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आओ शिव उद्धार करो




जब प्रेममयी धरा छलकी

तब अम्बर गहराया नभ पे

नदिया लहर निचोड़ चली

तो सागर भी रोया छल से

ज्यों वायु किलोरे मार रही

त्यों रुप प्रसून बिसूर रहा

यूँ प्रेमी हिया में आस जगी

के प्रेम का आविर्भाव हुआ


फिर प्रेम चला मुँह मोड़ एक दिन

रुठ गये खुशियों के सब पल-छिन

प्रेमी मन का प्रकट चीत्कार हुआ

कलुषित वेदना का यलगार हुआ


यूँ अगन जली हिमशिला गली

आहत हठ, भागीरथ फिसली

इक गंगा प्रलय की ओर चली

हाहाकार मचाने को, निकली


है आस शिव रौद्र रुप गर्जन वाली

किस तरह जटा में प्रलय सम्हाली

करबद्ध जप रहे हैं, सब नाम प्रभु

दिखला दो छवि अब वही निराली

विश्वास का तारा

अँधेरे जब हँसते हैं

तो बहुत ज़ोर ज़ोर से हँसते हैं

बिल्कुल तुम से

मैं उस हँसी को महसूसने के लिए

पूरा दिन एक पैर पर चलकर

चलते-चलते निकाल देती हूँ

फिर भी उजालों से

कोई शिकायत नहीं करती कभी

और तुम आते भी हो तो

मौन के रेशमी सूत में लिपटकर...

एक हठ से धुला रहता है तुम्हारा चेहरा.

तुम्हारा मौन टूटना कहीं मुश्किल है

आकाश में विश्वास का तारा टूटने से.

कान्हा की कलाएँ और देह त्याग

 प्रतिपदा में चित्तवृत्ति

अंगदा प्रवृत्ति हो

पूर्णिमा का पूर्णामृत

देह तेरी वृत्ति हो.


प्रभास क्षेत्र सोमनाथ

देह छोड़ चंचला

वाणी मादक, गन्ध मादक

द्वैत भाव हर गया



:ऊपर की चार लाइन में कान्हा की चार कलाएँ हैं जिन पर राधा मर मिटी थी. नीचे वर्णित है कान्हा ने सोमनाथ के प्रभास क्षेत्र में देह त्याग किया था. इससे पहले उन्होंने द्वैत भाव पर एकाकार की भावना संचारित की थी.

ऐ मेरी ख़्वाहिश!

 ऐ मेरी ख़्वाहिश!

आ पहना दूँ तेरे पाँवों में झाँझर

तो जान लिया करुँगी तुझे आते-जाते

तू जाना तो उन तक जाना

और आना भी तो बस उनकी होकर.


ऐ मेरी ख़्वाहिश!

आ तेरी दीद में दूँ सिंहपर्णी की झलक,

वो बदल देते हैं मिजाज़ अपना

मौसम की तरह

तू रख आना उनकी आँखों पर बोसा.


ऐ मेरी ख़्वाहिश!

आ तुझे लिबास दूँ सरहद की वर्दी

जो क़ुबूल हो इश्क़ में मेरी शहादत

तो तू बदल आना उनकी भी

सुस्त रहने की आदत.


ऐ मेरी ख़्वाहिश!

जो मैं टूट जाऊँ जीते-जीते

तू उनकी ऐसे हो जाना

जैसे मेरी थी ही नहीं कभी

बाँसुरी बन जाना उनके होठों की

उनको रिझाना, के बाक़ी न रहे उनके पास

दिल टूटने का कोई बहाना;

साये से जुदा मेरी मौत कहाँ मुमकिन

मैं आऊँगी फिर से

एक और ज़िन्दगी के लिए

लेकर आऊँगी सुकून की झप्पी

तब मुझे दिलाना उनकी चिरायु झलक.

बस एक उनकी ही तो ज़िद है मुझको

न उनके जैसा कोई होगा

न उनसे अलग कोई चलेगा

गहन दुःख की स्मृति

 जब कभी गुज़रोगी मेरी गली से

तो मेरी पीड़ा तुम्हें किसी टूटे प्रेमी का

संक्षिप्त एकालाप लगेगी

पूरी पीड़ा को शब्द देना कहाँ सम्भव?

मैंने तो बस इंसान होने की तमीज़ को जिया है

अपनी कविताओं के ज़रिए...

मन के गहन दुःख को जो व्यक्त कर सकें

वो सृजन करने का मुझमें साहस कहाँ?

डूबते सूरज की छाया में मैं मरघट लिखूँगा

तुम अपने स्मित की अंतिम स्मृति पढ़कर चली जाना.

सुहाग धरा का

 


मेरी कविताएँ मेरी प्रार्थना

 


मेरी कविताएँ

छोटी-छोटी चिट्ठियाँ हैं

कभी सुबह के नाम

कभी अँधेरों के नाम

कभी दर्द-ख़ुशी के नाम

...और सभी ईश्वर के नाम

तुम इनमें से चुन लेना

मेरी प्रार्थना का समवेत स्वर

जो बस तुम्हारे लिए है.

मेरी पहली पुस्तक

http://www.bookbazooka.com/book-store/badalte-rishto-ka-samikaran-by-roli-abhilasha.php