम्हारे
छोटे-छोटे गिफ्ट्स
मुट्ठी भर टाफी, चोकलेट्स
और हाँ
खिलौनों में छुपा
तुम्हारा चेहरा.
हर शाम
लौटते वक़्त
लाते थे
हमारे लिए 'चिज्जी'
जिसकी मिठास
अभी तक जिन्दा है.
कितना संबल मिलता था
तुम्हारी बाहों में आकर.
कितनी रिश्वत दे डालते थे
देवी-देवताओं को
मेरे एक बार खांसने पर
यही तो सच है न
पर आज
वही पुराने दिन क्यों नहीं हैं,
आज तुम्हारा आना
ऐसे क्यों लगता है
जैसे
खानापूर्ति हो?
ऐसा क्यों हो गया
'पापा'
उम्र बढ़ने से
रिश्ते छोटे क्यों हो गए,
क्यों सिमट गया
तुम्हारा प्यार
जिम्मेदारियों के बोझ तले
क्यों छिन गया हमसे
हमारा बचपन
पापा
हम बड़े क्यों हो गए?

प्रद्युम्न, अब तुम कभी नहीं आओगे!

GOOGLE IMAGE


अक्सर छोटे बच्चे स्कूल जाते वक्त
अपनी माँ को इन बोलों की थपकी दे जाते हैं,
'माँ, मैं जा रहा हूँ
तुम अकेले रहोगी न घर पर,
डरना मत!
यहीं दरवाजे पर इंतज़ार करना...'
माँ कितने भी काम निपटा ले
पर उसकी चौकस नज़रें
दरवाजे पर पहुंच ही जाती हैं;
ऐसा ही कुछ साधारण सा दिन रहा होगा
जब उस नन्हें से लाल के कदम
दहलीज़ से बाहर गए होंगे
कभी वापिस न आने के लिए;
उस रोज़ भी हर रोज़ की तरह
माँ ने दी होगी जादू की झप्पी;
काश कि माँ को आभास हो जाता
और वो बच जाता
अखबारों की सुर्खियां बनने से,
वक़्त उसे तारीख़ न बनाता:
उस ममता को आभास नहीं हुआ
वो रोशनी लेकर चला गया
पर एक सबक छोड़ गया पीछे
हम सभी के लिए
कि हम अपने कलेजे के टुकड़ों की
रक्षा ख़ुद करें;
किसी और घर में दूसरा प्रद्युम्न न आये:
हर माँ का लाल देश का नौजवान है,
क्या हैवानियत निगल ही लेगी
इंसानियत को और हम याद में
कैंडल जलाते रहेंगे??

अपना-अपना आसमान

 PC: GOOGLE

एक अरसे के बाद
आज माँ ने
बहुत दुलारते हुए कहा,
' जितना समेटती जाओगी
खुद को
उतनी ही
फैलती जाएगी ये दुनिया,
जितना पास जाओगी
हर किसी के
उतना ही खाली होता जायेगा
मन तुम्हारा,
कब तक पढ़ती रहोगी
दुनियादारी की किताब,
कोई आँखें चुनो
जो तुम्हें पढ़ सकें,
ज़िन्दगी एक सफर ही नहीं
मुनासिब मंज़िल भी है
महज अपना आज ही जीना
ज़िंदादिली तो है
पर समझदारी नही.……
………………… '
इसके आगे भी
बहुत कुछ कहती रही माँ
कुछ तो सुन लिया मैंने
कुछ निकलता रहा ऊपर से.
एकबारगी मन किया
माँ की गोद में सर रखकर
जार-जार रो लूँ,
पर सहम गयी मैं
कहीं माँ पढ़ न लें आज मेरा मन,
एक बार फिर मैंने
अपने सुर्ख आँखों की तपिश
अंदर ही पी ली थी,
माँ का हाथ थामा
निकल आई तारकोल की सड़क पर,
एक बच्चे की तरह
माँ से ज़िद की
एक लाल और
एक नीले गुब्बारे के लिए,
लाल पर अपना
और नीले पर
तुम्हारा नाम लिखकर
उनकी डोर छोड़ दी,
कुछ दूर साथ रहकर
उन दोनों ने अलग
अपना-अपना आसमान ढूंढ लिया.

मेरी पहली पुस्तक

http://www.bookbazooka.com/book-store/badalte-rishto-ka-samikaran-by-roli-abhilasha.php