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आदिवासी: एक सभ्यता

आदिवासी, पता नहीं आपको सुनने में यह शब्द कैसा लगता है पर हमें इस शब्द में विशेष रुचि है। जाने क्यों सुनते ही मन को लगता है यह शब्द। मन करता है एक बार उन गलियों में जाने का, उन बस्तियों में जाने का जहाँ वो लोग रहते हैं, जिन्हें आदिवासी कहा जाता है। हमारी सभ्यता का विस्तार हमें गाँव से शहर तक ले आया। यहाँ तक आते-आते बहुत कुछ खो गया, बहुत कुछ छूट गया। हमारी जो असल सभ्यता है वही पीछे छूट गयी और उसके भी पीछे जो रह गया या यूँ कह लें कि छोड़ दिया गया, वही आदिवासी रह गया। समाज की मुख्य तो क्या किसी भी धारा से जुड़ ही नहीं पाया।

हमारी समझ में आगे बढ़ने के नाम पर मूल संस्कृति को ढकता हुआ जो विनाश शुरु होता है वो एक अंत है और वही अनंत है। जो हम पीछे छोड़ कर आए हैं, जल-जंगल और जीव, इन सभी को बचाने का दायित्व आदिवासियों को सौंपा है, लेकिन उनके बचने का क्या? क्या हमने कभी उनके बारे में सोचा है? हम में से कितने ही लोग सजग है इस बारे में? कितने लोग जानते हैं उनके वास्तविक जीवन के बारे में? कितने लोग उनसे मिले होंगे कभी? कितने लोगों ने उनके बारे में सुना होगा? कितने लोगों को उनकी बातें बताई जाती होंगी?

हम उनकी बात नहीं कर रहे जो वहाँ से पलायन कर बाहर की दुनिया में आ गए हैं, जिन्होंने स्वयं को मूलभूत आवश्यकताओं को पा सकने के जुगाड़ वाली चक्की में छोंक दिया है। अब वह शहरी मानसिकता के दूषित होते जा रहे हैं। इन सब की ओर नहीं, हमारा ध्यान आज उन लोगों की ओर जा रहा है जो मूल रुप से अपनी जगहों पर रह रहे हैं। जिन्होंने अपने जीवन में तारकोल की बनी हुई सड़क पर पाँव नहीं रखा, जिन्होंने अपने जीवन में बिजली नहीं देखी, गाड़ी नहीं देखी, बस नहीं देखी, जो हवाई जहाज के बारे में नहीं जानते हैं, जो नुक्कड़ चौपाल आदि से दूर हैं, जो अखबार, मीडिया, टीवी बहस संसद नहीं जानते हैं।

सुनकर अजीब सा लग रहा होगा ना लेकिन चौंकिए मत। ऐसे बहुत से लोग हैं, ऐसी बस्तियाँ हैं, दूर जंगलों में बनी बस्तियाँ। बस्ती के नाम पर दूर-दूर दीवारों जैसे कच्ची मिट्टी की दीवारों जैसी कुछ आकृति दिख जाती हैं। फूस की छतें, घरों में दरवाजे नहीं, जानवरों से बचाने के लिए कुछ लगा दिया। कोई यदि भूला भटका शहरी इंसान, शहरी बाबू पहुँच भी जाए तो आदिवासी हक्का-बक्का से देखते रह जाते हैं। उन्हें नहीं आता 'आइए बैठिए' कहने वाली मीठी वाणी का कलफ़, उन्हें नहीं आता तैयार होकर मेहमान नवाजी करना। हम लोगों जैसी सो-कॉल्ड सभ्यता नहीं आती उन्हें लेकिन सही मायनो में वो ही विरासत को जीवित रखे हैं। उन्होंने जंगलों को बचाए रखा है, उन्होंने पेड़ों को बचाए रखा है, जीवों को शरण मिली है उन्हीं के आसरे। उनके चेहरे पर ईर्ष्या नहीं, द्वेष नहीं, तिरस्कार नहीं। उनकी आँखों में निश्छलता है। कोई कटाक्ष नहीं बोलते वो। हम अगर उन्हें कुछ देना भी चाहें तो वह नहीं लेते। अगर उन्होंने हमारे लिए कुछ किया है तो हम कदाचित उन्हें कुछ दे सकते हैं। वह हमसे कुछ नहीं लेते बल्कि अगर हम और आप पहुँच जाए उनके आसपास कहीं, तो हमें वह बहुत कुछ देते हैं, सब कुछ देते हैं। जीवन का आधार बताते हैं वो। सादगी निश्छलता, अपनापन, स्नेह इन सबके मायने बताते हैं। एक ठौर पर टिका हुआ उनका जीवन हमें सिखाता है... जीना तो यह भी है संतुष्टि है, चमक है, काम है, आराम है, कोई तनाव नहीं, कोई जल्दी नहीं, कहीं आना जाना नहीं, 24 घंटे हैं, अपने अनुसार हैं। यहीं रहना है। वन जीवन बचाना है। अच्छा लगता है उनसे मिलकर। अगर कभी मिलिये तो, वहाँ शुद्धता है, शुचिता है। कुछ भी बनावटी नहीं। कुछ भी दिखावटी नहीं।

मेरी पहली पुस्तक

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