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क़तरब्योंत

 •मैं प्रेम में हूँ

इस एक बात की कतरब्योत

वाज़िब-गैर वाज़िब तरीके से

बाज़ द‌फ़ा की गयी

बातों के दरमियाने पकड़ते

एक दिन तुम कह बैठे थे मुझसे

आज ही करें त्योहारों की शॉपिंग: लूट ऑफर

“देखो जो कुछ भी हुआ

नहीं होना चाहिए था”

मेरे पास दो जवाब थे

पहला “तो रोका क्यों नहीं तुमने?"

पर तुम तो मुनाफ़े में रहते

कि ग़लत भी बोल गये मुझे

और मैं तुम्हारी भी हुई,

दूसरा जवाब, “हाँ मैं प्रेम में हूँ”

इस जवाब में भी

मुनाफ़ा तुम्हारा ही था

छाती चौड़ी कर लेते तुम

जैसे कहा था कभी, “लो अब तुम भी”

इसी एक बात से

दाँव पर लगी इश्क़ की शख्सियत

कि आते-जाते हर अहसास को

तुमने समझा भी क्या इश्क़?

मैं गिड़गिड़ाती तुमसे

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“माना कि मैं बहुतेरों में हूँ

पर अब आख्रिरी कर दो”

मैं तुम्हें इस तरह छूती

कि सारे बाँध भरभरा कर बह जाते

तुम्हें पहली दफ़ा वाला सुकून मिलता

और मुझे आखिरी मर्तबा वाला 'यकीन'

लेकिन ये सब होता कैसे

मैने तो सारे जायज़-नाजायज़ जवाब

महफूज़ रखे हैं खुद में ही

मैं जवाब दूँ भी तो कैसे

तुमने सवाल मेरी जानिब किये ही कहाँ

तुम लम्हा पकड़ते रहे

वक़्त पकड़ते रहे

बातें पकड़ते रहे

लोग पकड़ते रहे

और इन्हीं में ढूँढते रहे कुछ

जैसे कभी पसंद की होगी

माल में लटकती बुशर्टों में से

एक बुशर्ट अपने लिए

वह भी थोडे दिनों की

…है ना?

ऐसे बेग़ैरत नज़रों से मत देखो मुझे

मैं तो आज भी टाँग लेती हूँ

अपनी देह पर कुछ भी

तुम्हारी तरह नहीं देखती,

आउटफिट का रंग, रूप और माप,

बस देह की चौहद्दी को रख सके ढककर

वो मुझ पर भले न फबे

मैं भी तो तुम पर बिल्कुल नहीं फबती

फिर क्यों अख़्तियार है

मेरे मन की चौहद्दी पर बस तुम्हारा ही

क्यों इस इंतजार में हूँ

कि तुम हाथ रखो मेरी नब्ज पर

और मैं पिघलकर समा जाऊँ तुम्हारे सीने में

तुम मुझसे अपना मैं,

क्यों नहीं ले जाते

तुम्हें पता है औरत हूँ मैं आख़िर

इश्क़ भी करुँगी और सलीब पर भी लटकूँगी

इस एक बात को ग़लत साबित कर

अपना ईगो, अपनी जेलसी अपनी घृणा

सब कुछ लेकर जैसे हो बस वैसे ही

आओ ना एक बार लगा लो गले से

और खोल लो मन

हम दोनों ही बन जाते हैं बहती नदी



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