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बच्चे मन के सच्चे



सवालों से जवाबों से इन्हें किताबों से न आंको
उम्र और मन के मिलन को जुराबों में न झांको

चंचल हैं बहुत ये है ठिकाना इनका बहता पानी
हैं चट्टान से मगर ये, बदल दे नदियों की रवानी

उमंगों में जीते रहते और होते सपनों में बड़े ये
हर नज़र में हसीं मुस्कराहटों के दर पे खड़े से

एक उम्मीद बने सब, हैं दस्तक सुनहरे पल की
इनके ही हाथों सौंपी अब डोर अपने कल की

100 सालों के अहसास की दास्तां



मेरे इश्किया जुनून पर पहरे की तरह तुम
ज़िन्दगी के मजमून पर सहरे की तरह तुम

ये लाइनें हूबहू चरितार्थ होती हैं दादाजी के लिए अम्मा के मन के प्यार को जब पढ़ती हूँ। हम सब मतलब हमारी पीढ़ी उन्हें दादाजी और अम्मा बुलाते थे पर थे वो हमारे परदादा। मैं 23 लोगों के संयुक्त परिवार की सबसे छोटी मगर नायाब हीरा थी। खुद से अपनी तारीफ नहीं करती पर सभी का मानना था। मैं अपनी दादी के मुंह से अक्सर उनकी सास की बचपन की कहानी सुनती थी।
अम्मा का बाल-विवाह महज़ 9 साल की उम्र में हो गया था तब दादाजी की उम्र उनसे भी 1 साल कम 8 साल की थी। इस बात पर मैं अक्सर अम्मा को छेड़ती रहती थी, "आखिर क्या देखकर आपके लिए गुड्डा पसन्द कर लिया गया?"
अम्मा भी बहुत बेबाकी से जवाब देती थी, "अरे हम तो कनॉट प्लेस जाते ही रहते थे अपनी बुआ के यहां, सामने वाले घर में तुम्हारे दादाजी रहते थे छोटी सी निकर पहनकर छत पर पतंग उड़ाया करते थे। जब दोपहर हो जाये अम्मा के बुलाने से न आये तो पिताजी बड़ी सी छड़ी लेकर जाते थे। हम भी अक्सर दोपहर में कबूतरों को पानी देने जाते थे और हमारे सामने ही इनकी धुलाई हो जाती थी। ये हमें कनखियों से देख लेते थे फिर गुस्से और शर्म से आग-बबूला हो जाते थे। एक दिन इन्होंने कुंडी खटकाई, हमने दरवाजा खोला सामने ही चरखी लिए दिख गए। इन्होंने कहा हमारी पतंग तुम्हारे छत पर है, हमने मना कर दिया कि तीन माले चढ़कर नहीं जाएंगे बाद में आना। ये भौं सिकोड़ते हुए चले गए। तब से नोंक-झोंक का सिलसिला शुरू हो गया। एक दिन अम्मा आयीं बुआ से मिलने, बुआ ने बातों ही बातों में कहा अपनी लोई बहुत लड़ती है धीरू से इन दोनों का ब्याह करा दें तो ठीक रहेगा। अम्मा ने तो जैसे सपना देख लिया मेरे ब्याह का। बाबू के न रहने से अम्मा की बहुत जिम्मेदारी थी। बुआ को मनाने में लग गयीं कि चर्चा करो ब्याह हो जाये गौना बाद में देंगे। बस फिर क्या था हमारा ब्याह हो गया।
"फिर क्या हुआ अम्मा?" जब भी मैं पूछती अम्मा बताने लगतीं।
"फिर होना ही क्या था, हमने भी बोल दिया हम इसके घर रहने नहीं जाएंगे। जब हमें विदा कराकर लाया गया तो हम सबसे नज़र बचाकर बुआ के यहाँ भाग गए। शुरुआत में तो सब ठीक था पर बाद में हमें वहीं रहना पड़ा। स्कूल में दाखिला हो गया। हम लोगों का रिक्शा लग गया। पूरे रास्ते झगड़ा होता रहता। बस छुट्टी के समय हमारी याद आती। पत्नी की तरह हमने इनके कपड़े नहीं धोए कभी मग़र स्कूल का काम हमीं करते थे। धीरे-धीरे दोस्ती हो गयी। इनकी जिम्मेदारी हमपर आने लगी थी। अक्सर दोपहर का खाना हम इन्हें छत पर ही खिलाते।  ये छत के एक कोने से पतंग उड़ाते हम दूसरे कोने पे छुडइया देते। जब पतंग ऊंचे उड़ने लगती हम इनकी चरखी सम्हालते। जब हम अपने पल्लू से इनका पसीना पोछते तो हमें चुम्मी ले लेते थे। हम दिन भर इनके आगे-पीछे लगे रहते।" ये बताते हुए अम्मा आज भी लाल हो जाती हैं।
"और कुछ बताइये न अम्मा, आपकी लव स्टोरी आगे कैसे बढ़ी?"
"बस ऐसे ही चलती रही, हमें गर्व होता है कि हम इतने समय तक रिश्ते में हैं।"
आज अम्मा की शादी की 100th एनिवर्सरी मनाने की तैयारी चल रही है। अपने अनुभव के पलों को वो बहुत गर्व के साथ शेयर करती हैं।
"धीरे-धीरे हम लोगों ने पढ़ाई पर मेहनत शुरू करी। पिताजी छड़ी लेकर काम देखते थे। हम दोनों को बराबर डाँट पड़ती थी। जब कक्षा 9 में इनका दाखिला हुआ तो ये दोस्तों की सोहबत में ज़्यादा रहने लगे। स्कूल में हमसे तो बात ही नहीं करते थे मगर हमारे आगे-पीछे रहते थे, क्या मजाल जो हम किसी से बात कर लें।"
"क्या कहकर डांटते थे अम्मा?"
"बस हम आँखे देखकर समझ जाते थे। फिर घर आने पर लाड़ भी दिखाते थे। इसी तरह कक्षा 12 तक चलता रहा। फिर इनको वकालत की पढ़ाई के लिए दूसरे स्कूल भेज दिया गया। हमने वहीं से बी ए करा। तब तक हमारे अंदर का बचपन बहुत कम हो चुका था। इनकी वकालत की डिग्री और तुम्हारे बड़े पापा की पैदाइश, इन दो बड़ी बातों ने हमारी ज़िंदगी बदल दी। तुम्हारी बड़ी बुआ और बड़े चाचा का भी आना हुआ।हम घर-गृहस्थी और वो दुनियादारी इन्हीं में लगे रहे।"
नोंक-झोंक, तकरार के जवाब में अम्मा कहती हैं, "ये सब कभी हुआ ही नहीं हमारे बीच। जब शादी हुई तो समझदारी नहीं थी जब समझदार हुए तो कदमों को अपनी दिशा पता थी। हम तो एक-दूसरे की मंजिल के राही थे। लेकिन इतना तो है कि हमने ज़िंदगी ठेली नहीं एक-एक अहसास जिया है। 100 बरस का रिश्ता निभाया है।" अम्मा की आँखों में वो कॉन्फिडेंस दिखा मुझे कि एकबारगी मन बाल-विवाह की वकालत कर बैठा। मुझे समझ में आ गया था कि अगर कोई अनचाही घटना हो जाती है तो डरकर, पीछा छुड़ाकर भागने की बजाय उसे खूबसूरत मोड़ देने की कोशिश की जाए तो उससे ज़िन्दगी बेहतरीन हो जाती है।
"अरे दादाजी वहाँ कहाँ बैठ गए आप मेहमान नहीं हैं। अम्मा क्या अकेले केक काटेंगी।" मैंने मेहमानों से खचाखच भरे हॉल में दादाजी के पास जाते हुए कहा।
"अरे मीठी आज शायद ही केक कट पाए। अम्मा तैयार नहीं हो पाई।" दीदी बलून उड़ाते हुए बोली पर दादाजी ने टोक दिया उसे,
"मीठी, आज पहली बार तुम्हारी अम्मा केक काट रही हैं तैयार हो लेने दो जी भरकर।" दादाजी की आंखों से 100 साल का अनुभव और स्नेह झलक रहा था।
"हम तो ज़िन्दगी की जिम्मेदारियों में इतने उलझ गए कि कोई खुशी ही न दे पाए उसे।" अम्मा रेड कलर की साड़ी में जैसे ही सामने से आते हुए दिखीं हॉल में मौजूद सभी लोग टकटकी लगाकर देखने लगे। दादाजी तो पूरे 90 डिग्री के एंगल पर टर्न हो गए। उनकी आँखों में प्यार ही प्यार था। वो प्यार जो बचपन में ममत्व से, तरुणाई में मार्गदर्शन की भावना से और उम्र के इस पड़ाव पर सहयोगी की तरह रूबरू कराता है। 8 साल की उम्र से फलता-फूलता हुआ आज यहाँ तक पहुंच गया।
अम्मा और दादाजी केक काट रहे थे। सारा माहौल इतना खुश था जैसे उन्हें हर जन्म साथ-साथ रहने का आशीर्वाद दे रहा हो।

मेरी पहली पुस्तक

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