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जीवन के बाद भी जीवन है कहीं!

बहुत ही कम लोग परिचित होंगे
इस शब्द के मायने से
शब्द से तो बहुत से लोग होंगे
पढ़ रखा होगा अख़बार में, पाठ्य-पुस्तकों में
कभी सुना भी होगा दूरदर्शन पर
अभी हाल ही में खबरों का आकर्षण रहे थे
जब लाखों की संख्या में इनके बेघर, विस्थापित होने की बात अाई थी;
सही समझे, वही हैं ये
जिनका कोई ठौर नहीं होता
सामान्य से नाक नक्शे वाले
हमारे तुम्हारे जैसे, पर
हम जैसों से प्रकाश वर्ष की दूरी तक.
याद आया पुरानी फिल्मों में देखते थे
हू ला ला जैसा कुछ,
ऐसे भी नहीं होते ये.
शहर की आबादी से मीलों दूर बसे
अपने ही समूह में रहते हैं
पेड़ों के घनी छांव में
वही तो इनका जीवन है.
लोग वृक्षारोपण करते हैं, सही होगा
पर असल मायनों में जंगल तो इन सबका
बचाया और बसाया हुआ है.
शहर की पगडंडी को पारकर
जब लगेगा हम जंगलों में हैं
और वहां भी मीलों चलना होगा
चलते रहना क्योंकि कोई सुराग नहीं मिलता जीवन का
फ़िर दूर कहीं कुछ चूजे दिखेंगे
कुछ दूरी पर मिलेगी बकरियों की सुगबुगाहट
तब कहीं जाकर महसूस होगा
कि जीवन के निशान बाकी हैं अभी
दूर से दिख रहा पुआल और बांस की दीवारों पर रखा खपरैल
कहीं कहीं मिट्टी का लेपन किया हुआ
अहसास दिलाता है वहां किसी के रहने का
पास जाने पर मिलता है बस एक रोमांच
कितना भी पुकारते रहो बाहर से
कौन सुनने ही वाला है, भीतर तक जाकर भी
शून्य ही रहती है संवेदना क्योंकि
इंसान बसते हुए भी नहीं मिलते वहां सभ्यता के निशान
उन्हें सलीका नहीं आता आगंतुक को बिठाने का
टूटी खाट को गिराकर बैठने पर ताकते रह जाते हैं विस्मय से
बदन पर गमछी या फ़िर छापा साड़ी लपेटे युवा स्त्रियां
वृद्ध स्त्रियां बदन ढक लेती हैं एक गमछी भर से
बहुत सम्मान के भाव में 'गो' का संबोधन
शिक्षा का ककहरा भी नहीं पता,
नहीं देखी है इन्होंने सड़क और रेल,
कई कई दिनों तक सोना पड़ता है भूखों
उबले हुए भात में पानी और मिश्रण मिलाकर
'हड़िया' पीने को मजबूर;
जाने कौन सी धारा के शिकार हैं ये
कि इंसान होकर भी इंसानी अस्तित्व से वंचित
उठानी होगी एक आवाज़ इनके हक़ में
जोड़ना होगा इन्हें भी समाज की मुख्यधारा से
या फ़िर मनाते रहेंगे आदिवासी दिवस हर वर्ष
जब तक इनका अस्तित्व ही ख़त्म न हो जाए!

यह कविता मित्र अपर्णा अन्वी (स्वयंसेवी संस्था एकजुट की डिस्ट्रिक्ट कोऑर्डिनेटर) के साथ हुए संवाद पर आधारित है.

आउट लाइन

कई पन्ने ऐसे गुज़रे ज़िन्दगी में
कि हाशिए के इस पार भी लिख दिया
अब भरने को है ये नोटबुक
बहुत से सवाल
और उनका प्रश्नचिन्ह मिटाते जवाब
कुछ सबक
और कुछ हिसाब,
थोड़ा रोना लिखा
कुछ हंसना भी लिखा
बहुत बड़ा था दोस्ती का पन्ना
अब लगता है सब कुछ लिख गया
जैसे ख़त्म होने को है ज़िन्दगी
और बनानी है
उस खात्मे को निर्धारित करती आउट लाइन
जिसके उस पार से मौत लपक लेगी
वैसे तो बाउंड्री के बाहर कैच आउट नहीं होता
पर उपर वाला अंपायर
खींच ले जाता है सांसें
इस आउट लाइन को पार करते ही.

अवसान तक प्रेम!

मैं बचाए रखना चाहती हूं प्रेम
ख़त्म होने तक भी
यहां तक कि प्रेम के अवशेष
जब कुछ भी न बचे दुनिया में
तब तुम्हें वो पोषित करता रहे
चिरकाल तक
और फ़िर तुमसे ही प्रारम्भ हो
एक नए युग का
जिसकी रगों में बहता हो
मेरा पोषित किया हुआ प्रेम.

स्त्री धर्म है!

नभ के सीप में बंद उदात्त स्त्री
स्वयं में एक सत्ता है
हवा की आरी से दुःख को चीरती हुई
शिव नहीं है तो क्या हुआ
गरल तो पी जाती है
वो पूजती है और पूजी जाती है
गोमुख से निकली पावनी सी पवित्र
वही तो है समूचा अस्तित्व
फिर प्रश्नचिन्ह कैसा
क्यों तोड़ना उसे
अगर वो जोड़ती है.
अपात्र नहीं है
वो तो सुपात्र है
स्वीकारनी होगी उसकी उन्मुक्तता
ताकि सृष्टि का संतुलन बना रहे.

एक प्रश्न

मुक्त कर दो न हमें
प्रेम के ब्रह्मास्त्र से
बांट लेते हैं
अपने अपने हिस्से की जमीन
तुम अपनी सल्तनत में
प्रेम के बीज बोना
और मैं सींचता रहूंगा वो स्नेह
जो चलते हुए तुम
आलिंगनबद्ध कर दे गईं थीं.
बोलो, इस तरह बचाकर
रख सकोगी प्रेम का वर्तुल स्वरूप?

उन्मुक्तता

जब स्वच्छंदता
स्व की बेड़ियों में
जकड़ दी जाती है
तो उन्मुक्तता का मूल
स्वतः ही नष्ट हो जाता है
जैसे समंदर की लहरों पर बने
पांवों के ढीठ निशान.
न तुम रह जाता है
न मैं
न ज़्यादा या कम की तू-तू, मैं-मैं.
उन्मुक्त ही रहने देने थे न
कुछ भाव
कि खुली आंखों से देखते
सृष्टि के विरले रंग
और आंखें बंद करो तो शिव.