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माँ का संदेश


घण्टी बजते ही मैंने अख़बार किनारे रखकर दरवाज़ा खोला.

"अरे माँ तुम, पहले बता देती तो मैं स्टेशन पर लेने आ जाता" पैर छूकर उनका सामान ले लिया.

"तुम परेशान थे तो हम आ गए. अग़र पहले से बता देते तो तेरी ये ख़ुशी कहाँ दिखती"

"ये इतना क्या सामान लाई हो?" मैंने कौतूहलवश निकालना शुरु किया.

"अरे ये तो मेरी बचपन वाली ड्राइंग कॉपी है. इस पर मैं तुम्हारे चेहरे बनाया करता था, गुस्से वाला, प्यार वाला, हँसी वाला…"

"हाँ और जब हम किसी को दिखा देते थे तो तुम रूठ जाया करते थे"

"सब लोग मुझे हँसते जो थे बस एक तुम्हीं तो थीं जो हर ख़राब ड्राइंग की भी तारीफ़ करती थीं. अब समझ में आया कि तुम माँ थीं, तुम्हें तो अपने बेटे में कोई बुराई दिखती ही नहीं थी. माँ, इधर बैठो मेरे सामने आज फ़िर तुम्हारा चेहरा बनाता हूँ"

"नहीं, इसे रखो किनारे. तुम्हारे लिए कुछ खाने को लाए हैं"

"क्या है इसमें?"

"पुलाव. तुम्हें बचपन से बहुत पसंद है न!"

"माँ अपने हाथों से खिलाओ मुझे"

माँ मुझे पुलाव खिलाती रही और मैं खाता रहा. आज बहुत दिनों के बाद मैंने इतना खा लिया पर मन नहीं भरा. माँ की गोद में सर रखकर बैठा रहा और वो मेरा माथा सहलाती रही. उसकी हथेली इतना सुकून दे रही थी कि अब कभी सर दर्द नहीं होगा. मेरी सारी परेशानियां उसकी गोद में रह गईं और मैं उनकी तस्वीर बनाने को उठ खड़ा हुआ.

"माँ अब बनाने दो ना अपनी तस्वीर"

"नहीं तुम तो ख़ुद मेरी तस्वीर हो. अब अपने बच्चों की माँ की तस्वीर बनाओ. तुम्हारे जीवन में रंग उनको भरने हैं. अब अपनी पत्नी में तुम एक औरत नहीं बल्कि माँ को देखो. अपने बच्चों को वो प्यार दो जो तुम मुझसे चाहते हो. अपनी पत्नी को वो सम्मान दो जो मुझे देते हो. मानसिक संताप और क्रोध किसी समस्या का अंत नहीं स्वयं में एक समस्या ही है"

"...और हाँ व्हाट्स एप और फ़ेसबुक का प्रयोग भी सीमित कर दो. जिन समस्याओं से भागकर उनके पास जाते हो, सच तो ये है कि वही समस्याओं का कारक हैं" माँ अपनी बात कहती जा रही थी और मेरी नज़रें दीवाल पर चुभ गई थीं.

"...तुमने बहुत परेशान होकर हमको याद किया तो हमें आना पड़ा. अब हमारे लिए परेशान मत हो उनके बारे में सोचो जो तुम्हारे पास हैं…" इतना कहते ही माँ की आवाज़ दूर चली गई और मेरी नींद खुल गई. तब मुझे याद आया माँ तो तारा बन चुकी है, शायद वो मुझे यही संदेश देने आई थी.

काश कि मां रेगिस्तान हो जाती...!

"कहां था बेटा...फोन तक नहीं उठाया..." मां की आवाज डूब रही थी पर तीन हफ़्ते बाद लौटे बेटे को देखकर आंखें चमक उठीं.
"अब बच्चा नहीं रहा मैं और बात-बात पर फोन करना मेरी आदत नहीं. वैसे भी अगर कुछ हो जाता क्या कर लेती. ट्रेन पलटने लगती तो हाथ लगाकर रोक लेती क्या?" बेटा सप्तम स्वर में बोल रहा था तभी फो
की घंटी बजी.
'हां जान, ठीक से पहुंच गया हूं. मैं तुम्हें फोन करने ही वाला था. और मॉम कैसी हैं...मेरा बिल्कुल भी मन नहीं था कि इस हालत में तुम्हें छोड़कर आऊं. कैसे देखभाल करोगी उनकी...' कहता हुआ बेटा एक हाथ में ट्रॉली बैग, दूसरे में हैंड बैग और कान के नीचे मोबाइल दबाए हुए कमरे में चला जा रहा था उधर दरवाजे के पीछे खड़ी मां की सांसे घुट रहीं थीं. गर्लफ्रेंड की मां की तीमारदारी के लिए पिछले तीन हफ्ते से 500 किलोमीटर दूर अनजान सी आबो-हवा में जीकर अब शायद वो दर्द की चाशनी में भीगे आंसू अनदेखा कर सकता है. काश कि मां भी रेगिस्तान हो जाती!

मेरी पहली पुस्तक

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