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वो

नज़्म में
लिपटकर
रोटियाँ नहीं आतीं

कोई तो जगह
बता दो साहब
जहाँ बेची,
बेटियाँ नहीं जाती

है वो कौन सा
यौम-ए-आशूरा
जब काटी
बोटियाँ नहीं जाती

दिल होता
तो पिघलता
इन नामुरादों का
युग बदलता
और खींची
द्रोपदियों की
चोटियाँ नहीं जाती

हाथी नहीं हैं ये
कुत्ते भी नहीं हैं
नथुनों में
इनके रेंगने
चीटियाँ नहीं जातीं

चंद क्षणिकाएँ

 



•प्रेम

ऐश्वर्य के पाँव में पड़े

छालों का नाम है


•नदियाँ धरा का सौंदर्य हैं

और पड़ाड़ो तक पहुँचने का

सुगम मार्ग


•दर्द के मार्ग पर

चलते हुए

प्रिय का प्राकट्य होता है


•कोई तो है

जो इस सृष्टि पर

दृष्टि रखे है


•प्रेम में

तुम्हें याद करना ही

मेरे प्रेम की अधिकतम सामर्थ्य है


लड़की की इच्छा



मैंने बो दी है अपनी इच्छा
'इस समाज में न जीने की'
किसी गहरी मिट्टी के नीचे
क्योंकि ये समाज सुधरने से रहा
और मैं ख़ुद को मार नहीं सकती.
कैसे जियूँ यहाँ तिल-तिल मरकर
हंसने-बोलने पर पाबंदी लगी
पढ़ने जाने पर लगी
बाहर निकलने पर लगी.
जब भी समझाती हूं
बाबा अब सब सही हो गया
फ़िर कोई नई बात हो जाती है;
समझ नहीं आता ये रातें भी
क्यों होती हैं एक लड़की के हिस्से
कभी सूरज वाली रात
कभी भावनाओं वाली
तो कभी दर्द वाली;
यकीन है मुझे
एक दिन सब कुछ ठीक हो जाएगा
तब लौट कर आऊँगी पूरी मैं
मेरी रोपी हुई इच्छा का
पेड़ मजबूत हो चुका होगा तब तक
और सबने उतार लिया होगा उससे
अपनी-अपनी इच्छा का फ़ूल
...तब तक, मैं भटकती रहूँगी
इच्छा रहित आत्मा में
एक ज़िस्म बनकर
हैवानों को बोटी चाहिए
बेटी नहीं.

मैं दोषी हूँ


मैं दोषी हूँ
उन तमाम गुनाहों की
जो मैंने प्रेम करते हुए किए.
मैं दोषी हूँ
उस प्रेम की भी
जो तुमने महसूस किया.
मैं दोषी हूँ
उन तमाम रातों की
जो तुम्हारे इंतज़ार में गुजारीं.
मैं दोषी हूँ
उस पल की
जब मैंने तुम्हें अच्छा कहा.
मैं दोषी हूँ
उस कल की
जिसमें तुम्हें साथ चाहा था.
मैं दोषी हूँ
उन शब्दों को पढ़ने की
जो तुमने लिखने चाहे.
मैं दोषी हूँ
कि तुम्हारा दर्द
तुमसे बड़ा मुझे दिखा.
मैं दोषी हूँ
सबसे ज़्यादा इस बात की
कि अपना ही दोष दिखा नहीं.

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स्त्री धर्म है!

नभ के सीप में बंद उदात्त स्त्री
स्वयं में एक सत्ता है
हवा की आरी से दुःख को चीरती हुई
शिव नहीं है तो क्या हुआ
गरल तो पी जाती है
वो पूजती है और पूजी जाती है
गोमुख से निकली पावनी सी पवित्र
वही तो है समूचा अस्तित्व
फिर प्रश्नचिन्ह कैसा
क्यों तोड़ना उसे
अगर वो जोड़ती है.
अपात्र नहीं है
वो तो सुपात्र है
स्वीकारनी होगी उसकी उन्मुक्तता
ताकि सृष्टि का संतुलन बना रहे.

मैं जीवन हूं


मैं सब कहीं हूँ
प्रेम में, विरह में
दर्द में, साज में
सादगी में हूँ
परिहास में भी हूँ
मूक गर शब्दों से
तो आभास में हूँ
मैं मधुर हूँ
नीम की छड़ में
मैं कटु हूँ
शहद के शहर में,
अणु हूँ
रासायनिक समीकरण में
गति हूँ
चाल हूँ
समय हूँ
भौतिक के हर नियम में,
मुझसे ही आगे बढ़ा है
डार्विन का हर वाद
अपना सा लगे
प्रजातन्त्र और स्वराज
माल्थस का सिद्धांत हो
या रोटी का भूगोल
रामानुजम ने बताया
न समझो हर जीरो गोल
मैं शेषनाग पर टिकी,
मोक्ष के मुख पर
कयाधु के गर्भ से निकली,
जड़ हूँ
चेतन हूँ
अजरता
अमरता 
का पोषण हूँ
मैं जीवन हूँ।


मेरा अस्तित्व

आज बच्चे को अस्पताल ले जाना था..ऑफिस से छुट्टी लेनी पड़ी..पहुंचने में देर हो गई नम्बर आने में वक़्त था..पतिदेव मुझपर बरस पड़े, 'तुम्हारी वजह से हुआ ये, ऑफिस में लंच के बाद पहुंचने को बोला था अब क्या करूं?'
'मैडम आप प्लीज किनारे आकर लड़ाई कर लीजिए, मुझे झाड़ू मारना है' मैं स्वीपर की बात पर किटकिटा कर रह गई।
'तुम गेम खेल रहे हो और तुम्हारी वजह से मैं टॉर्चर हो रही हूं। सौ बार बोला है वक़्त देखकर काम किया करो।' बेटे के हाथ से मोबाइल लेकर मैं सुकून की तलाश में फेसबुक लॉग इन करके किनारे बैठ गई।
यही कोई 10 मिनट के बाद बॉस की प्रोफाइल पर एक अपडेट आती है, '.... निःसन्देह एक कर्मठ एम्प्लॉई थीं पर ऑफिस से बेटे की बीमारी का बहाना करके छुट्टी लेकर फेसबुक पर सक्रिय पाई जाती हैं। मैं नहीं चाहता कि इनकी इस हरकत का असर फर्म के अन्य एम्प्लॉई पर पड़े। इनकी सेवाएं तत्काल प्रभाव से समाप्त की जा रही हैं।'
'तभी कहता हूं एक भी काम सही से नहीं होता तुमसे। क्या जरूरत थी इसकी...' पतिदेव का तंज मेरे रोष को और बढ़ा गया। बहुत मुश्किल से हाथ आई जॉब मेरे सपनों को किरच-किरच तोड़ रही थी और मेरा अस्तित्व प्रश्नचिन्ह के घेरे में था।

सज़ायाफ़्ता स्त्री

स्त्री हूँ मैं
स्वाभिमान की पराकाष्ठा तक जाती हूँ,
प्रेम करती हूँ वो भी प्रगाढ़
खुद को मारकर
तुम्हें अपने अंदर जीती हूँ,
मेरी देह का स्वाद इतना भी सस्ता नहीं
कि जब जरूरत हो तब याद आऊँ
शेष पल प्रेमहीन जियूँ,
क्यों मिल रही है मुझे
ये धिक्कार, वेदना और तड़प
.......…..…..………
वर्जित था अति प्रेम
इस खोखले पुरुष समाज में,
झुक जाता है उनका पुरुषत्व
प्रेम का मान देने में
...शायद तभी मैं बन गई हूँ
एक सज़ायाफ़्ता स्त्री...

स्वीकृति

बदन दर्द से तप रहा है और बुखार है कि उतरने का नाम नहीं ले रहा। उठने से मजबूर हूँ डॉक्टर के यहाँ तक भी नहीं जा सकती। इतनी गर्मी में भी खुद को कम्बल में लपेट रखा है। विजय दरवाजा खटखटाए बगैर अंदर दाखिल हो गए। मैंने कम्बल को और करीने से बदन से चिपका लिया। बहुत उम्मीद थी कि एक बार पलट कर हाल तो पूछेंगे ही। चेहरे के किनारे एक हल्की सी मुस्कान बिखेरते हुए बोले,
'सुधा सर दर्द से फटा जा रहा है। चाय की तलब लगी है।'
'मग़र मुझे...'
'ये अगर-मगर छोड़ो बस एक प्याली पिला दो। तुम तो जानती हो न तुम्हारे हाथ की चाय मेरी कमजोरी है।'
मैं चाय के पैन में उबलते हुए पानी को देख रही हूँ साथ ही ये भी सोच रही हूँ कि एक स्त्री का परम सुख तो बस उसके पुरुष की आँखों में पढ़ने वाली स्वीकृति में है।

नारीत्व मेरा अहम है

कभी सिर उठाने की कोशिश करती
तो ये कहकर रोक दिया जाता
लड़की हो तुम
चार लोग देखेंगे तो क्या कहेंगे
फिर भी बेहया समाज से
मुझ अकेले को ही लड़ना पड़ता,
अब मैं बड़ी हो गयी हूँ
मेरे अंदर भी आठ लोग बोलते हैं
भेज दी उस कोमला की मृत देह
उन चार लोगों के काँधों पर
अब मैं काया विहीन
जुल्म के ख़िलाफ़ तांडव करती
एक आत्मा भर हूँ
मेरे नारीत्व को
चुनौती देने की भूल मत करना
यही तो मेरा अहम है,
गर साधारण औरत समझो मुझे
तो ये तुम्हारा वहम है।

बराबरी का समीकरण

हर वर्ष
'महिला दिवस'
मनाया जाता है
कहीं ये सोचकर
पुरुष अपनी कॉलर
ऊंची तो नहीं करते
कि साल के 364 दिन
तो उनके ही हैं,
आगे से एक दिन
'पुरुष दिवस'
भी होना चाहिए
ताकि
बराबरी का समीकरण
बना रहे।

हाँ, मैं कुरूप हूँ....

unattractive dorky girl with glasses and pimples
SHUTTERSTOCK IMAGE

नहीं हूँ
मैं औरों के जैसी;
बस अपने जैसी
थोड़ी सी अलग हूँ,
नहीं फर्क पड़ता
कि मैं किसी दिखूँ,
पर बहुत फर्क पड़ता है
कि कैसे महसूस करते हो मुझे,
मेरे अंदर बहुत सी
साँसें सुलगती हैं
आहत करता है
तुम सबका दर्द
मुझे अपने दर्द से ज़्यादा,
भींच लेना चाहती हूँ
तुम्हें अपने सीने में
एक बच्चे की तरह
जब तुम्हें मेरी जरूरत होती है,
नहीं ढूंढती मैं तुम्हारा हाथ
अपनी जरूरतों के वक़्त
पर मेरी हथेली उठ ही जाती है
तुम्हारे माथे की सिलवटों पर
छुपा लेना चाहती हूँ
तुम्हें
अपने अहसास की छांव में
क्या फर्क पड़ता
किसी के आंकलन का मुझ पर
उनके बोलने से पहले कहती हूँ,
हाँ, मैं कुरूप हूँ
पर जीवन्त हूँ।

क्या यही इंसाफ है?

"जज साहब, मैंने इस आदमी को मारा है। मुझे सजा दीजिये। प्लीज जज साहब...." कहते-कहते निर्मला की चीखें पूरे कोर्ट में गूंज गयीं थीं। हर कोई यही जानना चाहता था कि कटघरे में खड़ी ये औरत खुद के लिए सजा क्यों चाहती है जबकि इसका पति भी इसे निर्दोष कह रहा है। सारे सुबूत निर्मला के पक्ष में थे वो कहीं से भी अपने श्वसुर की हत्या जैसे जधन्य अपराध की दोषी नहीं दिख रही थी। जज साहब चाहकर भी फ़ैसला नहीं सुना पा रहे थे। निर्मला की घिग्गी के साथ ही सारा माहौल शांत था। हर आंख में ढेरों सवाल थे। वहीं एक ओर निर्मला का पति शांत खड़ा हुआ था।
जज साहब ने 2 घंटे के लिए कोर्ट को बर्खास्त कर दिया ताकि वो पूरा मामला समझ सकें।
थोड़ी ही देर में एक अर्दली ने निर्मला को जज साहब से मिलने का फरमान सुनाया। ये जज साहब की ज़िंदगी का पहला ऐसा केस था जिसमें गुनाह चीख़ रहा था कि निर्दोष को बरी किया जाए पर निर्दोष खुद को सलाखों के पीछे ले जाना चाहता था।
"निर्मला जी, देखिये मैं आपको व्यक्तिगत रूप से नहीं जानता पर ये जानना चाहता हूँ कि आप खुद को दोषी क्यों मानती हैं? अगर बता सकने लायक हो तो मुझे बताइये शायद मैं कुछ मदद कर सकूँ?" निर्मला जज के सामने सर झुकाये खड़ी थी जज का सवाल सुनते ही फफक पड़ी।
"जज साहब, मैं इस आदमी के साथ नहीं रहना चाहती। मेरा इस दुनिया में कोई और नहीं है। रही बात छविनाथ की तो उसको मैं ज़िंदा छोड़ने वाली नहीं थी। मैं हंसिया से उसकी गर्दन उड़ा देती मगर वो छज्जे के किनारे आकर कूदकर मर गया। ये आदमी जिसे आप लोग मेरा पति कहते हो ये जहरीला नाग है। ब्याह के बाद से ही इसने अपनी पत्नी बाप को सौंप दी। खुद नशा पीकर धुत रहता, बाहर की औरतों के साथ अय्याशी करता। मैं इसके बाप की हवस का शिकार बनती। कुछ बोलती तो खाल उधेड़ देता।  ऐसी ही मौत मरना था इसे। जज साहब मुझे उम्र क़ैद की सजा दो। अगर आज़ाद हुई तो...." निर्मला जज साहब के पैरों में लिपट गयी।
निर्मला को एक ओर लगभग धकेलते हुए खिड़की तक चले गए। शून्य में इस कदर खो गए कि ज़िन्दगी निर्वात लगी उस पल।
उन्हें तो फैसला गवाहों और सुबूतों के आधार पर करना था। अदालत मानवीय संवेदना को नहीं मानती न ही इन पर आधारित निर्णय लेती है।

क्या संभव है?

आओ एक कहानी लिखें 
जिसमें स्त्री पुरुष हो 

और 
पुरुष … स्त्री,
क्या संभव है 
एक पुरुष के लिए 
स्त्री बनना?
आज सोचा 

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तो समझ आया 
स्त्री बहुत महान है,
वो हर साँचे में ढल जाती है,
हर किरदार में 
समा जाती है
और पुरुष 
वो तो स्त्री से जन्मा,
समा लेती है                  
स्त्री 
उसे अपने अंदर 
तन से,
मन से,
अर्पण से,
फिर भी 
पुरुष दम्भी 
और 
स्त्री कुंठित क्यों???



फीलिंग्स का गूगल सर्च

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वो सहमा-सहमा सा था मेरे भीतर 

और मैं इठलाई सी
यूँ लगे कि
सारे जहां की
रौनकें मुझपे छायी सी,
एक ऊर्जा सी थी
मेरे अंदर दिव्यता समाने की
मैं माँ बनने जा रही
ये तो सच ही था
पर मैं क्या खोने जा रही
ये अलग सा प्रश्न था अंदर,
जब मैं बहुत प्रेम में थी
मेरे अंदर का मैं
खो दिया था मैंने,
आज जब प्रेम का अंकुर 
प्रस्फुटित हुआ
मैं अपने मन का बच्चा
खोने जा रही
क्योंकि अब तुम
खसखस के बीज वाले आकार से
तिल के बीज वाले आकार में
रूपांतरित हो चुके हो,
तुम्हारे चेहरे के कुछ हिस्से उभरे होंगे
65 की रफ्तार से धड़कने वाले
दिल की नली भी,
तंत्रिका-नली भी तो बन गयी होगी;
पाचन-तंत्र और संवेदी-तन्त्र
भी बनने लगे होंगे,
उपास्थि आ गयी होगी,
बड़ा सा दिखता है सर अभी,
बहुत से सवाल आते हैं मन में,
सामान्य हो जाती हूँ 
जब इनका तसल्ली भरा हाथ
मेरी हथेली को गर्माहट देता है;
गूगल बताता है मुझे
तुम्हारी लम्बाई इंचों में
और वज़न ग्राम में,
पहले सेमेस्टर के आखिर में
तुम अपने पूरे वजूद में हो,
तुम्हारी मुट्ठी खुलती है, बन्द होती है
मगर गर्भ की दीवारों पर 
नाखूनों के निशान नहीं आते
मेरा समूचा अस्तित्व सिमट गया तुझमें
और तुम मेरे अहसास में ज़र्रा-ज़र्रा।

मेरी पहली पुस्तक

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