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प्रेम अमृता सा



इक अदीब (विद्वान) की कलम से

बहुत कुछ गुज़र गया,

मैं अदम (अस्तित्वहीन) सी सँजो चली उसे

छँट गयी मेरी अफ़सुर्दगी (उदासी)

तू असीर (क़ैदी) बना ले मुझको

मेरे आतिश (आग)

अभी असफ़ार (यात्राएँ) और हैं ज़ानिब

तेरे लफ़्ज़-लफ़्ज़ आराईश (सजावट) मेरी

मेरी इक्तिज़ा (माँग) क़ुबूल कर

बोल दे तेरा हर इताब (डाँट)

मुझे इफ़्फ़त (पवित्रता) दे

मेरे क़ाबिल (कुशल) कातिब! (लेखक)

18 टिप्‍पणियां:

  1. एक साथ अंजान शब्दों की सरिता को जोडकर एक बहती नदी का स्वरूप दे दिया है आपने।
    मोहक सी इस रचना हेतु बधाई व शुभकामनाएँ आदरणीया रोली जी।

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  2. आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल मंगलवार (02-09-2020) को  "श्राद्ध पक्ष में कीजिए, विधि-विधान से काज"   (चर्चा अंक 3812)   पर भी होगी। 
    -- 
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है। 
    -- 
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।  
    सादर...! 
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' 
    --

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  3. आदरणीया रोली अभिलाषा जी, आपने उर्दू फारसी के शब्दों से गुम्फित बहुत ही सुंदर नज्म लिखी है। हार्दिक साधुवाद!
    मैंने आपका ब्लॉग अपने रीडिंग लिस्ट में डाल दिया है। कृपया मेरे ब्लॉग "marmagyanet.blogspot.com" अवश्य विजिट करें और अपने बहुमूल्य विचारों से अवगत कराएं। सादर!--ब्रजेन्द्रनाथ

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    1. जी मान्यवर आभार आपका. समय मिलते ही आपके ब्लॉग पर आती हूँ.

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  4. बहुत मर्म स्पर्शी रचना ।बार बार पढ़ने वाली । शुभ कामनाएं ।

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