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गुनाहों का देवता: एक मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण

 










"गुनाहों का देवता" में चंदर एक जटिल और विरोधाभासी चरित्र है, जिसका मनोवैज्ञानिक विश्लेषण यह बताता है कि उसका अनाथ होना उसके व्यक्तित्व पर गहरा प्रभाव डालता है. इससे उसे सुरक्षा और प्यार की कमी महसूस होती है, और वह दूसरों पर निर्भरता से बचने की कोशिश करता है. डॉ. शुक्ला चंदर के लिए एक पिता तुल्य व्यक्ति हैं, जिनका मार्गदर्शन और स्नेह चंदर के जीवन को आकार देता है. चंदर सुधा से गहराई से प्रेम करता है, लेकिन अपने आदर्शों और डॉ. शुक्ला के प्रति कृतज्ञता के कारण अपने प्रेम का इज़हार नहीं कर पाता. चंदर में आत्म-बलिदान की भावना कूट-कूट कर भरी है. वह सुधा की खुशी के लिए खुद को कुर्बान करने को तैयार रहता है. चंदर नैतिक द्वंद्व से जूझता रहता है. वह अपने आदर्शों और भावनाओं के बीच फंसा रहता है. इस क़दर उलझता है कि उससे गलतियाँ होती हैं. चंदर एक अंतर्मुखी व्यक्ति है, जो अपनी भावनाओं को व्यक्त करने में संकोच करता है. चंदर एक आदर्शवादी व्यक्ति है, जो जीवन में उच्च नैतिक मूल्यों को महत्व देता है. चंदर के मन में असुरक्षा की भावना भी है, जो उसके अनाथ होने और सुधा को खोने के डर से उपजी है.


चंदर का चरित्र मनोवैज्ञानिक रूप से समृद्ध है, जो पाठकों को उसकी आंतरिक संघर्षों और भावनाओं से जोड़ता है. उसका चरित्र प्रेम, त्याग, और नैतिक द्वंद्व जैसी मानवीय भावनाओं का एक जटिल चित्रण प्रस्तुत करता है. भारती जी ने इस किरदार के साथ बहुत इंसाफ किया. एक अच्छे व्यक्तित्व का धनी दिखाया. मगर यही पूरी कहानी भर चलता तो कहानी का नाम “गुनाहों का देवता” क्यों होता? क्या बेहतरीन नक्काशी उकेरी मनोविज्ञान की, एक आदर्शवादी युवक की अति नैतिकता ही उसके भीतर कुंठा का कारण बन गयी. वह गलतियों पर गलतियाँ करने लगा.


भारती जी ने समय के सापेक्ष एक अजर अमर साहित्य रचा है. उन्होंने चंदर को महानायक बनाकर नहीं प्रस्तुत किया वरन सामान्य दिखाने का प्रयास किया. हम जिस माहौल में रहते हैं वहाँ अति आदर्श का क्या हश्र होता है…जरा सा मानसिक असंतुलन होने पर भयंकर कुंठा के रुप में किस तरह निकलता है, यह सब दिखाता है यह किरदार. मध्याह्न के पहले से बाद तक कहानी बिल्कुल ही बदल जाती है. 


अभिलाषा

मैं वीगन क्यों हूँ

 "वह दिन कभी तो आयेगा. मनुष्य कभी तो सभ्य होगा. मेरा पूरा जीवन उसी दिन का लंबा इंतजार है..."


सुशोभित जी की यह पुस्तक शब्दों में न लिखी होकर भाव में ढ़ली है. लेखक के मन की व्यथा, सब कुछ सही न कर पा सकने की ग्लानि, करुण पुकार बनकर उभरती है. पशुओं के लिए एक पुकार है तो पढ़ने वालों के लिए पुरस्कार.


पुस्तक को छः भागों में बाँटा गया है. “पाश में पशु” इस व्यथा को चित्रित करती है कि सच को नजरअंदाज कर एनिमल फार्मिंग को सोशल एक्सेपटेंस कैसे मिलती रही है. क़त्लखानों की बर्बरता लिखते हुए लेखक भावुक हो उठता है, “मैं नहीं चाहता कल्वीनो की फ़ंतासी की तरह पशु मनुष्यों को शहरों से बाहर खदेड़ दे…मैं चाहता हूँ कि काफ़्का की तरह हम उन अभिशप्त कल्पनाओं के भीतर पैठ बनायें जो सामूहिक अवचेतन का हिस्सा है…”. वीगन होना कोई ट्रेंड नहीं बल्कि हमारी नैतिक जिम्मेदारी है. दूध के लिए दुधारू पशुओं को दी जाने वाली यातनाएँ और जो दूध नहीं देते उन्हें वेस्ट प्रोडक्ट की तरह कसाई खाने में भेज दिए जाने के विरोध में स्वर तो उठने ही चाहिए. तथ्यों को वैज्ञानिक आधारों पर पुष्ट करते हुए हर एक बात इस तरह से कही गयी है कि आप उसे समझ सकें और जाँच सकें. वैश्विक स्तर पर किन-किन लेखकों ने यहाँ तक कि अभिनेताओं ने पशुओं पर हो रहे अत्याचार को कलमबद्ध एवं भावबद्ध किया है, इस भाग में आप पढ़ सकते हैं. 


“कितने कुतर्क” के अंतर्गत नौ कुतर्कों का बिंदुवार बहुत ही सहज माध्यम से उत्तर दिया गया है. न केवल प्रबुद्ध पाठक वर्ग बल्कि बच्चे-बच्चे को समझ में आ जायेगा. जैविकी में प्राणियों के विभाजन में लेखक ने एक सूक्ष्म जानकारी रखी है जो कि बहुत लोगों को ज्ञात नहीं होगी कि हम मनुष्य भी एनिमल किंगडम का ही हिस्सा है. ‘सब शाकाहारी हो जायेंगे तो खायेंगे क्या’ के अंतर्गत लेखक ने आँकड़ों के साथ एक बहुत दमदार बात प्रस्तुत की है कि आज जितनी कैलरी फार्म एनिमल्स को खिलायी जा रही है उसके बदले में बहुत थोड़ा ही प्रतिशत मांस के रूप में प्राप्त होता है. स्वच्छ जल का एक तिहाई हिस्सा एनिमल फार्मिंग पर व्यय किया जा रहा है. वगैरा-वगैरा…धार्मिक आस्था की बात हो अथवा भौगोलिक परिस्थितियों के आधार पर लेखक ने बहुत ही शालीन ढंग से अपने तर्क रखे हैं. भ्राँतियों की काट निकाली है.


भ्राँति- पुस्तक “माँसाहार बनाम शाकाहार” है

तथ्य- यह बहस “जीवहत्या बनाम जीवदया” है


“जीवदया का धर्म” सात अध्याय में संकलित है. इसमें विभिन्न धर्मों में जीव दया के बारे में बताया गया है. कथाओं के माध्यम से उदाहरण भी प्रस्तुत है. पशु बलि पर भी प्रश्न चिन्ह लगाया है.


पुस्तक का मस्तिष्क “भारत में मांसाहार” पुनः सात अध्यायों में नीतियों का एक कच्चा चिट्ठा है. ब्योरेवार एक-एक बात बतायी गयी है. पशुओं को कमोडिटी कहने पर एक आपत्ति दर्ज है.


अगले आठ अध्यायों का संकलन अगले भाग “पक्षियों की नींद” के अंतर्गत है. इस भाग की हर बात को अपना स्नेह दूँगी. यह पुस्तक का दिल है. लेखक ने पक्षियों-पशुओं के जीवन के सच इतने मर्म से उकेरे हैं कि एक समानुभूति की मिठास हर शब्द से आती है चाहे वह सी एनिमल्स हों, रेप्टाइल्स हों अथवा चौपाये. सोन चिड़िया के गिरने और उसकी पहचान करने से एक मुस्लिम परिवार का लड़का सलीम अली किस तरह पक्षी शास्त्री हो गया, यह इसमें बताया गया है और हाँ मुस्लिम शब्द इस पूरी पुस्तक में मात्र यहीं पर आया है.


पुस्तक का अंतिम भाग “पशुओं का जीवन” जिसमें डोमेस्टिक एनिमल्स, जूनोटिक बीमारियाँ और क़त्ल के नैतिक पहलुओं पर बात के साथ पशुओं के जीवन उनके चेतना और साथ ही काफ़्का की ग्लानि पर भी एक अध्याय है जिसने उन्हें वीगन बनने को प्रेरित किया.


“आख़िरी पन्ना” जो कि मैंने सबसे पहले पढ़ा. इस पन्ने का एक-एक शब्द अपील करता है. हमारी चेतना को सुदृढ़ करता है. हमें पशुओं के क़रीब लाता है.


चेतना के इस स्तर तक पहुँचने के लिए अवश्य पढ़ें. 


मैं वीगन क्यों हूँ

(पशुओं के लिए एक पुकार)


लेखक- सुशोभित

हिन्द युग्म प्रकाशन

प्रथम संस्करण २०२४



प्रियंवदा के लिए दो शब्द

 


प्रकृति, प्रेम, प्रियंवदा और प्रियम, लगते हैं न सभी एक-दूसरे के पूरक. यक़ीनन हैं भी. ख़ुशगवार रहा ये वक़्त कि एक और पुस्तक मुझे उपहार में मिली. शब्दों से इतना गहरा है लेखिका का प्रेम कि शब्द-शब्द दिल में उतरती हैं इनकी बातें. कविताओं में एक सुंदर और प्रेमिल संसार रच दिया है.


इसके पहले पन्ने ने ही मुझे प्रभावित किया जहाँ लेखिका ने अधिक भूमिका न बाँधते हुए बस इतना ही प्रभावशाली ढंग से कहा है कि वो बिखरे हुए मोतियों को पुनः सजाने का प्रयत्न कर रही हैं. अनुक्रमणिका से ही स्पष्ट है कि आधुनिक गद्य से सजी इन कविताओं का वैशिष्ट्य प्रेम है. 


पुस्तक का पहला खंड मनभावन प्रेम को समर्पित है. नायिका के अधिकांशतः एकल संवाद गहनता को दिखाते हैं. कभी-कभी सोच की उत्कंठा इस तरह बढ़ जाती है कि सारे प्रश्नों के उत्तर स्वतः ही झरने लगते हैं…

"मगर यही सोच/ मेरी उत्सुकता को/ मेरे भीतर ही थाम लेती है/ कि जो आंनद उत्सुक फुहार में है/ वो प्रश्नों के तीव्र बौछार में कहाँ?..."


जहाँ एक ओर प्रेम में प्रतीक्षा की निष्ठुरता है वहीं दूसरी ओर आगमन का पुलक सहजता मन भी है. "प्रेमागमन" एक ऐसी ही अभिव्यक्ति है. आसमानी स्वंयम्बर से एकाएक नायिका भू लोक पर आ जाती है और उनकी तलाश होती है अपने प्रेमी के लिए उपहार पर मन का दिव्य प्रेम इसे तुच्छ मानकर विस्मृत करना चाहता है. गीतों से शृंगार और समुद्र की प्रेयसी बनने जैसे भावों में अतिशयोक्ति का प्रयोग हुआ है. 

"मैं बन लहर/ आसमां पहन/ समुद्र की मैं प्रेयसी/ बादलों से उतर आयी हूँ…"


अगला खण्ड "तुम्हें प्रेम करने की मेरी चाह" पूर्ण रुप से उन प्रतिमानों को समर्पित है नायिका जिन प्रतिबिंबों में स्वयं को रखकर अपने प्रिय के पास पहुँच जाना चाहती है. पत्र के माध्यम से तो कभी पक्षी बनकर, कभी नदी की भाँति अगाध हो ईर्ष्या रुपी ज्वालामुखी उसमें बहाकर तो कभी तीव्र कल्पनाओं के माध्यम से. मकड़जाल रुपी नायिका का हृदय भी इससे अछूता नहीं. अंतिम दो कविताएँ जिनमें प्रिय की खोज और विश्वास वर्णित है, खण्ड की सुंदरता बढ़ाते हैं.


अगले पड़ाव "अलविदा प्रेम" के अंतर्गत इस सच को उकेरा है कि जब जीवन में प्रेम शेष न हो तो कठिन है प्रेम कविताएँ लिखना. उदास मन की तुलना कभी रेलगाड़ी से तो कभी सावन मनाकर पीहर से लौटती नवविवाहिता से की गयी. विदा प्रेम की गहन पीड़ा झलकती है इन शब्दों में…

"किसी भाषा में/ किसी बोली में/ किसी पुस्तकालय/ या शब्दकोश में/ नहीं मिल रहा/ वह शब्द./

जो/ आशाओं के/ पुनः सृजन में/ असमर्थता से/उतपन्न पीड़ा को/ व्यक्त कर सके."


"उदास प्रेमिकाओं" का मार्मिक चित्रण किया है अगले भाग में. नायिका भली भांति जानती है कि वो भले ही अहल्या हो ले पर राम नहीं आने वाले. किसी के आने और जाने के बीच की स्थिति में कितना कठिन है सामंजस्य बिठाना. छोटी-छोटी बातों को सहेज लेने से आसान हो सकता था जीना. कैसे कम होगा दुःख जब "दुःख ही एकमात्र सत्य है". प्रेम देखने की अभ्यस्त आँखें कहाँ पाती हैं ठौर, भले ही विलीन हो जाएँ स्मृतियों में.


अगला भाग समर्पित है कभी शुष्क, कभी जल बनी "नदी एवं स्त्री" को. आदिकाल से नदी की तुलना स्त्री से की गयी है. कहीं नदी का सागर में विलीन होकर मृत हो जाना है तो कहीं संभावना है जीवन मृत सागर से अंगड़ाई ले. उपेक्षा में विलीन चेहरा भी है. लूणी का संघर्ष इस भाग का उर है.

"तब लौट आयी होगी/ खंडित हृदया चुपचाप/ मन में कुछ विचारते/ सँजोते हुए प्रेम पर विश्वास."


अंत में आते हैं इस पुस्तक के "प्रिय तुम मेरी प्रतीक्षा करने के साथ". सभी कविताएँ सुंदर बन पड़ी हैं. कविता के माध्यम से लेखिका ने उजागर किया है प्रेम के लिए अपना दर्द, जब प्रेम को हृदय में सींचते हुए प्रथा, परम्परा, मान्यता, आडम्बर और सीमाएँ बाधक बनती हैं. जिनसे पार जाकर नायिका प्रेम जीना चाहती है.

पुस्तक में इससे इतर कुछ कमियाँ भी दृष्टिगोचर होती हैं. प्रूफ़ रीडिंग का अभाव तो कहीं-कहीं पर उपयुक्त फॉन्ट का चुनाव न होना अखरता है.


उपरोक्त पुस्तक की लेखिका नेहा मिश्रा "प्रियम" का यह प्रथम काव्य संग्रह है. संग्रह का मूल्य १४९/- रुपये मात्र है.

लेखिका को साहित्यिक उज्ज्वल भविष्य हेतु अशेष शुभकामनाएँ! लेखक मित्र माननीय अनूप कमल अग्रवाल "आग" जी की प्रेरणा से एक और पुस्तक की समीक्षा.


पुस्तक के लिए लिंक…


https://www.amazon.in/dp/1638869111/ref=cm_sw_r_wa_awdb_imm_967FS6ZQCYDX4HRGSWE7


"खरी-खोटी" पुस्तक के लिए


नयी-नयी पुस्तकों की प्रतीक्षा करना मेरे लिए कुछ ऐसा है जैसे मानसून की बारिश की प्रतीक्षा. इसी कड़ी में एक बार पुनः प्रतीक्षा को विराम लगा पुस्तक "खरी-खोटी" प्राप्त करने के साथ. इसे पूरा पढ़ने के साथ ही ये मेरे जीवन का दूसरा ऐसा 'व्यंग्य संग्रह' बन गया जिसे मैंने पूरा पढ़ा. 


लघुकथा, मिनी कथा, कहानी और लम्बी कहानी इन चार विधाओं से सुसज्जित हैं व्यंग्य, सामाजिक व्यंग्य और पारलौकिक व्यंग्य. जैसा कि नाम से स्पष्ट है पारलौकिक तो इसे पढ़कर नाम के अनुरुप ही आनन्द आता है. पृष्ठ संख्या ५ से प्र० सं० ३८ तक आपको कैलाश पर्वत, क्षीर सागर, ब्रह्म लोक के दर्शन होंगे और इस पावन कार्य में गाइड नारद आपका साथ देंगे. इनमें विवाह, वाहन और सुख के प्रसंग ऐसे हैं जो अमिट छाप छोड़ते हैं मस्तिष्क पर. यदि पूरा पढ़ लिया आपने तो दिमाग लगाने की आवश्यकता नहीं कि कौन सा वाहन किसका. पढ़ते ही ये भ्रम भी मिट जाता है कि हम पृथ्वी वासी ही दुःखी नहीं अपितु किसी प्रभु के पास भी कोई सुख नहीं.

सामाजिक व्यंग्य में पहला व्यंग्य "ब-दस्तूर" मानव बनाने की प्रक्रिया समझाने के साथ प्रारम्भ हुआ कि किस तरह सभी आकार, रंग एवं रुप के मानवों को गढ़ा गया. पूरा पढ़ते हुए एक मुस्कान तिरछे होंठों पर पसरी ही रहती है. "वीज़ा-पासपोर्ट" के माध्यम से आम लोगों को होने वाली परेशानियों और मिलने वाली सुविधाओं पर कटाक्ष है. आगे बढ़ते हुए "अंत भला तो सब भला" सामाजिक विसंगतियों पर प्रहार है. गाँधी जी की यात्रा और माया का ठग ब्रह्मांड अत्यंत रोचकता समेटे हैं. "बिकाऊ" के माध्यम से स्त्री की वस्तु-स्थिति को परोसा है. कुल मिलाकर १६ सामाजिक-व्यंग्यों के जरिए समाज के प्रत्येक कोने पर प्रहार करने के प्रयास में लेखक सफ़ल दिखाई पड़ते हैं. 

पृष्ठ संख्या ७७ से ८६ तक लिखे हुए सभी व्यंग्य एक से बढ़कर एक हैं. "निरामिष-सामिष" हमारे उपभोक्ता वाद पर चांटा है कि हमें पौष्टिकता के नाम पर क्या मिल रहा! "धान बोना" मुहावरे को पूर्णतया सार्थक करता है. "दिल का मसला" और "हार्ट रिपेयरिंग सेंटर" के माध्यम से आधुनिक समय के लव, लव ट्राइएंगल और विवाहेत्तर सम्बन्धों की एक झलक मिलती है. "हॉट पैंट" उन विद्यार्थियों के लिए है जो हिंदी माध्यम से पढ़कर अँग्रेजी के छात्रों के मध्य पहुँच जाते हैं और इसका खामियाजा शर्मिंदगी के रुप में उठाना पड़ जाता है. "समीक्षा" के लिए कुछ भी कहना सही नहीं होगा.

कुल मिलाकर लेखक ने अधिकांश विषयों को समाविष्ट करने की चेष्टा की है. जहाँ ये विषय हास्य के साथ रोचकता परोसते हैं वहीं ज्ञान वर्द्धन भी करते हैं. पुस्तक त्रुटि रहित है. शब्दों की सघनता एकाग्रता के साथ पढ़ने से मन को थोड़ा भटकाती है. कहीं-कहीं चलन वाले शब्दों का प्रयोग अखरता है.


उपरोक्त संग्रह माननीय अमरनाथ जी ने लिखा है. इसके पहले भी आपके छः संग्रह (दो खण्ड-काव्य, दो कहानी-संग्रह, एक भजन-संग्रह एवम एक द्विपदी व्यंग्य-संग्रह) प्रकाशित हो चुके हैं. लगभग २० से अधिक संग्रह में सहयोगी रचनाकार की भूमिका निभायी. इसके अतिरिक्त अनेक पत्र-पत्रिकाओं में स्वतंत्र सम्पादन अथवा सम्पादन कार्य किया. आने वाले समय में प्रकाशन हेतु अनेकों मोती कलम से निकलने को आतुर हैं. पुस्तक का प्रकाशन 'अभियान' अभियंता साहित्यकार एवं सांस्कृतिक संस्थान, लखनऊ से हुआ. पुस्तक का मूल्य एक सौ रुपये मात्र है.


माननीय लेखक महोदय एवं मित्र माननीय अनूप कमल अग्रवाल "आग" जी को पुस्तक प्रेषित करने हेतु अशेषाभार! आपके उज्ज्वल भविष्य के लिए कामनारत!


शुभाकांक्षी

 

मेरी पहली पुस्तक

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