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मैं स्मरण हूँ...


गंगा को समेटे
रखता हिमालय पे चरण हूँ,
नख से शिख तक करता
भभूत का वरण हूँ,
मैं इस सदी का
दूसरा संस्करण हूँ,
ध्यानी हूँ, दानी हूँ
और स्वाभिमानी हूँ
तांडव है मेरा मनोरम
सती का विधाता हूँ
बसता हूँ कन्दराओं में
हर मर्म का ज्ञाता हूँ
खाल को आभूषण बनाए
सौंदर्य का अलंकरण हूँ,
रंगों में नीलकंठ औ
भुजंग को लपेटे हूँ
हैं नेत्र तो कुल तीन
सारी दृष्टि मैं समेटे हूँ
भाल पे है चन्द्रमा
कान नागफनी छाई हैं
पुण्य भगीरथ के तप का
पाप धोने गंगा बुलाई हैं
दो पाँवों से करता तांडव
तीन लोकों का संचरण हूँ

6 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज मंगलवार 03 अगस्त 2021 शाम 5.00 बजे साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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  2. अहा!! सदाशिव का मनोरम आत्मकथ्य!!
    भाल पे है चन्द्रमा
    कान नागफनी छाई हैं
    पुण्य भगीरथ के तप का
    पाप धोने गंगा बुलाई हैं
    भावपूर्ण अभिव्यक्ति के लिए हार्दिक आभार और अभिनंदन 🙏💐💐🌷

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