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स्टेचू ऑफ यूनिटी

प्रतिमाओं के अनावरण तो हो जाते हैं पर रख-रखाव के अभाव में धूल फांकती नजर आती हैं। विश्व की सबसे ऊँची प्रतिमा का गौरव हासिल होने के बाद सम्भवतः इस बात का भी ध्यान रखा जाए। 
सनद रहे कि कल लौहपुरुष सरदार बल्लभ भाई पटेल की प्रतिमा का अनावरण होने के साथ ही भारत को ये गौरव हासिल होगा।

बेड नंबर एट...और तुम


...अक्षत पिछले दो दिन से आई सी यू के आठ नम्बर  बेड पर मरणासन्न पड़ी तृषा की देखभाल कर रहा था...माँ के बाद अक्षत के अलावा था ही कौन उसका...डॉक्टर्स का मानना था उसके रहते तृषा के शरीर में नामालूम सी ही सही पर हरकत होती है...
"बेड नम्बर एट..." अक्षत सिस्टर की बात पूरी होने से पहले ही आई सी यू के कपड़े पहनता हुआ अंदर की ओर भागा...दिल-जान से चाहता था वो किसी तरह तृषा को बचा सके...हर बार की तरह उसकी हथेलियों की छुअन भर से ही उन बेजान हाथों में हल्की सी सुगबुगाहट हुई...अक्षत का कलेजा मुँह में आ गया...ज़र्द सा पड़ा तृषा का नीचे का होंठ थरथराया...
"...बोलो न तृषा...एक बार 'अक्ष' कहो न... देखो मैं तुम्हारे पास आ गया...बस एक बार बोलो..." डॉक्टर का हाथ कंधे पर महसूस होते ही वह फफककर रो पड़ा...
"देखिए आज पूरे 21 दिन के बाद जो हरकत इनके अंदर हुई है...हम इससे ज़्यादा एक्सपेक्ट भी नहीं कर सकते... इट्स टोटली मिरेकल...अब हम इनके जल्द ठीक होने की उम्मीद कर सकते हैं..."
"देखिए इनकी फैमिली से मैंने बार-बार ये जानने की कोशिश की कि इनके इस अवस्था में आने के पहले आखिर ऐसा क्या हुआ था...बट दे टोल्ड नथिंग..."
"मे हिप्नोथेरेपी आर अदर थिंग्स डू समथिंग फ़ॉर बेटरमेंट?"
"इट्स नॉट अ गुड टाइम फ़ॉर दीज...ये शॉक दो तरह से होता है पहला तो ये जब ऑल ऑफ सडेन कुछ ऐसा अनएक्सपेक्टेड सुना या दूसरा तब जब कॉन्टिनुअसली किसी से ये बोला जाता रहे...यू आर यूज़लेस, यू आर गुड फ़ॉर नथिंग, नोबडी लव्स यू...एन्ड समबडी को-रिलेट दिस विद एन इंसिडेंट...तो ये बातें अनकॉन्शस माइंड में एक ट्रुथ की तरह एक्सेप्ट कर ली जाती हैं फिर अपने आपको कितना भी कन्विन्स करना चाहे मुश्किल होता है...नेगेटिव बिलीफ सिस्टम और सेल्फ डाउट, डिप्रेशन एंगजाईटी जैसे साइकोलॉजिकल डिसऑर्डर डेवलप करते हैं और यह सब कुछ लम्बे समय तक चलता रहे तो रोजमर्रा की छोटी-छोटी बातें भी वो अपनी नाकामी से को-रिलेट करने लगता है...ऐसे में पेशेंट सब्कांशस अवस्था में आ सकता है और हिप्नोथेरेपी से कैसे, किस हद तक लाभ मिलेगा ये कन्फर्म करने के लिए डॉ लूसिया को बुलाया है..."
"थैंक यू सो मच डॉक्टर..." क्या मैं ही इसके पीछे जिम्मेदार हूँ... मैंने तो उसकी हर बात सुनी फिर वो मुझे गलत क्यों समझती थी...उस दिन मैंने फोन पर बस इतना ही तो कहा था कि हर वक़्त खाली नहीं रहता हूँ तुम्हारे जैसे...उफ़्फ़ देखो तृषा मैं सब कुछ छोड़कर तुम्हारे लिए ही हूँ यहाँ डॉक्टर के जाते ही अक्षत का मन भारी हो गया वह तृषा की ओर मुड़ा... हड़बड़ी में ऑक्सीजन का पाइप पैर से उलझकर निकल गया...
तृषा का सर्द चेहरा अक्षत की बाहों में था...वो सचमुच जीत गई थी...आज वो सिर्फ उसके लिए वहाँ था...तृषा की एक ही ख्वाहिश थी कि वो ज़िंदगी की आख़िरी साँस अक्षत को महसूस करते हुए ले.
"डॉक्टर तृषा को होश आ गया, वो मुझे देख रही है..." अक्षत पागलों की तरह चीख रहा था और नर्स उसे हिलाकर बताने की कोशिश कर रही थी...
तृषा ज़िंदगी से हार चुकी थी और अक्षत अपने आपसे...

हममें हमको बस...'तुम' दे दो



कुछ उलझा-उलझा सा रहने दो
कुछ मन की हमको कहने दो
आँखों से बोल सको बोलो
कुछ सहमा-सहमा सा चलने दो
हर बात गुलाबी रातों की
हया के पहरे बैठी है
है रात अजब शर्मीली ये
हमको-तुमको यूँ निहार उठी
अब हाथ कलेजे पर रखकर
कुछ हल्का-हल्का सहने दो;
तुम हो, हम हैं सारा आलम
मदमाता यौवन, भीगे हम-तुम
आ जाओ छुपा लो हमको
मन सावन है, तन वृंदावन
मत रोको हम प्रेमाकुल हैं
बस मद्धम-मद्धम सा झरने दो;
एक ऐसी हिलोर उठी हिय में
आह की हूक जगी औ बढ़ी
तोड़ो भी हर सकुचाहट को
देखें तो जरा मसली सी कली
हममें हमको बस 'तुम' दे दो
उफ़्फ़ बिखरा-बिखरा सा रहने दो.

क्या यही प्यार है?

'सुनो न, ये मेहंदी कैसी लग रही'
'आज तुम पूरी की पूरी बहुत खूबसूरत लग रही हो' कहते हुए हैंग आउट पर ही कुछ उबासी ली।
'अच्छा देखो...तुम्हें नींद आ रही है थक गए होगे...आराम करो'
'नहीं डार्लिंग तुम्हारे लिए तो...' कहते हुए एक और उबासी।
'...अच्छा इतना कहती हो तो ठीक है सुबह बात करते हैं' हैंग आउट ओवर...पत्नी को नींद नहीं आई, उसने अपनी बहुत पुरानी आई डी लॉगिन की...सामने पति की ही आई डी दिख गई...मजाक के मूड में फ्रेंड रिक्वेस्ट कर दी..रिक्वेस्ट एक्सेप्टेड..और एक के बाद एक मैसेज आने लगे...
गलती से पत्नी ने मैसेज कर दिया 'आप सोए नहीं अब तक'
'मतलब...क्या कहना चाहती हैं आप?'
'सॉरी मेरा मतलब रात के दो बजे रहे..तभी पूछा'
15 मिनट तक फॉर्मल बातें और सफेद झूठ की रंगीनियां चलती रहीं...अचानक ही स्क्रीन पर एक मैसेज दिखता है..
'क्या इतनी रात तक भी तुम फॉर्मल ही रहती हो बेबी...अब कुछ रोमांटिक भी हो जाए'
'रोमांटिक उफ़्फ़ वीडियो चैट पर आते हैं...'
वीडियो चैट पर आते ही पति की आँखों से नींद गायब और उसे अब तक मदद की दरकार है करवा-चौथ पर अपनी पत्नी का सामना कैसे करे।

आओ न प्रेम को अमर कर दो

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तुम्हारे लिए कोई कसम न हो
फिर भी पूरा जनम है
सात फेरे न सही
हम तेरे तो हैं,
सुहाग का चूड़ा, बिछुआ, महावर
आरती का थाल
सब कुछ सजाया है
अब मान भी जाओ हमारी मनुहार
आज चंदा को अपनी नथ बनाना है
चाँदनी की पालकी में
प्रेम डगरिया जाना है,
पीपल की ओट से
स्नेह का दिया मत दिखाना
छत पर चाँद उतरने का भ्रम मत बनाना,
हमें तो दूर आसमानों में फैली
वो लाली चाहिए,
पूरा चाँद तो तुम ही हो मेरे;
कभी मन में पसर जाती है
उम्मीदों की अमावस
तब तुम्हीं तो हो न जब आँखें झुकाकर
स्वीकारोक्ति देते हो
अपने होने की, हमारे साथ हर पल,
हम नेह के सूत पर
आँखें मूँदकर चल पड़ते हैं,
तुम्हारा होना हमारे मन का उजाला जो है,
तुम हो तो हम हैं
अब आओ भी
मन कितना प्रेम-पिपासु हो रहा,
शब्दों के छज्जे पर
इसकी वय न ढ़लाओ,
श्री-गणेश कर दो कि
मन से मन का एकाकार तो हो गया
देह को हमारे नाम से मुक्त कर दो
हमें पतिता बना दो,
समा लो हमें खुद में
समर्पण का गठबंधन करा दो,
सोंख लो बून्द-बून्द हमारे कौमार्य की
हमें ईश की ब्याहता बना दो
बहुत हो गया बातों का परिणय
अब तो हमें अमरपान करा दो!

Kindergarten


मेरी ऑटोबायोग्राफी..

दर्द तो लिख सकता है लिखनेवाला
पर स्वयं का दर्द लिखने का
साहस कहाँ से लाऊँ,
तुम जितना समझोगे मुझे
सरकती जाएंगी सोंच की दीवारें
ढ़ह जाएंगे कल्पनाओं के महल
क्योंकि स्तब्ध होती रहेंगी
तुम्हारे किन्तु-परन्तु की पगडंडियां;
सच इतना वीभत्स नहीं
जो छोड़ते जा रहे हो ऊपर शब्दों में
बल्कि सच
संवेदनाओं की खौलती तरलता में
जबरन धकेली जा रही
निरीह आत्मा है,
जिस सच को सोचकर भी
हैवानियत तक झनझना उठे
वो पलों में जिया है मैंने,
क्या-क्या लिखूँ और क्यों लिखूँ
यही बात रोककर रखती है मुझे
कितनी ही बार मेरी खुशियाँ
हाथों में आकर ऐसे सरक जाती हैं
जैसे रेत पर समंदर का पानी
कोई निशान तक नहीं रह जाता,
कैसे कहूँ ये सब
कि मैं भी कमज़ोर पड़ जाती थी;
किन शब्दों में लिखूँ वो यातना
जो युवा होते ही प्रेम करने पर मिली थी
तीन दरवाजों के अंदर होने पर भी
बार-बार सांकल देखी जाती थी
और सींखचों पर उगा दिए गए थे
झरबेरी के काँटे,
मैं मन ही मन मुस्काई थी
कि यही तो मेरी स्वतंत्रता है...
उन दिनों में लिख डाली थी मैंने
अपने मन की इबारतें,
क्योंकि बाहर निकलते ही
फिर से देनी थी मुझे गोबर पर
अपनी हथेलियों की थापें,
और वो भी तो दर्द का महासमर था
जब उन्नीस की होते ही
चालीस पार कर चुके पतझड़ के साथ
पहली ही रात...उस भयंकर दर्द के बीच
मेरे अंगों की नाजुकता
क्षीण-क्षीण हुई थी
....फिर पूरे नौ महीने बाद
मैंने बेटी जनी थी..
दूसरी बार मेरा प्रेम के सोपान पर
कदम बढ़ा ही था कि
बेटी के नाम पर
हर तरह का जहर पिलाया गया,
....विधवा की तरह सर मुंडाया गया
जबकि चीख़-चीख़ कर पूँछती रही,
'मैं सधवा थी ही कब...'
मैं लिख तो देती ये सब शब्दशः
पर नंगे पाँव के छालों को
अम्ल की जमीन पर कैसे उतार दूँ..
इससे बेहतर है मैं
हिरोशिमा-नागासाकी की
त्रासदी लिखूँ,
मलाला का इंकलाब लिखूँ,
शहीदों की विधवाएँ लिखूँ,
बाल-विवाह, छुआ-छूत
गरीबी की मार लिखूँ,
भले ही
खाईं में गिरती अर्थव्यवस्था का दर्द लिखूँ,
पर अपनी हार...
कब होगी मुझे स्वीकार..

मैं स्मरण हूँ...


गंगा को समेटे
रखता हिमालय पे चरण हूँ,
नख से शिख तक करता
भभूत का वरण हूँ,
मैं इस सदी का
दूसरा संस्करण हूँ,
ध्यानी हूँ, दानी हूँ
और स्वाभिमानी हूँ
तांडव है मेरा मनोरम
सती का विधाता हूँ
बसता हूँ कन्दराओं में
हर मर्म का ज्ञाता हूँ
खाल को आभूषण बनाए
सौंदर्य का अलंकरण हूँ,
रंगों में नीलकंठ औ
भुजंग को लपेटे हूँ
हैं नेत्र तो कुल तीन
सारी दृष्टि मैं समेटे हूँ
भाल पे है चन्द्रमा
कान नागफनी छाई हैं
पुण्य भगीरथ के तप का
पाप धोने गंगा बुलाई हैं
दो पाँवों से करता तांडव
तीन लोकों का संचरण हूँ

माँ होना...

मेरे भीतर की स्त्री ने दम तोड़ दिया था,
जब माँ सा ये कलेजा मजबूत किया था।
स्नेह दिया था, किसी का खून था उसमें,
वो नौ महीने तो मेरे गर्भनाल से जिया था
सामजिक सरोकारों में परखी जाने लगी,
जैसे ममतामयी होकर अपराध किया था।
रातों में रखके सोने लगी ममता सिरहाने,
वेदना और प्रेम, फ़र्ज़ ने निचोड़ दिया था।
सिंदूर, महावर अग्नि के फेरे भुलाने पड़े
जब सारे ही रिश्तों ने मुंह फेर लिया था।
अभागन सी कभी, खुद में बैठी थी ठगी,
रात अकेले जागकर मैं नैपी बदलती रही।
सारे बच्चे ऊँगली थामकर जब दौड़ने लगते,
मेरे बच्चे की घुटरन के मुझे अरमान जगते।
क्या ख़ुशी देती जिंदगी सँवारने में लग गई,
बस डॉक्टर और दवाइयों तक सिमट गई
मेरा संसार बड़ा है पर हूँ मैं नितांत अकेली,
जीवन जीने के लिए, सारी रस्मों से खेली।
मुझे प्रेम और दर्द बेपनाह चिढ़ाता है जब,
बच्चा अकेले अस्तित्व पर सवाल उठाता है।
सारी ख़ुशी तो दे दूँ पर रिश्ता कहाँ से लाऊँ,
उसे वो प्यार देकर अपना सम्मान बचाऊँ।

एक करुण माँ की पुकार

मेरी अनाया...



तुम्हारे अंदर होती जरा सी हरकत
बढ़ा देती है मेरी आहट,
तुम्हारी मासूम सी हथेलियों की छुअन
कई बार मेरी आँखें नम कर जाती है,
जरा सा करवट बदलते
तुम्हारा कसकर पकड़ना
जैसे छूट ही जाओगी मुझसे;
तुम दूर होती ही कब हो
जब जगती हो तो सवालों में
और सोते ही खयालों में
काबिज़ हो चुकी हो पूरी मुझ पर
ऊन, सलाइयों पर
और मन में सपने बुनती रहती हूँ,
दिन भर साजो-श्रंगार और
कपड़े ही तो गुनती रहती हूँ,
गमलों और एंटीक की जगह
टेडी बियर आ गए हैं
और वो एक-एक बालिस्त के कपड़े,
कितना अच्छा लगता है इन्हें निहारना,
कौन सी ड्रेस कितनी फबेगी तुम पर
यही सोचती रह जाती हूँ,
अभी बैठने की कोशिश में हो
फिर घुटरन में दिखोगी,
और एक दिन 
इसी घर में दौड़ती फ़िरोगी,
आज मैं तुम्हें बोलना सिखाऊंगी
कल तुम मेरी आवाज बन जाओगी,
मैं हर पल गर्व में जियूंगी
तुम जब-जब मुस्कराओगी;
मेरा प्यार, मेरी अनाया
मेरी खुशी का सरमाया.

मेरी पहली पुस्तक

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