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तुम्हारी उष्णता को घूँट-घूँट पियेंगे!


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हमारे मन के अधूरेपन को
आकार देती तुम्हारी पूर्णता
और तुम्हारे न होने पर
पल-पल पिघलती हमारी लघुता,
इसको साकार करना है हमें
नीलगगन का मिलन बनकर।
तुम्हें चाँद क्या कहें
तुम तो आसमान हो हमारे,
तुम्हारे फैलाये हुए डैने ही तो
हमारी छाँव हैं;
सुनो आज की रात थाल में
हमारे स्नेह का
हल्दी और अक्षत होगा,
छलनी से चमक रही हमारे चाँद की आभा
श्रंगार के यौवन को और बढ़ाएगी,
तुम रूप, रस, माधुर्य भरा घूँट पिलाओगे,
हमें प्रेम की गलियों में
दामन थामकर टहलाओगे,
तुम्हारे लिए गणेश चतुर्थी नहीं
हम तो हर वार व्रत रहेंगे,
आज की रात हम प्रेम का मधुमास जियेंगे,
तुम्हें पल-पल दिल में उतारेंगे,
तुम्हारी ऊष्णता का घूँट-घूँट पियेंगे,
अहसास की चादर तले
सुखन की धीमी आंच पर,
तुम्हारे नेह की हांडी में
जीवन का लाजवाब दाल-भात चखेंगे।

वो तेरह दिन...





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कोई न बचाता मेरा अस्तित्व मेरी आत्मा के देह छोड़ने पर बड़के की माँ भड़क गई थी। पहली बार देखा था उसका इतना रौद्र रूप मैंने जब वो अनुनय-विनय न करके आदेश सुना रही थी।
'तेरे बापू के सारे संस्कार वैसे ही होंगे जैसा वो कह कर गए थे। जिसको रुकना है रुको, जाना है जाओ, अभी उनकी धर्मपत्नी ज़िंदा है। मुझे ईश्वर ने सुहागिन नहीं बुलाया अपने पास जाने किन कर्मों की सजा थी, अब ये गुनाह करके मैं उनकी आत्मा नहीं दुखाउंगी। सुन बड़के छोटे से भी कह दे, समझा दे उसे नहीं रुकना चाहता तो जा सकता है पर मैं ये तेरह दिन पूरे तेरह दिन मनाऊंगी। चाहे तो तेरहवीं के भोज में आ जायेगा न चाहे तो वहीं किसी जगह मना ले।'
कहते-कहते सौदामिनी का ब्लड प्रेशर हाई हुआ जा रहा था। फिर भी वो पूरे जोश के साथ आगे बढ़कर सब कर रही थी। आज मेरी आत्मा को मुक्त हुए 20 घंटे ही हुए थे। पहले तो शरीर को पंचतत्व में विलीन करने की जल्दी थी फिर शमशान घाट से वापिस आते ही इस बात पर विचार-विमर्श चल रहा था कि तेरहवीं संस्कार तीन दिनों में सम्पन्न कर दिया जाए। छोटे को ऑफिस देखना था और उसकी पत्नी गांव में एडजस्ट भी नहीं कर पाती थी सो उसका पूरा दबाव था बड़के पर कि जल्दी करे। बड़का कुछ बोलता इससे पहले ही उसे ये कहकर चुप करा दिया गया कि तुम गांव में रहने वाले क्या जानो शहर में किस तरह से एडजस्ट करना पड़ता है। बड़के की पत्नी भी छोटे को देखकर भाव खा रही थी, 'अरे मेरे बच्चे का इम्तिहान है।'
सौदामिनी की दो टूक बात सुनकर सबकी बोलती बंद हो गयी थी। निर्णय एकतरफा और ज़ोरदार था, सभी को मानना ही था। 
'ठीक है माँ, आप जैसा उचित समझो।' इतना कहकर वो माँ के पास खाट पर बैठ गया था। 
'छोटे को और उन दोनों को भी बुला लो।'
सभी माँ को घेरकर बैठ गए। पहली बार इस बैठक में मैं नहीं था। सभी बात शुरू करते इससे पहले ही गला भर आया, आवाज रुँध गयी सभी की। 
'माँ, ये लीजिये पानी।' पानी का गिलास माँ को देते हुए छोटी बहू ने कहा।
माँ ने गिलास एक तरफ रखने का इशारा किया। सारी भूख-प्यास तो मैं ले आया था। कैसे रहेगी वो मेरे बगैर, उसकी पल-पल की आदत था मैं। सब तो अपने आप में ही व्यस्त थे, मैं ही तो था जो उससे झगड़ता था उसका अकेलापन बांटने को। 
किसी तरह से बातचीत आगे बढ़ाई गई। माँ ने गरुण पुराण से लेकर तेरहवीं भोज तक की सूची बनवा दी थी। बच्चे बार-बार काना-फूसी शुरू करने लगते फिर माँ की भृकुटी देखकर शांत हो जाते। जब बात समय से हटी तो पैसे पर आ गयी थी। सभी का ये मानना था कि इतनी फिजूलखर्ची की क्या जरूरत। पर माँ की ज़िद के आगे किसी की न चली।
सौदामिनी तो मेरी मौत को एक उत्सव के रूप में मनाने को आतुर थी। उसे यही लगता था जैसे मैं अब भी उसके आसपास हूँ। उसका जानलेवा लगाव मेरी परेशानी का सबब था पर अब मैं चाह कर भी कुछ नहीं कर सकता था। अब तक सब लोग अपने-अपने कमरे में जा चुके थे। सौदामिनी बिस्तर पर करवट बदल रही थी। दुःख से ज़्यादा ज़िम्मेदारियों का भाव था उसके ऊपर जिसे वो बखूबी निभा रही थी। सब अपने-अपने कमरे में बस इसी उधेड़बुन में जग रहे थे कि ये काम तो कम समय और पैसे में भी हो सकता था फिर इसके लिए इतना करने की क्या जरूरत? उधर सौदामिनी की सोच थी कि जब सारे काम चलते रहते हैं, शान-शौकत दिखाने का वो कोई मौका नहीं छोड़ते फिर इसे फिजूलखर्ची कैसे कह सकते हैं। जब मैंने किसी के शौक और दिखावे को फिजूलखर्च नहीं कहा फिर किसी का क्या हक़ है अपना ही पैसा खर्च करने से रोकने को?
सौदामिनी ने बस यही कहकर सबको चुप कराया था कि इतना पैसा तो अभी उनकी पेंशन बुक में ही पड़ा है कि सारे काम निपटाने के बाद भी बड़का अपने बच्चे की फीस और छोटा नए मकान का डाउन पेमेंट कर सकता है। मैं असहाय सा शरीर के मोह से आज़ाद मगर आत्मा की दासता में जकड़ा हुआ था। जीवन भर इन लोगों के लिए जान गला दी अब भी इतना कुछ छोड़ आया कि आराम से रह सकते हैं फिर भी मेरी आत्मा के तर्पण के लिए मेरी पत्नी को संघर्ष करना पड़ रहा है। मेरे बीज से जन्मे मेरे अपने बेटे क्या इन्हें भी मैं एक रिश्ता ही समझूँ। मेरा शरीर नहीं रहा तो ये मेरे होने का अस्तित्व ही नकार रहे हैं। क्या होगा इनका खुद का भविष्य, कहीं मुझसे बुरा तो नहीं? मेरी आत्मा घुटी जा रही थी।
जाने क्यों होता है ऐसा जितना हम बड़े अपने बच्चों के बारे में सोचते है आखिर वो क्यों नहीं समझते इस बात को या फिर नासमझी के भंवर में रहते हैं। उम्र के अंतिम पड़ाव में बुजुर्ग जाए तो कहा जायें। जब मेरा जीवन बच्चों की जिम्मेदारियों को पूरा करने में समिधा बनकर हवन हो रहा था तब मैंने न तो खुद की जरूरतों के बारे में सोचा न ही अपने आस-पास की दुनिया के बारे में। बच्चों के लिए कितनी बार माँ-बाप भूखे सोते हैं, कितनी ही बार अपनी रातों की नींदे खोते हैं और उन्हें इस बात की भनक तक नहीं होने देते फिर भी एक उम्र होने पर उपेक्षा की दहलीज़ पर आ ही जाते हैं। 
आज जब मेरे न होने पर सौदामिनी का ख़याल बच्चों को सबसे ज़्यादा रखना चाहिए था तो उसे कर्म-कांड के नाम पर अस्तित्व बचाये रखने के लिए भी संघर्ष करना पड़ा। इसके बाद तो फिर कभी न आऊंगा मैं किसी हक़ की भीख मांगने। मेरी जड़ आत्मा इस सत्य को नहीं पाई आज तक कि शौक और फैशन के नाम पर लुट जाने वाले लोग आस्था और विश्वास के नाम पर खुद को कंजूसी के बिलों में क्यों रोप लेते हैं। किस दिशा में भटककर जाएगी आने वाली पीढ़ी? किस रूप में आएंगे ईश्वर प्रचंड मार्तंड का अस्तित्व बचाने? कहते हैं माता-पिता में ईश्वर दिखता है पर जब इनकी सुनी ही न जाये तो क्या कहेंगे? 
दूसरी ओर कलयुग के माता-पिता हैं जाने कौन से संस्कार से बांध रहे हैं बच्चों को, क्या समझेंगे ये हमारी संस्कृति, तहज़ीब और मूल्यों को। ये तो दिखावे के गुलाम बने जा रहे। पाश्चात्य के मोह में ऐसे घुलते जा रहे कि अपनी सभ्यता मजाक लगती है। जब बच्चे जनेऊ धारण करने के बाद भी उसका मतलब नहीं समझते तो क्या समझेंगे तेरहवीं के तेरह दिनों का अभिप्राय। काश कि मैं एक बार फिर आ पाता और इस बार अपना जीवन बच्चों की जरूरतों में न गंवाकर उन्हें सांस्कारिक बनाने में लगाता। 
सौदामिनी ने एक जश्न की तरह वो तेरह दिन मनाए। हर किसी से यही कहती कि क्यों रोये किसी बात का तो ग़म नहीं इसके अलावा कि सुहागिन नहीं मरी। इतना भरा-पूरा परिवार छोड़ गए अपने पीछे, सारे कर्म-कांड किये जीवन के। हर ज़िम्मेदारी को बखूबी निभाते थे। बच्चों की ख्वाहिश तो क्या, बच्चों के बच्चों की भी पूरी करते थे। एक बच्चे ने पिछले हफ्ते नई सायकिल छूने पर लकी को डाँट दिया था, घर आया तो बड़के ने भी मारा। उसके दादाजी से नहीं देखा गया तुरन्त नई सायकिल दिलाई। ये तो सही है कि उनके जाने पर उनकी बहुत कमी रहेगी पर वक़्त आ गया था। ऐसे ही एक दिन मुझे भी अपने पास बुला लेंगे....इतना कहते-कहते ज़ोर की खाँसी आयी और गला एक तरफ लुढ़क गया था। सौदामिनी भी अपनी चिरनिंद्रा में लीन हो गयी थी। उसकी मौत पर बच्चे फूट-फूट कर रोये थे। बड़के ने कहा दिया था माँ का अंतिम संस्कार और सारे कर्म-कांड वैसे ही होंगे जैसे बापू के हुए। छोटे ने भी सहमति दे दी थी।

Gulzaar: Poetry lives in his name1

Hat's off to his poetry.

 ye halka-halka savera
jab tum mujhse kahte ho,
shabd thithurte hothon par
baatein bhari ho jati hain. 


Tum naav-ummeedi par baithe,
majhdhar ke shikve ruth gaye.


Hum aankhon se kahein,
tum dil se samajh lo.


Suno na, ye ruthne-manane mein kya hai
samjho na ishare, rafta-rafta chale zindagi.


Tum meri baahon mein
aur main tumhari aankhon mein.

Aaj ek chhoti si koshish ki Gulzar sahab ke shabd aap tak pahunchane ki, apki pratikriyaon ka intizaar rahega.

2 अक्टूबर के दिन

क्या होगा इसके अलावा
कि हम प्रतिमाओं पर
माल्यार्पण करेंगे
और नमन करेंगे
उस महान विभूति को;
थोड़ा सा भाषण दिया जाएगा
क्योंकि हम अहिंसा के पुजारी
उस देवदूत का पढ़ाया हुआ पाठ
एडिट कर चुके है,
अहिँसा से अ को
ग़ायब कर चुके हैं।

औरत को औरत ही रहने दिया जाए।

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बराबरी का दंश न सहने दिया जाए,
औरत को औरत ही रहने दिया जाए,

वो नींव है ज़मीर की,
बुलन्दी है जज़्बात की,
एक किस्सा है वफादारी का,
हिस्सा है समझदारी का,
वो कलम में भी है,
वर्तनी में भी है,
वो गर आंसुओं में है
तो बहने दिया जाए
पर औरत को औरत ही रहने दिया जाए।

वो रावण के छल से ऊपर है,
कौरवों के बल से ऊपर है,
गर यीशु कहीं है,
मरियम का ही तो है,
औरत दूजा नाम संयम का ही तो है,
वो वक़्त पड़े तो झुकती है,
तूफानों में कहाँ रुकती है,
है प्रशंसित वो सहने में तो सहने दिया जाए,
पर औरत को औरत ही रहने दिया जाए।

क्यों दोहन करोगे उसका
बराबरी के नाम पर,
क्यों डराते हो उसे
किसी अंजाम पर,
वो तुम्हें समेटती है अपने अंदर
उसी तन के लिबास में,
तुम छेदते हो उसे
जिस अहसास में,
न हो दर्द बेजुबाँ अब कहने दिया जाए
पर औरत को औरत ही रहने दिया जाए।

अब मोमोज़ हो गई है।



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पहले रिश्तों को
धुला, सुखाया और फिर
तला जाता था,
अब सेंकने का भी
समय नहीं मिलता है;
तब जो
कुरमुरे से हुआ करते थे,
अब विद्युत यन्त्र में
मरे से पड़े हैं:
वो वक़्त नहीं रहा
जब जायका था
अब तो दिखावे की तस्करी है,
जिसका जितना महंगा चूल्हा
उसकी उतनी दाल गली है:
तब स्वादानुसार थे
अब सेहतानुसार हैं,
तबियत की कहाँ रही थाली
आँखों की सोज हो गयी है;
क्या खाया गिनते-गिनते
टेंशन की डबल डोज़ हो गयी है;
वक़्त की आंच पर
मद्धिम-मद्धिम सी तली
पहले समोसा सी थी ज़िंदगी
और अब
मोमोज़ हो गई है।

एक रिश्ते की मौत


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रोज़ की तरह उस दिन भी मैं रात लगभग 10 बजे घर वापसी कर रहा था। रास्ते सुनसान थे पर लगातार हो रही भयंकर बारिश ने मेरी गाड़ी की स्पीड बहुत कम कर दी थी। मुझे रह-रह कर माँ का खयाल आ रहा था कि आज भी गरमागरम चाय के साथ उसकी प्यार भरी डाँट सुनूँगा...'कितनी बार कहा है शादी कर ले फिर टाइम पे हर काम होगा। अभी न तो तेरा आने का कोई वक़्त है न जाने का, इस दिन के लिए तुझे डॉक्टर थोड़ी बनाया था कि समाज सेवा के नाम पर अपनी मनमर्जी करता रहे।'
शहर से दूर क्लीनिक बनाने के बारे में सुनकर कितना गुस्साई थी कि इतनी दूर जंगल में नहीं भेजूँगी तुझे। क्या और सारे डॉक्टर मर गए हैं जो तू जाएगा...। किसी तरह से मनाया था मैंने उन्हें, कितने ही दिन बात नहीं की थी मुझसे। मैं खयालों में डूबा हुआ ही था कि अचानक गाड़ी के सामने एक बच्ची आ गयी। इमरजेंसी ब्रेक लगाया, उतर कर नीचे तक गया।
'कहाँ घूम रही इतनी रात अकेले, जाने कैसे पैरेंट्स हैं जो रोड पर छोड़ देते हैं, कहाँ जाना है तुम्हें?' मेरे इतना पूछते ही वो चीख-चीख कर रोने लगी और मेरे पैरों से लिपट गयी।
'अजीब मुसीबत है...' मैनें उसे पैरो से अलग करते हुए कहा। फिर महसूस किया कि बच्ची न तो बोल सकती है न ही सुन सकती है। आस-पास नज़र दौड़ाते वीराने के सिवा कुछ नहीं दिख रहा था। मैं अजीब कशमकश में था। कोई और रास्ता न दिखते हुए उसे गाड़ी में बिठाया। उस दिन रोज़ से भी ज़्यादा देर होने पर माँ का जायज़ मगर अति क्रोध देखकर मैंने सरेंडर करना ही ठीक समझा। फिर उस बच्ची को देखते ही माँ एक साथ हज़ारों सवाल कर बैठी पर मैं चुप ही रहा क्योंकि जवाब तो मेरे पास भी नहीं थे सिवाय इसके कि मुझे कब और कैसे मिली। ख़ैर सारी बात जानने के बाद हम लोगों ने ये निश्चय किया कि सुबह होते ही पुलिस स्टेशन छोड़ आएंगे। माँ ने उस बच्ची को पहले तो नहलाया फिर खूब खिलाया पिलाया। बच्ची भी ऐसे खा रही थी जैसे हफ्तों से भरपेट न खाया हो। मैंने देखा माँ के साथ वो कुछ ज़्यादा ही सामान्य लग रही थी। बिस्तर पर लेटते ही सो गई।
सुबह होते ही मैं उसे लेकर थाने पहुंचा। वहाँ किसी बच्ची की गुमशुदगी की रिपोर्ट नहीं दर्ज थी। वो बोले शहर से थोड़ी दूर पर एक मलिन बस्ती है शायद ये वहाँ की हो। आप इसे यहाँ बिठा दीजिये हम कोशिश करते हैं इसके घर पहुंचाने की नहीं तो बाल-गृह भेज देंगे। आप जा सकते हैं।
मैं गेट तक आया ही था कि मेरी आत्मा कचोटने लगी, इतनी छोटी बच्ची न बोल सकती है न सुन सकती है इन लोगों का रवैया इतना ख़राब है। जाने कब तक ये कुछ करें। इतना खयाल आते ही मैं उल्टे पाँव लौट गया।
'देखिए इंस्पेक्टर साहब, मैं इस बच्ची को तब तक घर ले जाना चाहता हूँ जब तक आप कोई अरेंजमेन्ट न कर लें।'
'जी, बिल्कुल।' इंस्पेक्टर का जवाब सुनकर मुझे ऐसा लगा जैसे वो इसी बात की प्रतीक्षा कर रहा था। फिर घर आकर मैंने माँ को सारी बात बताई, वो भी मेरी बात से पूरी तरह सहमत थीं।
हम लोग उसके लिए कुछ कपड़े और भी जरूरी सामान लेकर आए। मुझे ऐसा लगने लगा एक हफ्ते के अंतराल में बच्ची हम लोगों के साथ कम्फ़र्टेबल हो गयी है। वो दिन भर माँ की उँगली पकड़कर घूमती रहती।इस दौरान मैं रोज़ पुलिस स्टेशन जाता पर महज औपचारिकता पूरी करने। इस घर में मैं और मेरी माँ की वीरानियाँ बांटने वाला एक खिलौना आ गया था। उसकी मूक सी पर चपल हँसी पूरे घर में गूँजती। कभी-कभी मैं ये महसूस करता जैसे उसका कोई ऐसा रिश्ता ही नहीं जिसे वो मिस करती। फिर तो उसे कभी कोई ढूँढने ही नहीं आएगा। ये भी ठीक है। बिना नाम का एक रिश्ता था उससे पर उस रिश्ते को एक नाम तो देना ही था। प्यार से उसे जोई बुलाते लगे।  एक अलग तरह का रिश्ता बन गया था उससे। यही लगता था उसकी खिलखिलाहट से ये घर भरा रहे। हम लोगों ने सब कुछ ईश्वर पर छोड़ दिया था।
हर दिन के जैसी वो भी एक सुबह थी। मैं ब्रेकफास्ट कर रहा था तभी माँ ने बताया कि जोई को बहुत तेज़ बुखार है। मैंने देखा हाई ग्रेड फीवर था। फीवर कम करने की दवाई देकर क्लिनिक चला गया। वहाँ मन नहीं लगा तो कुछ जल्दी ही घर आ गया। उसे बुख़ार कम होने का नाम ही नहीं ले रहा था। मैंने शाम को ही होस्पिटलाइज़ कराया। मैं और माँ उसकी तीमारदारी में लगे रहे। बुखार और बढ़ता देख डॉ ने कुछ टेस्ट कराए। अगले दिन टेस्ट की रिपोर्ट हाथ में आते ही होश उड़ गए। वो नन्हीं सी मासूम बच्ची एच आई वी पॉजिटिव थी। हम लोगों के चेहरे लटक गये थे। उस मासूम सी बच्ची की आंखों में कई सवाल उमड़ रहे थे मग़र जवाब कोई नहीं था। मैं बार-बार ईश्वर से यही सवाल कर रहा था कि जब इतनी जल्दी छीनना था उसे तो हमसे मिलाया ही क्यों? माँ भी अलग परेशान थी। किसी की हिम्मत नही हो रही थी कि उस बच्ची को तसल्ली देता। क्या क़ुसूर था उसका जो उसे इतनी बड़ी सजा मिल रही।
उसे दवाइयां देना भी एक औपचारिकता पूरी करना रह गया था। फिर भी हम कर रहे थे, उसकी हर इच्छा पूरी करने की कोशिश कर रहे थे। अंततः वो समय भी आ गया। दस दिन के एक रिश्ते की मौत हो गयी। नियति के समक्ष सारे समीकरण बौने हो गए थे। रिश्ते के गणित से निकलकर मैं पुनः जीवन की तारकोल वाली सड़क पर आ गया था एक मुसाफ़िर की तरह।

मेरी पहली पुस्तक

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