नदी दीदी, नदी दीदी
कहीं टेढ़ी, कहीं सीधी
तुम तो हो बड़ी ज़िद्दी
नदी दीदी, नदी दीदी
दुनिया भर की करती सैर
थकते नहीं हैं तुम्हारे पैर
तुम तो हो बड़ी ज़िद्दी
नदी दीदी, नदी दीदी
रोको तो नहीं रुकती
आगे किसी के नहीं झुकती
तुम तो हो बड़ी ज़िद्दी
नदी दीदी, नदी दीदी
रहती हो सदा बहती
न सुनती हो न ही कहती
तुम तो हो बड़ी ज़िद्दी
नदी दीदी, नदी दीदी
© निवेदिता अग्रवाल
भुबनेश्वर, ओडिशा
ये उद्गार हैं एक नन्हीं कलम के. आज अपनी लेखनी से इतर अपने ब्लॉग पर कुछ आप लोगों के लिए प्रस्तुत कर रही हूँ. मुझे आपकी कलम ने प्रभावित किया, आपके सोचने के तरीके के कारण. पहली बार मैंने नदी के लिए माँ के अतिरिक्त कोई अन्य संबोधन सुना. ये वो सोच है जहाँ हम सभी का विस्तृत मन नहीं पहुँचा. किंतु बाल सुलभ मन ने नदी को एक जीवंत किरदार के रुप में देखा. गोया नदी हमारे आपके बीच से निकलकर अपनी मंजिल तय कर रही हो. नदी का हठ, नदी का दर्द, नदी का दृढ़ प्रतिज्ञ होना... बालमन के सोचने के विशिष्ट तरीके से मेरी भावनाएँ जुड़ गयीं और मुझे लगा कि आप सभी तक यह अवश्य पहुँचना चाहिए.
आप कक्षा छः की छात्रा हैं. पढ़ने में मेधावी होने के साथ कराटे और नृत्य जैसी विधाओं में भी विशेष रुचि है. सबसे अच्छी बात की आपका गणित से विशेष अनुराग है. आपको उज्ज्वल भविष्य की शुभकामनाएं!