गतांक से आगे--
"तो आप द्वैत गढ़ की राजकुमारी हैं?" उन अपरिचित ने प्रश्न कर राजकुमारी का ध्यान भंग करने की चेष्टा की.
"हम किन शब्दों में अपना परिचय दें तो आप समझेंगे?" राजकुमारी ने भी पलटवार किया.
"आप अपनी जिह्वा को अधिक विश्राम नहीं देती हैं?"
"आप प्रश्न अधिक नहीं करते हैं?"
"हमें आपके प्रत्युत्तर भाते हैं"
राजकुमारी के नेत्रों में न परन्तु हृदय पर हाँ की छाप लग चुकी थी.
"आप यहाँ आती रहती हैं क्या?"
"हम क्यों बताएँ?"
"हम पूछ रहे क्या ये कारण पर्याप्त नहीं?"
"आप तो हमसे ऐसे कह रहे जैसे हमारे सखा हों!"
"आप हमारी सखी तो हैं"
"हमने कब ऐसा कहा? हम तो आपसे बात भी नहीं कर रहे"
"बात तो आप अब भी कर रहीं और तो और हमें अंजुरि में जल भरकर दिया"
"बात करने का तो कुछ और ही प्रयोजन है और जल देकर तृष्णा बुझायी"
"आपको देखते ही रेत का एक जलजला हमारे भीतर ठहर गया और आप कहती हैं तृष्णा बुझ गयी"
"आप हमें बातों के जाल में उलझा रहे हैं"
"आपके नेत्रों ने हमारा आखेट किया है"
"यह कैसा आरोप है?"
"क्या प्रमाण नहीं चाहेंगी?"
"---"
"हमें अनुमति दीजिए कि हम आपके हृदय के स्पंदन की अनुभूति कर आपको प्रमाण दे सकें!"
"हमारा हृदय...स्पंदन...प्रमाण...बेसिरपैर की बात कर रहे हैं आप"
"विवाद नहीं सुंदरी अनुभव कीजिए"
इतना सुनते ही राजकुमारी के हृदय का स्पंदन गति पकड़ने लगा. स्वयं को बचाने के प्रयास से वहाँ से वापस जाना ही उपयुक्त लगा.
"कहाँ चली सुंदरी...सुनिए तो...हम पूर्णिमा की संध्या यहीं झील के किनारे आपकी प्रतीक्षा करेंगे. आपको आना ही होगा अगर हमारे चन्द्रमा से मिलना को प्रतीक्षारत हैं आप..."
राजकुमारी ने जाते हुए इतना सुन लिया था. तेज गति से चेतक की ओर भागी. बैठते ही एड़ लगायी और चैन की साँस ली.
अगला भाग पढ़ने के लिए कल तक की प्रतीक्षा...