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काश कि भूलना आसान होता!



बात उन दिनों की है जब हमारे लखनऊ में एफ० एम० (Frequency Modulation) रेडियो लॉन्च हुआ था. अगस्त माह, सन २०००...महीने का २०वाँ दिन और ऑल इंडिया रेडियो के एफ० एम० की फ्रीक्वेंसी सौ आशारिया सात से एक प्यारी सी मीठी दिलफ़रेब आवाज़ गुज़री. नाम पता चला...राशी वडालिया. जिस रेडियो का हम सब नाम तक न सुनना चाहते हों उस पर इतनी प्यारी और अपनेपन की आवाज़ सुनकर कौन न फ़िदा हो जाए! अगले दिन से एफ० एम० हमारी जीवन शैली का हिस्सा बन गया. शुरुआती दिनों में प्रसारण सुबह ४ घण्टे और शाम के ४ घण्टे हुआ करता था. एंकर के नाम उँगलियों पर गिने जा सकते हैं… अनुपम पाठक जी, प्रतुल जोशी जी, कमल जी, मीनू खरे जी, रमा अरुण त्रिवेदी जी. इन्हीं लोगों के जिम्मे पूरा समय रहता था. सभी में वो कुव्वत थी कि हम लोगों को रेडियो के इर्दगिर्द बाँधकर रखते थे. यहाँ तक कि नहाना खाना भी रेडियो के साथ.


रात आठ बजे एक कार्यक्रम आता था "हेलो एफ० एम०". उसके सूत्रधार हुआ करते थे राजीव सक्सेना जी. मात्र एक घण्टे का कार्यक्रम और वो समय राजीव जी अपनी पुरकशिश आवाज़ से कैसे उड़ाते थे कि पता ही न चले. पहली बार सुनते ही वो दीवानापन तारी हुआ जैसे यही जीवन है. आवाज़ तो थी ही पर राजीव जी की हाज़िर जवाबी हर किसी का दिल जीत लेती थी. हम सभी के लिए एक नम्बर होता था कि फोन लगाकर बात कर सकें और अपनी पसंद का गीत भी सुन लें. ख़ैर गीत की किसे पड़ी थी सब तो राजीव जी से बात करने को उतावले रहते थे. मेरा फ़ोन एक बार भी न लगा. उन दिनों लैंड लाइन से फ़ोन मिलाना भी मेहनत का काम होता था. लोगों के साथ हुई उनकी बातचीत के आधार पर इतना पता चल सका कि राजीव जी दिल्ली से कुछ ही दिनों के लिए लखनऊ आए हैं और वो "कुछ दिन" मात्र ६० दिन थे. हममें से किसी को यह बात रास नहीं आ रही थी क्योंकि हमारे लिए एफ़० एम० बोले तो राजीव जी थे. कुछ लोग तो बात करते ही बहुत इमोशनल हो जाया करते थे. फिर वो अवांछित दिन भी आ गया जब राजीव जी हम सबको अपने प्यार में महरुम छोड़कर अपनी दिल्ली वापस चले गए, हाँ हम सभी के प्यार के बदले एक वादा जरुर दे गए…*समय होते ही लखनऊ आता रहूँगा और जब भी लखनऊ में हुआ आप सभी के लिए माइक जरुर पकडूँगा*... इस वादे से भी दुःख का वो हिस्सा कहाँ कम होना था!


जीवन तब भी नहीं रुकता है जब कुछ भी न हो, सब कुछ चलता रहा. हेलो एफ़० एम० की कमान अनुपम पाठक जी की मख़मली आवाज़ के हाथों में थी.


कुछ दिनों बाद अचानक राजीव जी की आवाज़ ऑन एयर आयी और वो भी हेलो एफ़० एम० में. बहुत कोशिश के बाद भी फ़ोन न लग सका. रात ९ बजकर ९ मिनट पर मैंने आकाशवाणी के स्टॉफ रुम में फ़ोन लगाकर उनसे आग्रह किया कि राजीव जी से बात करवा दें. दिल के एक अच्छे इंसान मिल गए. राजीव जी स्टूडियो छोड़कर निकलने वाले थे फिर भी मेरी बात करा दी. उनका तीन दिन का स्टे था. किसी ऑफिशियल काम के सिलसिले में. ख़ैर वो तीन भी चले गए बस इतनी सी तसल्ली देकर कि छोटी सी बात हो गयी थी.


फिर वही इंतज़ार… एक दिन बैठे ठाले यूँ ही ख़याल आया कि राजीव सक्सेना जी, (प्रोग्राम प्रोड्यूसर ए आई आर, दिल्ली) को एक चिट्ठी लिखी जाए. फिर क्या था...बस इतना ही पता था और यही बहुत था. अगले ही दिन चिट्ठी लिखकर भेज दी, ये गुनगुनाए बग़ैर… चिट्ठी लिखेंगे जवाब आएगा…उन दिनों मैं सिधौली में रहा करती थी. ठीक सातवें दिन शाम के पाँच बजे मेरे लैंड लाइन की घण्टी बजी. एस टी डी कॉल थी. मैंने फ़ोन कान से लगाकर हेलो बोला जवाब में उधर से जो *हेलो* गूँजा, मुझे यक़ीन ही न हुआ कि मेरे कान ये सुन रहे हैं.


मैं बड़े यक़ीन से बोली, *राजीव जी*


*हाँ मैं राजीव सक्सेना… कमाल है तुमने पहली ही बार में पहचान लिया ...अभिलाषा*


मेरे पास बोलने को जैसे कुछ भी नहीं रह गया था. ख़ुशी और आश्चर्य नसों में ऐसे दौड़ा कि खून ही गाढ़ा हो गया.


*सॉरी मैंने तुम्हें तुम बोला, बुरा तो नहीं लगा. अगर अभिलाषा बोलूँ तो कोई ऑब्जेक्शन तो नहीं?*


फ़िर किसी तरह हिम्मत जुटाकर टूटी-फूटी आवाज़ में मैंने अपना कृतज्ञता ज्ञापन सुनाया और थोड़ा-बहुत मन के भावों को भी जता सकी.


*अरे बाबा इतना भी क्या खुश होना, अब मैं तुम्हें फ़ोन करके परेशान करता रहूँगा. देखना एक दिन मन भर जाएगा*


*ऐसा कभी नहीं होगा. अच्छे लोगों से मन कब भरता है*


*ह्म्म्म अच्छे मित्रों से*


उस पहली ही बातचीत में राजीव जी ने मुझे अपना मित्र भी कह दिया. तबसे बातों का सिलसिला जैसे चल निकला. हर हफ़्ते फ़ोन आना तय था. अग़र मम्मी भी फ़ोन उठाती तो उनसे इतने ही अच्छे से बात करते. *माताजी* कहकर संबोधित किया करते थे मम्मी को. मैंने उनका मोबाइल नंबर ले तो लिया था पर मुझे मौक़ा ही नहीं देते थे इधर से मिलाने का. उन दिनों एस० टी० डी० कॉल्स महँगी हुआ करती थीं.


कुछ दिनों के बाद थोड़ा सा चक्र बदला और हमारी बातें रात ११ से १२ के बीच होतीं. दिल्ली ए० आई० आर० से एक प्रोग्राम आता था--ओल्ड इज गोल्ड-- अक्सर राजीव जी उसकी एंकरिंग करते थे. जितनी देर गीत बजता हम बात करते. इस तरह राजीव जी ने मेरी समस्या का समाधान किया. मेरी शिकायत होती थी कि दिल्ली को आप क्यों मिले!


बहुत अच्छा समय बीत रहा था वो भी. एक रात लगभग ११ बजे फ़ोन आया.


*हेलो अभिलाषा, डिनर हो गया...क्या खाया?*


*हाँ… और आपका…?*


*अभी नहीं. मैं तो खिचड़ी आर्डर की है, वही खाने जा रहा*


*ऑर्डर की मतलब बाहर हैं कहीं?*


*हाँ, मुम्बई के एक होटल में हूँ. बस दिल किया तुमसे बात करूँ*


*ऑर्डर किया...होटल में...वो भी खिचड़ी*


मेरी बात सुनकर वो बहुत देर तक हँसते रहे. फिर होटल में मिलने वाली खिचड़ी की जो-जो वैराइटी बतायीं उससे पहले मैंने नहीं सुनी थी. बस ऐसे ही थे राजीव जी...उनकी बातों में वो बात थी कि फोन घण्टो कान से लगाकर भी बोरियत न हो. बात करते रहे खिचड़ी ख़त्म और शुभ रात्रि का समय भी आ गया. इस तरह के जाने कितने घटनाक्रम आँखों से गुजरते रहते हैं.


२००० से २००७ कब आया पता ही नहीं चला. नवंबर २००७ में मैं लखनऊ शिफ़्ट हो गयी. सबसे पहले राजीव जी को फ़ोन करके बताया था कि अब अपना लखनऊ का टूर बनाइये.


दिसंबर २००७ की एक अलसायी दोपहर थी. मैं अवध हॉस्पिटल के ट्रैक्शन बेड पर लेटी हुई थी. मेहविश मिर्ज़ा, बला की ख़ूबसूरत लड़की, मेरी थेरेपिस्ट सामने बैठकर मेरी हौसला अफजाई कर रही थी. तभी मोबाइल की रिंग हुई. मैंने कॉल अटेंड की, पहले फॉर्मल बातचीत फिर एक अजीब सा प्रश्न राजीव जी की तरफ़ से आया…


*अभिलाषा ये बताओ तुम बहन जी टाइप कपड़े पहनती हो या फिर…?*


*ये बहन जी टाइप कपड़े क्या होते हैं?*


*तुम्हें पता है मैं क्या पूछ रहा*


*मैं कुछ भी पहनने को स्वतंत्र हूँ. पर आपके साथ लखनऊ तो बहन जी टाइप कपड़ों में ही घूमूंगी*


*अच्छा ये सब छोड़ो, एक गुड न्यूज़ है...बोलो तो अभी बताऊँ?*


*अरे जल्दी*


*टू थाउजेंड एट में अपनी इंडियन क्रिकेट टीम इंटरनेशनल मैच खेलने ग्रीन पार्क जाएगी. मैं भी ए आई आर की तरफ़ से रहूँगा, कवरेज के लिए*


*सचिन भी आएगा न?? मुझे मिलना है*


*मुझसे या सचिन से...सोचकर बताना*


फ़ोन कट गया पर मेरा दिल ज़ोर से धड़कने लगा. जाने क्या-क्या सोच गयी मैं…


"यार तुम तो छुपी रुस्तम निकली. ये किससे बातें कर रही थी?" मेहविश के सवाल ने मेरी चुटकी ली.


फिर मैंने राजीव जी के बारे में उनको बताया तो उन्होंने बस इतना ही कहा, "यार मैं तो तुम्हें इतने दिनों में जान ही नहीं पायी. मुझे नहीं लगा तुम्हारे ऐसे भी दोस्त होंगे. उस दिन के बाद से मेहविश का रुख मेरी ओर काफी परिवर्तित हुआ.


मैं अपने मन में ग्रीन पार्क के सपने बुन रही थी तभी राजीव जी का पहली अगस्त को फ़ोन आया.


*अभिलाषा, मैं चार अगस्त को दिल्ली छोड़ रहा हूँ. ८ से २४ अगस्त तक चाइना ओलम्पिक के लिए जाना है*


*अरे १८ को आपका बर्थडे है. मैं विश कैसे करुँगी?*


*मैं १८ को तुम्हें कॉल करूँगा. डोंट वरी...टेक केअर*


फ़ोन कट चुका था और शायद मेरी बातों का वो सिलसिला भी. नियति ने इस तरह जाना लिखा था कौन जानता था. वक़्त के क्रूर हाथों ने असमय ही राजीव जी को हम सबसे छीन लिया.


उस फ़ोन नंबर पर मेरे कानों ने आख़िरी बार बस यही शब्द सुने थे…*मैं संजीव, राजीव का भाई...अभिलाषा जी राजीव हम सबको छोड़कर चले गए. कल रात सोये थे सुबह उठे ही नहीं…* घिग्गी बंध गयी थी उनकी बोलते हुए और सुनते हुए मुझ पर क्या बीती...मेरे पास शब्द ही नहीं जिन्हें मैं वो दर्द पहना सकूँ.


नहीं रहे हम सबके राजीव जी...आज भी १८ अगस्त उनकी जन्मतिथि के दिन...बहुत याद आते हैं राजीव जी आप.

एंटी डिप्रेशन

कल एक उदास सी दोपहर में कुछ नहीं करने के इरादे से कुछ नहीं सोच रही थी मैं. जब कुछ नहीं करती हूँ तो घुप्प अंधेरी जगह पर बैठना पसंद करती हूँ. तभी फ़ोन की घण्टी बजी. मन न होते हुए भी उठाना पड़ा. इन दिनों जीने की ऐसी इच्छा जगी कि ख़ुद में एकाकीपन भर लिया ताक़ि मन को आवाज़ को समझ सकूँ. इनसे, उनसे, तुमसे...सब से दूर.
जैसे आत्मा है चार धाम
कर यात्रा जपें राम नाम.
"हेलो" जबरदस्ती की आवाज़ में बोल दिया.
"दीदी कुछ सुना तुमने?" उधर से हड़बड़ाई सी रुआंसी आवाज़ आई. मुझे पता था ये आगे क्या कहने वाली है क्योंकि सुशांत का दुःखद अंत कुछ देर पहले ही भाई ने बताया था. फ़िर भी मैंने अनजान बनते हुए कहा,
"मैं कैसे सुनूँगी...हुआ क्या?"
"वो सुशांत ने सुसाइड कर लिया…"
"कौन सुशांत?"
"अच्छा तुम टी वी नहीं देखती ना! वो धोनी में हीरो था"
"अच्छा"
"तुम्हें कोई अफ़सोस नहीं हो रहा क्या?"
"नहीं! मुझे सुसाइड करने वाले लोगों के साथ कोई सिम्पथी नहीं"
"क्यों किया होगा उसने ऐसा?"
"उसे ये नहीं पता होगा कि जहाँ सब कुछ ख़त्म हो जाता है शुरुआत वहीं से होती है"
"फ़िर भी क्या हुआ होगा...इतना बड़ा आदमी"
"डिप्रेशन...और शायद वो मन से बहुत छोटा था"
"आज मुझे तुम्हारी value समझ में आ रही है. कितने ही बार तुमने मुझे डिप्रेशन से बाहर निकाला है. मेरा भी सुसाइड करने का मन किया"
"अगली बार मन करे तो निकल लेना. मुझे पछतावा करने वाले बिल्कुल नहीं पसंद"
"अच्छा दीदी तुम्हें डिप्रेशन कभी नहीं हुआ या फ़िर सुसाइड करने का मन…?"
"तुम इमोशनली स्ट्रांग हो तो इस सच को स्वीकार कर रही हो...और मैं साइकोलॉजिकली स्ट्रांग हूँ अपना दर्द पी सकती हूँ पर लोगों के सामने हार कैसे मानूँ!"
"ऐसा क्या…?"
"हाँ अइसन बा" सैड पॉइंट से हैप्पी नोट तक आकर बात ख़त्म हो गई और अपने पीछे बहुत से सवाल छोड़ गई.
मुझे अंदर कुछ चोक होता सा लगा. खिड़की से बाहर देखा धूप बहुत थी...मुझे तुम याद आए. तुम्हारी किताब खोलकर बैठ गई पर यहाँ तो भीतर से भी ज़्यादा दर्द है. सच मुझे बहुत दर्द हो रहा था. पूरी रात मौसम के बदलते तेवर से लड़ती रही. आज 24 घण्टे बाद बहुत हिम्मत जुटाकर तुमसे आग्रह किया और तुमने उन्मुक्त होकर रंग बिखेर दिए शब्दों के. आज बहुत दिनों के बाद मेरा कमरा रोशनी से भर गया.
तुम्हें पता है एन्टी डिप्रेशन हो तुम मेरे.

अतीत के झरोखे से

यादों की डायरी में हर पन्ना एक अतीत बन जाता है। उनमें से कुछ तो हम अक्सर पलटते हैं और कुछ मात्र अवचेतन मन का हिस्सा बनकर रह जाते हैं। अक्सर याद करने वाले मेरे अपने प्रिय सितारों में एक नाम जो अमिट है इस सदी के हस्ताक्षर के रूप में वो है...व्यंग्यकार, डायलॉग राइटर, महान लेखक और बहुत अच्छे इंसान माननीय स्वर्गीय के. पी. सक्सेना जी का। आज चाचा जी (मैं उन्हें इसी सम्बोधन से बुलाती थी) का जन्मदिवस है, मैं उन्हें बधाई नहीं दे सकती पर हृदयतल से आभार प्रकट करती हूँ कि मुझे कुछ समय के लिए उनके सानिंध्य का अवसर मिला।
बात सितम्बर 2000 की है जब लखनऊ में एफ. एम. रेनबो का प्रसारण शुरू हुए एक महीना ही हुआ था। स्वर्गीय राजीव सक्सेना जी (इनका परिचय आगे पढ़ने को मिलेगा) और रमा अरुण त्रिवेदी जी ने चाचाजी का इंटरव्यू लिया था। उन दिनों चाचा जी लखनऊ से मुम्बई की खुशहाल उड़ानों में व्यस्त थे। आशुतोष गौरीकर की फ़िल्म 'लगान' के डायलाग लिखने का काम पूरा हो गया था और फ़िल्म प्रमोशन का सिलसिला जोरों पर था। इंटरव्यू सुनते ही मेरे मन में जोरों की इच्छा हुई बात करने की। मैंने तुरन्त पत्र लिखकर प्रेषित किया। ठीक अगले हफ्ते नीले रंग की स्याही से लिखा हुआ लाल रंग की सजावट वाला और मोती सरीखे अक्षरों में लिखा हुआ अपना नाम वाला पत्र देखकर मैंने गौरान्वित अनुभव किया। ढेर सारे आशीष के साथ उसमें एक फोन नं भी लिखा हुआ था। पत्र पढ़कर जितनी प्रसन्नता का अनुभव हुआ था बात करने के बाद उससे भी कहीं अधिक। पहली ही बार में इतनी सहजता से बात की। हर बात में बेटी का सम्बोधन, इवनिंग वॉक से तुरन्त ही लौटे थे। बोलने में हांफ रहे थे। मैंने बोला भी कि मैं बाद में बात करूँ पर जब तक मैंने खुद फोन नहीं रखा हर प्रश्न का बहुत तल्लीनता से उत्तर देते रहे। ये पहला मौका था इसके बाद तो अक्सर बात होती रहती थी। एक दिन बहुत खुश होकर बताया 'मैंने आमिर और रीना (आमिर खान की x-wife) के साथ हॉल में लगान देखी।' मुझे कुछ ईर्ष्या का अनुभव हुआ तो तपाक से बोले, 'परेशान मत हो मैं तुझे आमिर से मिलवा दूँगा। बहुत अच्छा लड़का है वो। मेरा बहुत सम्मान करता है....।'
अगर एक हफ्ते तक फोन न करूँ तो खुद ही खैरियत पूछते थे। मुझे चाचा जी की शक्ल और आवाज बहुत कुछ मेरे नानाजी जैसी लगती थी। मुझे आज भी चाचा जी के लिखे हुए व्यंग्य के धारदार चरित्र बहुत याद आते हैं। उनसे की हुई ढेर सारी बातें और लिखे हुए पत्र मेरे मानस पटल पर अंकित हैं। जब भी पत्रों को पलट कर देखती हूँ एक अपनेपन की महक से भर जाती हूँ कि सफलता के शिखर पर आरूढ़ होकर भी लेश-मात्र घमण्ड नहीं। लखनऊ से मुम्बई का सफर, विभिन्न आयोजनों में शिरकत, फ़िल्म का ऑस्कर तक का सफर तय करना जैसी व्यस्तताओं के बावजूद हर पत्र का त्वरित उत्तर देना, हर फोन कॉल का सम्मान करना ये एक बहुत बड़ी मिसाल है। हाँ कुछ समय के लिए संदीप जी की अस्वस्थता को लेकर विचलित अवश्य दिखे।
आप हमारे बीच नहीं है ये सच है पर ऐसा प्रतीत होता है कि ये किरदार आज भी सजीव है। चाचाजी आपकी लेखनी और सहृदयता को शत-शत नमन।

मेरी पहली पुस्तक

http://www.bookbazooka.com/book-store/badalte-rishto-ka-samikaran-by-roli-abhilasha.php