To explore the words.... I am a simple but unique imaginative person cum personality. Love to talk to others who need me. No synonym for life and love are available in my dictionary. I try to feel the breath of nature at the very own moment when alive. Death is unavailable in this universe because we grave only body not our soul. It is eternal. abhi.abhilasha86@gmail.com... You may reach to me anytime.
मेरा अस्तित्व
सज़ायाफ़्ता स्त्री
स्त्री हूँ मैं
स्वाभिमान की पराकाष्ठा तक जाती हूँ,
प्रेम करती हूँ वो भी प्रगाढ़
खुद को मारकर
तुम्हें अपने अंदर जीती हूँ,
मेरी देह का स्वाद इतना भी सस्ता नहीं
कि जब जरूरत हो तब याद आऊँ
शेष पल प्रेमहीन जियूँ,
क्यों मिल रही है मुझे
ये धिक्कार, वेदना और तड़प
.......…..…..………
वर्जित था अति प्रेम
इस खोखले पुरुष समाज में,
झुक जाता है उनका पुरुषत्व
प्रेम का मान देने में
...शायद तभी मैं बन गई हूँ
एक सज़ायाफ़्ता स्त्री...
मत छोड़ मुझे ज़िंदा!!!
हाँ, मैं कुरूप हूँ....
क्या यही इंसाफ है?
"जज साहब, मैंने इस आदमी को मारा है। मुझे सजा दीजिये। प्लीज जज साहब...." कहते-कहते निर्मला की चीखें पूरे कोर्ट में गूंज गयीं थीं। हर कोई यही जानना चाहता था कि कटघरे में खड़ी ये औरत खुद के लिए सजा क्यों चाहती है जबकि इसका पति भी इसे निर्दोष कह रहा है। सारे सुबूत निर्मला के पक्ष में थे वो कहीं से भी अपने श्वसुर की हत्या जैसे जधन्य अपराध की दोषी नहीं दिख रही थी। जज साहब चाहकर भी फ़ैसला नहीं सुना पा रहे थे। निर्मला की घिग्गी के साथ ही सारा माहौल शांत था। हर आंख में ढेरों सवाल थे। वहीं एक ओर निर्मला का पति शांत खड़ा हुआ था।
जज साहब ने 2 घंटे के लिए कोर्ट को बर्खास्त कर दिया ताकि वो पूरा मामला समझ सकें।
थोड़ी ही देर में एक अर्दली ने निर्मला को जज साहब से मिलने का फरमान सुनाया। ये जज साहब की ज़िंदगी का पहला ऐसा केस था जिसमें गुनाह चीख़ रहा था कि निर्दोष को बरी किया जाए पर निर्दोष खुद को सलाखों के पीछे ले जाना चाहता था।
"निर्मला जी, देखिये मैं आपको व्यक्तिगत रूप से नहीं जानता पर ये जानना चाहता हूँ कि आप खुद को दोषी क्यों मानती हैं? अगर बता सकने लायक हो तो मुझे बताइये शायद मैं कुछ मदद कर सकूँ?" निर्मला जज के सामने सर झुकाये खड़ी थी जज का सवाल सुनते ही फफक पड़ी।
"जज साहब, मैं इस आदमी के साथ नहीं रहना चाहती। मेरा इस दुनिया में कोई और नहीं है। रही बात छविनाथ की तो उसको मैं ज़िंदा छोड़ने वाली नहीं थी। मैं हंसिया से उसकी गर्दन उड़ा देती मगर वो छज्जे के किनारे आकर कूदकर मर गया। ये आदमी जिसे आप लोग मेरा पति कहते हो ये जहरीला नाग है। ब्याह के बाद से ही इसने अपनी पत्नी बाप को सौंप दी। खुद नशा पीकर धुत रहता, बाहर की औरतों के साथ अय्याशी करता। मैं इसके बाप की हवस का शिकार बनती। कुछ बोलती तो खाल उधेड़ देता। ऐसी ही मौत मरना था इसे। जज साहब मुझे उम्र क़ैद की सजा दो। अगर आज़ाद हुई तो...." निर्मला जज साहब के पैरों में लिपट गयी।
निर्मला को एक ओर लगभग धकेलते हुए खिड़की तक चले गए। शून्य में इस कदर खो गए कि ज़िन्दगी निर्वात लगी उस पल।
उन्हें तो फैसला गवाहों और सुबूतों के आधार पर करना था। अदालत मानवीय संवेदना को नहीं मानती न ही इन पर आधारित निर्णय लेती है।
क्या संभव है?
वो तेरह दिन...
औरत को औरत ही रहने दिया जाए।
औरत को औरत ही रहने दिया जाए,
बुलन्दी है जज़्बात की,
एक किस्सा है वफादारी का,
हिस्सा है समझदारी का,
वो कलम में भी है,
वर्तनी में भी है,
वो गर आंसुओं में है
तो बहने दिया जाए
पर औरत को औरत ही रहने दिया जाए।
कौरवों के बल से ऊपर है,
गर यीशु कहीं है,
मरियम का ही तो है,
औरत दूजा नाम संयम का ही तो है,
वो वक़्त पड़े तो झुकती है,
तूफानों में कहाँ रुकती है,
है प्रशंसित वो सहने में तो सहने दिया जाए,
पर औरत को औरत ही रहने दिया जाए।
बराबरी के नाम पर,
क्यों डराते हो उसे
किसी अंजाम पर,
वो तुम्हें समेटती है अपने अंदर
उसी तन के लिबास में,
तुम छेदते हो उसे
जिस अहसास में,
न हो दर्द बेजुबाँ अब कहने दिया जाए
पर औरत को औरत ही रहने दिया जाए।
मुझे स्त्री ही बने रहने दो!
और जीना चाहती हूँ
अपने स्वतन्त्र अस्तित्व के साथ;
क्यों करूँ मैं बराबरी पुरुष की,
किस मायने में वो श्रेष्ट
और मैं तुच्छ!
वो वो है
तो मैं भी मैं हूँ,
ये मेरा अहम नहीं
मुझे मेरे जैसा
देखने की तीक्ष्णता है
स्वीकारते हो न,
मैं और तुम
ये दो पहिये हैं हम के;
अगर तुम्हारे बेरिंग घिस रहे जीवनपर्यंत
तो मेरे कौन सा
गुणवत्ता की कसौटी से परे हैं,
इन्हें श्रेष्ठता के तराजू में
नहीं तोलना है मुझे,
ये तो ज़िन्दगी के कोल्हू में
पहले से मंझे हुए हैं;
एक द्वंद जो चल रहा मैं के भीतर
उसका समूल विनाश ही तो बनाएगा
हम का संतुलन:
मैं तुच्छ नहीं
वही तो है इस सृष्टि की सृजक
और तुम पालक हो इस सत्ता के
तभी तो हम से सन्तुलन है,
और अहम विनाश की
व्यापक स्वरूपता।
स्त्री या सुनामी!
घुँघरू की ताल पर नाचती हुई
सबके लिए फिक्रमंद
जरूरतों के मुताबिक
थोड़ा-थोड़ा जीती हो,
कभी घर के हिसाब में,
कभी बच्चों की तकरार में,
कभी माँ-बाबूजी की अवस्था
को समझने में
खुद भी उलझ जाती हो,
घर के राशन से दवाई तक
रिश्ते-नातों से लेकर
बच्चों की पढ़ाई तक,
समाज, घराना, मित्र व्यवहार
सबमें इतनी सजग
जैसे समर्पण की देवी हो,
सबको अपना बना लेती हो,
हथेलियों से छांव करने को आतुर,
बस नेह के लिए बनी हो,
चेहरे पर बसी पुरकशिश मुस्कान
सारे रहस्य छुपा लेती है,
कभी तो थकती होगी,
कुछ तो दुखता होगा,
कोई तो शिकायत होगी,
कितनी सहजता से पीती हो
दर्द का विष
जैसे योगी ने हिमालय पे पिया था;
हजार आशनाओ में लिपटी वो मादकता,
आज भी यौवन की हथेली पर
ओस की बूँद सी दिखती है:
दिन की टिक-टिक पर थिरक कर भी
ऐसे सजाती हो मेरी रातों को
कि हर रात निखर जाती है
सुहागरात में;
तुम्हारी हर छुअन पहले स्पर्श जैसी,
वही कोमलता
जो रग-रग में स्रावित होती है,
मेरे हर आग्रह पर आज भी
उतनी ही समर्पित
तुम्हारा उद्वेग
मेरे आवेश को समा लेता है,
तुम जीती रहती हो मुझे बूँद-बूँद
मेरे स्खलित होने तक;
मैं निढ़ाल हो जाता हूँ
तुम फिर भी सजग रहती हो
जीवन के जतन में,
जितना मैं दिन और रात में जीता हूँ,
तुम जीती रहती हो पल-पल,
रात्रि की कोमलांगना
दिन की अष्टभुजी बन जाती हो,
वाह, क्या बात है तुममें
स्त्री हो या सुनामी!
जहाँ भी रहती हो,
लहरों की तरह
बस तुम ही तुम रहती हो।
मेरी पहली पुस्तक
http://www.bookbazooka.com/book-store/badalte-rishto-ka-samikaran-by-roli-abhilasha.php
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