स्वयं के अन्तस् रावण अटल
घात लगाए स्वयं की हर पल
मुझको दर्पण बन, जो मिला
वही विजित है मेरा स्वर कल
नयन में राम तो पग में शूल हैं
हर शबरी के हिय हूक मूल है
हुआ आँचल माँ का तार-तार
बहने दो निनाद, भाव कोमल
कौन कहे कि हर सत्य राम है
कहीं दशानन भी, सत नाम है
नाम नहीं अब दहन करो तम,
गर्व और पाखंड का अस्ताचल