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मेरी ऑटोबायोग्राफी..

दर्द तो लिख सकता है लिखनेवाला
पर स्वयं का दर्द लिखने का
साहस कहाँ से लाऊँ,
तुम जितना समझोगे मुझे
सरकती जाएंगी सोंच की दीवारें
ढ़ह जाएंगे कल्पनाओं के महल
क्योंकि स्तब्ध होती रहेंगी
तुम्हारे किन्तु-परन्तु की पगडंडियां;
सच इतना वीभत्स नहीं
जो छोड़ते जा रहे हो ऊपर शब्दों में
बल्कि सच
संवेदनाओं की खौलती तरलता में
जबरन धकेली जा रही
निरीह आत्मा है,
जिस सच को सोचकर भी
हैवानियत तक झनझना उठे
वो पलों में जिया है मैंने,
क्या-क्या लिखूँ और क्यों लिखूँ
यही बात रोककर रखती है मुझे
कितनी ही बार मेरी खुशियाँ
हाथों में आकर ऐसे सरक जाती हैं
जैसे रेत पर समंदर का पानी
कोई निशान तक नहीं रह जाता,
कैसे कहूँ ये सब
कि मैं भी कमज़ोर पड़ जाती थी;
किन शब्दों में लिखूँ वो यातना
जो युवा होते ही प्रेम करने पर मिली थी
तीन दरवाजों के अंदर होने पर भी
बार-बार सांकल देखी जाती थी
और सींखचों पर उगा दिए गए थे
झरबेरी के काँटे,
मैं मन ही मन मुस्काई थी
कि यही तो मेरी स्वतंत्रता है...
उन दिनों में लिख डाली थी मैंने
अपने मन की इबारतें,
क्योंकि बाहर निकलते ही
फिर से देनी थी मुझे गोबर पर
अपनी हथेलियों की थापें,
और वो भी तो दर्द का महासमर था
जब उन्नीस की होते ही
चालीस पार कर चुके पतझड़ के साथ
पहली ही रात...उस भयंकर दर्द के बीच
मेरे अंगों की नाजुकता
क्षीण-क्षीण हुई थी
....फिर पूरे नौ महीने बाद
मैंने बेटी जनी थी..
दूसरी बार मेरा प्रेम के सोपान पर
कदम बढ़ा ही था कि
बेटी के नाम पर
हर तरह का जहर पिलाया गया,
....विधवा की तरह सर मुंडाया गया
जबकि चीख़-चीख़ कर पूँछती रही,
'मैं सधवा थी ही कब...'
मैं लिख तो देती ये सब शब्दशः
पर नंगे पाँव के छालों को
अम्ल की जमीन पर कैसे उतार दूँ..
इससे बेहतर है मैं
हिरोशिमा-नागासाकी की
त्रासदी लिखूँ,
मलाला का इंकलाब लिखूँ,
शहीदों की विधवाएँ लिखूँ,
बाल-विवाह, छुआ-छूत
गरीबी की मार लिखूँ,
भले ही
खाईं में गिरती अर्थव्यवस्था का दर्द लिखूँ,
पर अपनी हार...
कब होगी मुझे स्वीकार..

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