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सरहद हो या घर बंटते तो दिल हैं...

बहुत दर्द में हूँ मैं, कराह उठा है मन, हर पल छटपटा रही हूँ। एक-एक कर सारे अपने साथ छोड़ चले। रिश्ते रेत की मानिंद हाथों से फिसल रहे हैं। पल-पल से मौत माँग रही हूँ मगर ज़िंदगी का क्या कहूँ मौत भी तो कोसों दूर खड़ी है। मेरा मन एक ही खयाल से घिरा है हर पल कि सज-संवर कर मेरी अर्थी निकल रही है, लोग मातम कर रहे हैं, मेरे अपने मुझे कांधा दे रहे हैं, मैं सबसे आगे हूँ और सब मेरे पीछे चल रहे हैं। झक सफ़ेद रंग में लिपटी हूँ मैं.. सफेद, हाँ यही तो होता है शांति का रंग...नहीं जीना है अब मुझे न अपने लिए न किसी अपने के लिए।
अपनी चोक होती साँसों को रोकना चाहा पर घुटन बढ़ रही है। कुछ समझ नहीं आ रहा पास पड़ी नींद की गोलियों से भरी शीशी पर नज़र डाली..हाँ यही ठीक रहेगा, एक खामोश नींद फिर कभी नहीं उठना.. कोई शिकायत नहीं और कोई दर्द भी नहीं..हाथ में शीशी उठाई ही थी कि दरवाजे पर आहट हुई..शीशी अपनी जगह वापिस रख दी, कौन होगा रात के दस बजे, इंसान तो दूर परिंदे भी यहाँ का पता भूल चुके हैं, महीनों हो गए कोई तो नहीं आता फिर कौन और क्यों आ सकता है इस वक़्त। मैं बिस्तर का छोर पकड़कर बैठ गयी। दूसरी आहट हुई, तीसरी, चौथी लगातार और उठते हुए स्वर में होने लगीं। मन तमाम अनजानी आशंकाओं से घिर गया। डर और रोष का मिला-जुला भाव था। डर इस बात का कि कौन और क्यों आया होगा, रोष इसका कि जब सबने मरने के लिए छोड़ दिया फिर ज़िन्दगी की तलाश में यहाँ क्यों?
दरवाजे पर आहट कुछ थमी तो मैंने तसल्ली की साँस ली। तभी मोबाइल फोन के वाइब्रेशन ने डर और विस्मय की लकीर दोगुनी कर दी, दौड़कर फोन देखा भाई का नंबर स्क्रीन पर फ़्लैश कर रहा था..क्यों फोन किया होगा इसने अब तक इतने दिन कोई खबर न ली फिर आज अचानक मुझे फोन...आखिर हूँ क्या मैं इन सबकी नजर में एक मिट्टी की गुड़िया..जब जितना और जैसे चाहो सजा दो, संवार दो और जब जी चाहे मसल दो..मेरा अपना कोई सावन नहीं.. मेरे जीवन का कोई मधुमास नहीं..जब चाहें लोग बोलें और जब चाहें मुंह फेरकर निकल जाएं..मेरे होने या न होने का कोई मतलब ही नहीं।
अभी तो एक महीना भी नहीं हुआ जब भाई की गरजती हुई आवाज कानों में पड़ी थी..'अब और नहीं सह सकता मैं, तुम लोगों के लिए अपनी बीवी को तो छोड़ नहीं दूँगा।'
'किसने कहा अपनी बीवी को छोड़ गुलाम बनकर रह।' पापा को इतना चीखते हुए अपने जीवन में पहली बार सुन रही थी। मैंने बहुत कोशिश की शांत करने की पर एक नहीं सुनी थी। लग रहा था जैसे आज फाइनल करके ही छोड़ेंगे। रोज-रोज की किट-किट हो चली थी, खुद का ही खर्च करते और खुद ही सफाई देते। झगड़ा बस इस बात का होता था कि उनको ज़्यादा मुझे कम। मुझे तो आज तक ये बात समझ ही नहीं आयी थी कि जिसको जितनी भूख होती है उतना ही तो मिलता है फिर ज़्यादा कम का क्या। जितनी जरूरत उतना तो मिल ही जाता था अब अगर एक एनीमिक है तो जरूरी तो नहीं कि दूसरे को भी आयरन की डोज़ दी ही जाए मगर ये तो कोई समझने वाला ही नहीं था। ये दो भाइयों के बीच का मसला था मैं तो इसमें कहीं आती ही नहीं थी। मैं खुद कमाउँ और उड़ाऊँ यही तो संतुष्टि थी मेरी। मेरे सामने उम्मीद करने वाला कभी खाली नहीं जाता फिर वो उम्मीद चाहे भावनाओं की हो या अर्थ की हाँ अपनी सत्ता बरकरार रखती थी। किसी जगह से कदम नहीं हटाती थी अगर हटाया भी तो वापिस टिकाने नहीं आती थी। उस दिन भी मेरे होने या न होने पर कोई सवाल नहीं उठा था। बँटवारा तो उन लोगों के बीच और मेरा होना था। तब मुझे समझ आया था कि मैं जो अस्तित्व को ढाल बनाकर बैठी हूँ वो कुछ नहीं है, मैं घर में बिखरी साज-सज्जा भर हूँ, कहने को किसी की बेटी और किसी की बहन। बहुत कोशिशें की थी मैंने कि पापा के सामने ये सब न हो पर मुझे सुनने वाला कोई नहीं था। दोनों भाइयों के बीच मतभेद की दीवार इतनी गहरी हो चली थी एक बार यही लगा कि बँटवारा का इज्जतविहीन आवरण ढक देने से जिंदगी तो बची रहेगी। मैंने उसी वक़्त घर का एक कोना पकड़ लिया था ठीक वैसे ही जैसे दस साल पहले माँ के न रहने पर पकड़ा था। जब से माँ गयी दुनिया ही उजड़ गयी थी। कौन मेरा दुख देखने वाला था, कभी-कभी तो ये लगता कि ज़िन्दगी में कोई दुख ही नहीं है। मैं साधारण इंसान रह ही नहीं गयी थी। जिस लड़की के पिता और भाई उसकी डोली न उठा सके तो उन्हें रिश्ते के नाम पर क्या नाम देती मैं?
एक-एक कर सारा चक्र आँखों के सामने घूम रहा था कि मैंने कभी रिश्ते के नाम पर किसी के साथ कोई कोताही नहीं की फिर मुझे समझने वाला कोई क्यों नहीं है। मैं इमोशनल थी और इमोशन्स ही मुझे छल गए। मैंने कभी बैंक-बैलेंस को सीरियसली नहीं लिया हाँ रिलेशनशिप को सर्वोपरि माना। हर रिश्ते को बराबर समझा। अपने तो अपने गैरों को भी गले से लगाया ये देखे बगैर कहीं इनके हाथ में छुरा तो नहीं।
फोन पर एक दो तीन नहीं पूरी दस कॉल हो चुकी थी। मैं बात करने का कलेजा कहाँ से लाऊं। तभी मोबाइल की स्क्रीन पर मैसेज दिखा...मैं कितनी देर से नॉक कर रहा हूँ। दरवाजा खोलो...भाई का मैसेज था। अब तक ये क्लियर हो चुका था कि दरवाजे पर भाई है। मेरे पैर नम्ब पड़ चुके थे...अब क्यों आया है ये यहाँ उस वक़्त कहाँ था जब पापा बंटवारे का दर्द नहीं सह पाए थे और निढ़ाल होकर इन्हीं हाँथों में झूल गए थे...और इसकी बीवी इसे ये कहते हुए घसीटकर ले गयी थी कि हम लोगों को रोकने का नाटक है...उस वक़्त तो पलटकर भी न देखा था इसने... फिर अब..मेरी आँखों के सामने वो सीन चल रहे थे। एम्बुलेंस में डालकर पापा को हॉस्पिटल पहुंचाया। तीन दिन तक वेंटिलेटर पर रहने के बाद कब आँखे बंद हुईं और हॉस्पिटल के बाद का सफ़र मुझे कुछ याद नहीं। कई दिनों के बाद जब मुझे होश आया तो मैंने खुद को बुआ जी के साथ घर पर पाया था। पापा की तस्वीर हार के साथ दीवार पर थी। शांति पाठ के बाद बुआ जी भी चली गयी थीं। तब से आज तक मैं धुत अकेली हूँ। बीच में कई बार दोनों भाइयों के मेसेज आए कि मैं चाहूँ तो बारी-बारी से दोनों के साथ रह सकती हूँ पर मेरा मन रिश्तों से उचाट हो चला था। मैं सम्बन्धो के बीच किसी भी तरह का पुल नहीं बनाना चाहती थी।
इस बीच भाई के मैसेज लगातार आते रहे, फोन भी बजता रहा मैंने कोई रिप्लाई नहीं किया। दरवाजे पर एक बार फिर से आवाज़ें आने लगीं। मेरे कानों की थकान ने दरवाजा खोलना ही ठीक समझा। मन साथ नहीं दे रहा था पैरों को घसीटकर दरवाजे तक ले गयी। खोलते ही पीछे पलट गयी। अंदर आते ही उसने कुछ पेपर्स मेरी तरफ बढ़ा दिए।
"ये कुछ पेपर्स हैं इसपर तुम्हारे साइन चाहिए। दिशी का मेडिकल में एडमिशन कराना है, मुझे पैसों की जरूरत है। मैं इस घर पर लोन करवा रहा हूँ।"
उसने अपनी बात कह दी थी पर मैं चुप रही। मेरे अंदर दर्द और रोष दोनों मर चुके थे। सामने बैठा बेग़ैरत चेहरा मैं सह नहीं पा रही थी। मन में तो आया कि उन पेपर्स के टुकड़े करके मुंह पर मार दूँ मग़र इतनी हिम्मत कहाँ से लाती। वो कोई इंसान नहीं एक रिश्ता है जो रिसता है। माँ-पापा सब कुछ तो खो दिया मैंने, एक यही तो अपनी छत बची है। कहाँ जाऊँगी इससे बाहर निकलकर, इन लोगों के टुकड़ों पर पलने...मेरे अंदर की शून्यता दीवार से टकरा रही है। मैं अब खंडहर बनने से कुछ भी नहीं रोक पाऊँगी न ही इस घर को न खुद को। भाई को मेरी चुप्पी न समझ में आ गयी थी शायद तभी तो वो उठा और तेज कदमों से बाहर ये कहते हुए निकल गया कि सुबह तक सोच-समझकर मैं साइन कर दूं वो उठा ले जाएगा।
मुझे अपनी गुलामी के दस्तावेजों पर साइन नहीं करने हैं। जब मन में ये इरादा कर लिया तो पलटकर मेज पर पड़े हुए पेपर्स भी नहीं देखे। क्यों सोचूँ मैं उसके बच्चे के बारे में क्या उसने पापा के लिए एक बार भी सोचा था। अगर जीती रहूँगी तो लोग जीने की कीमतें वसूल करते रहेंगे...माँ-पापा माफ़ करना मुझे मैं स्वार्थी होना चाहती हूँ...ये सोचकर मैंने नींद की गोलियों वाली शीशी खाली कर दी एक चुप शांति के लिए, एक मुक़म्मल नींद के लिए।

मेरी पहली पुस्तक

http://www.bookbazooka.com/book-store/badalte-rishto-ka-samikaran-by-roli-abhilasha.php