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वो तेरह दिन...





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कोई न बचाता मेरा अस्तित्व मेरी आत्मा के देह छोड़ने पर बड़के की माँ भड़क गई थी। पहली बार देखा था उसका इतना रौद्र रूप मैंने जब वो अनुनय-विनय न करके आदेश सुना रही थी।
'तेरे बापू के सारे संस्कार वैसे ही होंगे जैसा वो कह कर गए थे। जिसको रुकना है रुको, जाना है जाओ, अभी उनकी धर्मपत्नी ज़िंदा है। मुझे ईश्वर ने सुहागिन नहीं बुलाया अपने पास जाने किन कर्मों की सजा थी, अब ये गुनाह करके मैं उनकी आत्मा नहीं दुखाउंगी। सुन बड़के छोटे से भी कह दे, समझा दे उसे नहीं रुकना चाहता तो जा सकता है पर मैं ये तेरह दिन पूरे तेरह दिन मनाऊंगी। चाहे तो तेरहवीं के भोज में आ जायेगा न चाहे तो वहीं किसी जगह मना ले।'
कहते-कहते सौदामिनी का ब्लड प्रेशर हाई हुआ जा रहा था। फिर भी वो पूरे जोश के साथ आगे बढ़कर सब कर रही थी। आज मेरी आत्मा को मुक्त हुए 20 घंटे ही हुए थे। पहले तो शरीर को पंचतत्व में विलीन करने की जल्दी थी फिर शमशान घाट से वापिस आते ही इस बात पर विचार-विमर्श चल रहा था कि तेरहवीं संस्कार तीन दिनों में सम्पन्न कर दिया जाए। छोटे को ऑफिस देखना था और उसकी पत्नी गांव में एडजस्ट भी नहीं कर पाती थी सो उसका पूरा दबाव था बड़के पर कि जल्दी करे। बड़का कुछ बोलता इससे पहले ही उसे ये कहकर चुप करा दिया गया कि तुम गांव में रहने वाले क्या जानो शहर में किस तरह से एडजस्ट करना पड़ता है। बड़के की पत्नी भी छोटे को देखकर भाव खा रही थी, 'अरे मेरे बच्चे का इम्तिहान है।'
सौदामिनी की दो टूक बात सुनकर सबकी बोलती बंद हो गयी थी। निर्णय एकतरफा और ज़ोरदार था, सभी को मानना ही था। 
'ठीक है माँ, आप जैसा उचित समझो।' इतना कहकर वो माँ के पास खाट पर बैठ गया था। 
'छोटे को और उन दोनों को भी बुला लो।'
सभी माँ को घेरकर बैठ गए। पहली बार इस बैठक में मैं नहीं था। सभी बात शुरू करते इससे पहले ही गला भर आया, आवाज रुँध गयी सभी की। 
'माँ, ये लीजिये पानी।' पानी का गिलास माँ को देते हुए छोटी बहू ने कहा।
माँ ने गिलास एक तरफ रखने का इशारा किया। सारी भूख-प्यास तो मैं ले आया था। कैसे रहेगी वो मेरे बगैर, उसकी पल-पल की आदत था मैं। सब तो अपने आप में ही व्यस्त थे, मैं ही तो था जो उससे झगड़ता था उसका अकेलापन बांटने को। 
किसी तरह से बातचीत आगे बढ़ाई गई। माँ ने गरुण पुराण से लेकर तेरहवीं भोज तक की सूची बनवा दी थी। बच्चे बार-बार काना-फूसी शुरू करने लगते फिर माँ की भृकुटी देखकर शांत हो जाते। जब बात समय से हटी तो पैसे पर आ गयी थी। सभी का ये मानना था कि इतनी फिजूलखर्ची की क्या जरूरत। पर माँ की ज़िद के आगे किसी की न चली।
सौदामिनी तो मेरी मौत को एक उत्सव के रूप में मनाने को आतुर थी। उसे यही लगता था जैसे मैं अब भी उसके आसपास हूँ। उसका जानलेवा लगाव मेरी परेशानी का सबब था पर अब मैं चाह कर भी कुछ नहीं कर सकता था। अब तक सब लोग अपने-अपने कमरे में जा चुके थे। सौदामिनी बिस्तर पर करवट बदल रही थी। दुःख से ज़्यादा ज़िम्मेदारियों का भाव था उसके ऊपर जिसे वो बखूबी निभा रही थी। सब अपने-अपने कमरे में बस इसी उधेड़बुन में जग रहे थे कि ये काम तो कम समय और पैसे में भी हो सकता था फिर इसके लिए इतना करने की क्या जरूरत? उधर सौदामिनी की सोच थी कि जब सारे काम चलते रहते हैं, शान-शौकत दिखाने का वो कोई मौका नहीं छोड़ते फिर इसे फिजूलखर्ची कैसे कह सकते हैं। जब मैंने किसी के शौक और दिखावे को फिजूलखर्च नहीं कहा फिर किसी का क्या हक़ है अपना ही पैसा खर्च करने से रोकने को?
सौदामिनी ने बस यही कहकर सबको चुप कराया था कि इतना पैसा तो अभी उनकी पेंशन बुक में ही पड़ा है कि सारे काम निपटाने के बाद भी बड़का अपने बच्चे की फीस और छोटा नए मकान का डाउन पेमेंट कर सकता है। मैं असहाय सा शरीर के मोह से आज़ाद मगर आत्मा की दासता में जकड़ा हुआ था। जीवन भर इन लोगों के लिए जान गला दी अब भी इतना कुछ छोड़ आया कि आराम से रह सकते हैं फिर भी मेरी आत्मा के तर्पण के लिए मेरी पत्नी को संघर्ष करना पड़ रहा है। मेरे बीज से जन्मे मेरे अपने बेटे क्या इन्हें भी मैं एक रिश्ता ही समझूँ। मेरा शरीर नहीं रहा तो ये मेरे होने का अस्तित्व ही नकार रहे हैं। क्या होगा इनका खुद का भविष्य, कहीं मुझसे बुरा तो नहीं? मेरी आत्मा घुटी जा रही थी।
जाने क्यों होता है ऐसा जितना हम बड़े अपने बच्चों के बारे में सोचते है आखिर वो क्यों नहीं समझते इस बात को या फिर नासमझी के भंवर में रहते हैं। उम्र के अंतिम पड़ाव में बुजुर्ग जाए तो कहा जायें। जब मेरा जीवन बच्चों की जिम्मेदारियों को पूरा करने में समिधा बनकर हवन हो रहा था तब मैंने न तो खुद की जरूरतों के बारे में सोचा न ही अपने आस-पास की दुनिया के बारे में। बच्चों के लिए कितनी बार माँ-बाप भूखे सोते हैं, कितनी ही बार अपनी रातों की नींदे खोते हैं और उन्हें इस बात की भनक तक नहीं होने देते फिर भी एक उम्र होने पर उपेक्षा की दहलीज़ पर आ ही जाते हैं। 
आज जब मेरे न होने पर सौदामिनी का ख़याल बच्चों को सबसे ज़्यादा रखना चाहिए था तो उसे कर्म-कांड के नाम पर अस्तित्व बचाये रखने के लिए भी संघर्ष करना पड़ा। इसके बाद तो फिर कभी न आऊंगा मैं किसी हक़ की भीख मांगने। मेरी जड़ आत्मा इस सत्य को नहीं पाई आज तक कि शौक और फैशन के नाम पर लुट जाने वाले लोग आस्था और विश्वास के नाम पर खुद को कंजूसी के बिलों में क्यों रोप लेते हैं। किस दिशा में भटककर जाएगी आने वाली पीढ़ी? किस रूप में आएंगे ईश्वर प्रचंड मार्तंड का अस्तित्व बचाने? कहते हैं माता-पिता में ईश्वर दिखता है पर जब इनकी सुनी ही न जाये तो क्या कहेंगे? 
दूसरी ओर कलयुग के माता-पिता हैं जाने कौन से संस्कार से बांध रहे हैं बच्चों को, क्या समझेंगे ये हमारी संस्कृति, तहज़ीब और मूल्यों को। ये तो दिखावे के गुलाम बने जा रहे। पाश्चात्य के मोह में ऐसे घुलते जा रहे कि अपनी सभ्यता मजाक लगती है। जब बच्चे जनेऊ धारण करने के बाद भी उसका मतलब नहीं समझते तो क्या समझेंगे तेरहवीं के तेरह दिनों का अभिप्राय। काश कि मैं एक बार फिर आ पाता और इस बार अपना जीवन बच्चों की जरूरतों में न गंवाकर उन्हें सांस्कारिक बनाने में लगाता। 
सौदामिनी ने एक जश्न की तरह वो तेरह दिन मनाए। हर किसी से यही कहती कि क्यों रोये किसी बात का तो ग़म नहीं इसके अलावा कि सुहागिन नहीं मरी। इतना भरा-पूरा परिवार छोड़ गए अपने पीछे, सारे कर्म-कांड किये जीवन के। हर ज़िम्मेदारी को बखूबी निभाते थे। बच्चों की ख्वाहिश तो क्या, बच्चों के बच्चों की भी पूरी करते थे। एक बच्चे ने पिछले हफ्ते नई सायकिल छूने पर लकी को डाँट दिया था, घर आया तो बड़के ने भी मारा। उसके दादाजी से नहीं देखा गया तुरन्त नई सायकिल दिलाई। ये तो सही है कि उनके जाने पर उनकी बहुत कमी रहेगी पर वक़्त आ गया था। ऐसे ही एक दिन मुझे भी अपने पास बुला लेंगे....इतना कहते-कहते ज़ोर की खाँसी आयी और गला एक तरफ लुढ़क गया था। सौदामिनी भी अपनी चिरनिंद्रा में लीन हो गयी थी। उसकी मौत पर बच्चे फूट-फूट कर रोये थे। बड़के ने कहा दिया था माँ का अंतिम संस्कार और सारे कर्म-कांड वैसे ही होंगे जैसे बापू के हुए। छोटे ने भी सहमति दे दी थी।

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