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अब मोमोज़ हो गई है।



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पहले रिश्तों को
धुला, सुखाया और फिर
तला जाता था,
अब सेंकने का भी
समय नहीं मिलता है;
तब जो
कुरमुरे से हुआ करते थे,
अब विद्युत यन्त्र में
मरे से पड़े हैं:
वो वक़्त नहीं रहा
जब जायका था
अब तो दिखावे की तस्करी है,
जिसका जितना महंगा चूल्हा
उसकी उतनी दाल गली है:
तब स्वादानुसार थे
अब सेहतानुसार हैं,
तबियत की कहाँ रही थाली
आँखों की सोज हो गयी है;
क्या खाया गिनते-गिनते
टेंशन की डबल डोज़ हो गयी है;
वक़्त की आंच पर
मद्धिम-मद्धिम सी तली
पहले समोसा सी थी ज़िंदगी
और अब
मोमोज़ हो गई है।

एक रिश्ते की मौत


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रोज़ की तरह उस दिन भी मैं रात लगभग 10 बजे घर वापसी कर रहा था। रास्ते सुनसान थे पर लगातार हो रही भयंकर बारिश ने मेरी गाड़ी की स्पीड बहुत कम कर दी थी। मुझे रह-रह कर माँ का खयाल आ रहा था कि आज भी गरमागरम चाय के साथ उसकी प्यार भरी डाँट सुनूँगा...'कितनी बार कहा है शादी कर ले फिर टाइम पे हर काम होगा। अभी न तो तेरा आने का कोई वक़्त है न जाने का, इस दिन के लिए तुझे डॉक्टर थोड़ी बनाया था कि समाज सेवा के नाम पर अपनी मनमर्जी करता रहे।'
शहर से दूर क्लीनिक बनाने के बारे में सुनकर कितना गुस्साई थी कि इतनी दूर जंगल में नहीं भेजूँगी तुझे। क्या और सारे डॉक्टर मर गए हैं जो तू जाएगा...। किसी तरह से मनाया था मैंने उन्हें, कितने ही दिन बात नहीं की थी मुझसे। मैं खयालों में डूबा हुआ ही था कि अचानक गाड़ी के सामने एक बच्ची आ गयी। इमरजेंसी ब्रेक लगाया, उतर कर नीचे तक गया।
'कहाँ घूम रही इतनी रात अकेले, जाने कैसे पैरेंट्स हैं जो रोड पर छोड़ देते हैं, कहाँ जाना है तुम्हें?' मेरे इतना पूछते ही वो चीख-चीख कर रोने लगी और मेरे पैरों से लिपट गयी।
'अजीब मुसीबत है...' मैनें उसे पैरो से अलग करते हुए कहा। फिर महसूस किया कि बच्ची न तो बोल सकती है न ही सुन सकती है। आस-पास नज़र दौड़ाते वीराने के सिवा कुछ नहीं दिख रहा था। मैं अजीब कशमकश में था। कोई और रास्ता न दिखते हुए उसे गाड़ी में बिठाया। उस दिन रोज़ से भी ज़्यादा देर होने पर माँ का जायज़ मगर अति क्रोध देखकर मैंने सरेंडर करना ही ठीक समझा। फिर उस बच्ची को देखते ही माँ एक साथ हज़ारों सवाल कर बैठी पर मैं चुप ही रहा क्योंकि जवाब तो मेरे पास भी नहीं थे सिवाय इसके कि मुझे कब और कैसे मिली। ख़ैर सारी बात जानने के बाद हम लोगों ने ये निश्चय किया कि सुबह होते ही पुलिस स्टेशन छोड़ आएंगे। माँ ने उस बच्ची को पहले तो नहलाया फिर खूब खिलाया पिलाया। बच्ची भी ऐसे खा रही थी जैसे हफ्तों से भरपेट न खाया हो। मैंने देखा माँ के साथ वो कुछ ज़्यादा ही सामान्य लग रही थी। बिस्तर पर लेटते ही सो गई।
सुबह होते ही मैं उसे लेकर थाने पहुंचा। वहाँ किसी बच्ची की गुमशुदगी की रिपोर्ट नहीं दर्ज थी। वो बोले शहर से थोड़ी दूर पर एक मलिन बस्ती है शायद ये वहाँ की हो। आप इसे यहाँ बिठा दीजिये हम कोशिश करते हैं इसके घर पहुंचाने की नहीं तो बाल-गृह भेज देंगे। आप जा सकते हैं।
मैं गेट तक आया ही था कि मेरी आत्मा कचोटने लगी, इतनी छोटी बच्ची न बोल सकती है न सुन सकती है इन लोगों का रवैया इतना ख़राब है। जाने कब तक ये कुछ करें। इतना खयाल आते ही मैं उल्टे पाँव लौट गया।
'देखिए इंस्पेक्टर साहब, मैं इस बच्ची को तब तक घर ले जाना चाहता हूँ जब तक आप कोई अरेंजमेन्ट न कर लें।'
'जी, बिल्कुल।' इंस्पेक्टर का जवाब सुनकर मुझे ऐसा लगा जैसे वो इसी बात की प्रतीक्षा कर रहा था। फिर घर आकर मैंने माँ को सारी बात बताई, वो भी मेरी बात से पूरी तरह सहमत थीं।
हम लोग उसके लिए कुछ कपड़े और भी जरूरी सामान लेकर आए। मुझे ऐसा लगने लगा एक हफ्ते के अंतराल में बच्ची हम लोगों के साथ कम्फ़र्टेबल हो गयी है। वो दिन भर माँ की उँगली पकड़कर घूमती रहती।इस दौरान मैं रोज़ पुलिस स्टेशन जाता पर महज औपचारिकता पूरी करने। इस घर में मैं और मेरी माँ की वीरानियाँ बांटने वाला एक खिलौना आ गया था। उसकी मूक सी पर चपल हँसी पूरे घर में गूँजती। कभी-कभी मैं ये महसूस करता जैसे उसका कोई ऐसा रिश्ता ही नहीं जिसे वो मिस करती। फिर तो उसे कभी कोई ढूँढने ही नहीं आएगा। ये भी ठीक है। बिना नाम का एक रिश्ता था उससे पर उस रिश्ते को एक नाम तो देना ही था। प्यार से उसे जोई बुलाते लगे।  एक अलग तरह का रिश्ता बन गया था उससे। यही लगता था उसकी खिलखिलाहट से ये घर भरा रहे। हम लोगों ने सब कुछ ईश्वर पर छोड़ दिया था।
हर दिन के जैसी वो भी एक सुबह थी। मैं ब्रेकफास्ट कर रहा था तभी माँ ने बताया कि जोई को बहुत तेज़ बुखार है। मैंने देखा हाई ग्रेड फीवर था। फीवर कम करने की दवाई देकर क्लिनिक चला गया। वहाँ मन नहीं लगा तो कुछ जल्दी ही घर आ गया। उसे बुख़ार कम होने का नाम ही नहीं ले रहा था। मैंने शाम को ही होस्पिटलाइज़ कराया। मैं और माँ उसकी तीमारदारी में लगे रहे। बुखार और बढ़ता देख डॉ ने कुछ टेस्ट कराए। अगले दिन टेस्ट की रिपोर्ट हाथ में आते ही होश उड़ गए। वो नन्हीं सी मासूम बच्ची एच आई वी पॉजिटिव थी। हम लोगों के चेहरे लटक गये थे। उस मासूम सी बच्ची की आंखों में कई सवाल उमड़ रहे थे मग़र जवाब कोई नहीं था। मैं बार-बार ईश्वर से यही सवाल कर रहा था कि जब इतनी जल्दी छीनना था उसे तो हमसे मिलाया ही क्यों? माँ भी अलग परेशान थी। किसी की हिम्मत नही हो रही थी कि उस बच्ची को तसल्ली देता। क्या क़ुसूर था उसका जो उसे इतनी बड़ी सजा मिल रही।
उसे दवाइयां देना भी एक औपचारिकता पूरी करना रह गया था। फिर भी हम कर रहे थे, उसकी हर इच्छा पूरी करने की कोशिश कर रहे थे। अंततः वो समय भी आ गया। दस दिन के एक रिश्ते की मौत हो गयी। नियति के समक्ष सारे समीकरण बौने हो गए थे। रिश्ते के गणित से निकलकर मैं पुनः जीवन की तारकोल वाली सड़क पर आ गया था एक मुसाफ़िर की तरह।

माँ हाईटेक हो गयी है

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मॉँ अब मुंडेरों पर राह नहीं तकती,
मौसम की तरह बदल सी गयी है माँ,
बहुत गर्म या बहुत ठंडी नहीं होती
मॉडरेट सी है
कोशिश करती है मेरे साथ
कदम से कदम मिलाने की.
पहले अक्सर कहा करती थी
फेसबुक, व्हाट्स एप ने
तेरी आँखों के काले घेरे बढ़ा दिए,
हर वक़्त चैटियाता रहता है.
एक पहरे का जाल बुन दिया
माँ ने मेरे चारों ओर.
फिर अचानक से लगा
जैसे माँ इग्नोर करने लगी है सब कुछ
शिकायतें भी बंद कर दीं
सोने लगी वो रातों में मुझसे अलग
जैसे मेरे बिना रह लेगी,
मुझे असहज सा लग रहा था
पर समय का बहाव सहज करता गया,
मैंने एक दिन माँ को
टूटे चश्मे के शीशे को सम्हालते देखा
जैसे इसके बगैर रह न पायेगी,
मोबाइल पर चलती मेरी उंगलियां
वो बड़े गौर से देखती,
एक दिन मेरे पैरों के नीचे से
जमीन निकल गयी,
ये जानकर कि
मेरी आँखों के काले घेरे बढ़ाने वाली,
बात-बात पर हिदायतें देने वाली,
मेरा ख्याल रखने वाली,
मेरी सुबह की नमी, 
रातों की हमनवां,
वो क्यूट सी गर्ल 
कोई और नहीं
मेरी माँ हैं.
मैंने उसे वक़्त देना बंद कर दिया
तो क्या हुआ
उसे तो आज भी आता है
मेरे करीब रहने का हुनर
एक दोस्त की तरह.
अब माँ ने खाने में घी की मात्रा बढ़ा दी
और हलवे में बादाम काजू,
जगने पर रातों को वो किट-किट नहीं करती
माँ, हाईटेक हो गयी है।

हमारे टोटके


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हार गए तुमसे प्यार जताकर,
तुम दूर जाते हो
और मुस्कराते हो,
तुम्हें पता ही है न
हम तुम्हारे बस तुम्हारे हैं,
तभी तो तुमसे हारे हैं;
सुनो, आज हम मजार वाले
फकीर बाबा के पास गए थे,
उन्होंने सुबह और रात वाली पुड़िया दी,
हमें ढाँढस बंधाते हुए बोले,
'थोड़ा-बहुत कै आये तो चिंता मत करना,
डॉ को मत दिखाना'
हमने वो पुड़िया खोलकर
लोबान में सुलगा दी,
'ऐसी शय का हम क्या करेंगे
जो उन्हीं को कै दिला दे?'
फिर एक ताबीज देते हुए बोले,
'ये अचूक है, हाँ उलझन न होने देना':
हमने वो ताबीज बिल्ली के गले डाल दी
अरे उलझे मेरा दुश्मन
तुम तो
हमें हमारे दर्द से भी ज़्यादा प्यारे हो,
हमने भी कह दिया
बिना साइड इफ़ेक्ट वाला
कोई अचूक सा नुस्ख़ा हो तो बताएं,
वो असमंजस में अंदर चले गए,
मुस्कराते हुए आकर एक चिट थमा दी,
'ये शाम तक अपने पर्स में रखो,
गोधूलि में पढ़कर फेंक देना।'
हमने यही किया
सुन रहे हो न पिया...
उस चिट पर बड़ा खूबसूरत लिखा था..
"नकेल बनकर मत रहो
तुम यौवना हो उनके मन की
सब कुछ तो तुम्हारा है
प्यार में दूरी भी जरूरी है,
एक लगाम हो,
ऐसी भी क्या मजबूरी है,
तुम तन की दासी पर
मन की स्वामिनी हो,
ये अमिट सौगात का सौदा है
नहीं कोई दूरी है"
पिया, हमारा मन भी कभी-कभी
अधकचरा सा हो जाता है,
तुम्हारा सम्मोहन
हमारा नींद-चैन, भूख-प्यास जो ले गया
तुम्हारे आस-पास होने के
अहसास का जंतर-मंतर पहनाकर।

मेरी पहली पुस्तक

http://www.bookbazooka.com/book-store/badalte-rishto-ka-samikaran-by-roli-abhilasha.php