कभी ग़ौर से देखा है
अपनी दायीं हथेली की तर्जनी को
कुछ नहीं करती सिवाय लिखने के,
चूमती रहती है कलम को
जब गढ़ रहे होते हो सुनहरे अक्षर
....मेरी आँखों के
तुम्हारे शब्द चूमने से भी पहले.
कभी ग़ौर से सुनी है वो ध्वनि
जो तुम्हारे कानों से निकलकर
मेरी जिह्वा पर वास करती है
और बना देती है
अनाहत संगीत का वो वाद्य यंत्र
जो प्रेम करते ही बज उठता है
तुम्हारे सुनने, मेरे कहने से भी पहले.
प्रेम और ॐ विपरीतार्थक तो नहीं
सत में वास करते हैं
मेरी अर्थी कंधे से लगाते हुए
एक बार कहोगे न!
प्रेम नाम सत्य है?
रखोगे न वो बासी फूल
मेरे विदाई रथ पर
जो रख छोड़ा है अपनी डायरी में?
मैं ख़ार ले जाऊँगी
तुम्हारी साँसों से और
तुम्हारे शब्दों से भी
अपनी महक छोड़कर
अच्छे लगते हो जब लिखते हो
अपनी दैनन्दिनी में
प्रेम और ॐ.
वाह! आनुभूतियों सी भी परे की अनुभूति का अहसास!!!
जवाब देंहटाएंबहुत आभार मान्यवर कि आपको अच्छी लगी 🙏
हटाएंमैं ख़ार ले जाऊँगी
जवाब देंहटाएंतुम्हारी साँसों से और
तुम्हारे शब्दों से भी
अपनी महक छोड़कर
अच्छे लगते हो जब लिखते हो
अपनी दैनन्दिनी में
प्रेम और ॐ.
वाह ! प्रिय अभिलाषा जी , प्रेम का ये अनूठा अंदाज मन को स्पर्श कर भावुक कर गया | प्रेमासिक्त मन से गहरे डूबकर लिखी इन पंक्तियों के लिए कुछ भी कहना कम होगा | सराहना से परे इस रचना के लिए मेरी शुभकामनाएं और बधाई | सस्नेह
आभार सखी प्रेम में डूबे शब्द रखने के लिए. आपकी प्रतिक्रिया पढ़कर सदैव ही मन प्रसन्न होता है.
हटाएंसुन्दर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" रविवार 14 जून 2020 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंआभार आपका 🙏
हटाएंसुन्दर सृजन।
जवाब देंहटाएंआभार आपका 🙏
हटाएं