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तीन लघुकथाएँ

(१) प्रेम जो प्रेमिका को खाता है


उसके हाथों ने छत नहीं अचानक आसमान को छू लिया. नए-नए प्रेम का असर दिख गया. ढीठ मन सप्तम स्वर में गा दिया गोया दुनिया को जताना चाह रही हो कि अब तो उसका जहाँ, प्रेम की मखमली जमीन है बस क्योंकि प्रेम उरूज़ पर था.

फिर एक रोज चौखट पर रखा दिया अचानक बुझ गया और उसकी शाम कभी नहीं हुई. हवा के बादलों पर बैठकर वो आसमान कहाँ छू पाती? एक ख़्वाब ज़िंदा लाश बन गया उसके अंदर.



(२) प्रेम जो प्रेमी को खाता है


उसके कपड़ों की क्रीज़, परफ़्यूम की महक, हेयर कलर और गॉगल्स के पीछे मुस्कराता चेहरा आजकल सभी की निगाह में है. ग्रेजुएशन की पढ़ाई एक ओर हो गयी, अपाचे तो ख़ुद ब ख़ुद डिस्को, होटल और लांग ड्राइव के लिए मुड़ जाती है.

उस रोज बारिश ज़ोरों पर थी फिर भी अपाचे स्टार्ट कर वो वेट कर रहा था. लोमबर्गिनी से उतरती अपनी माशूका को देखकर उसकी आँखों का रंग अचानक बदल गया. अगले दिन शहर के अखबारों में सुर्खियां टहलती रहीं--ईर्ष्या की जलन किसी के चेहरे पर तेजाब बन बही.



(३) समाज जो प्रेम को खाता है


पहली बार दवा की एक दुकान पर दोनों मिले थे. एक को बीमार माँ तो दूसरे को बहन के लिए दवाई चाहिए थी. सूखा चेहरा, मैले कपड़े, अबोले से वो दो क़रीब आ गए. अब दवा के ग्राहक दो नहीं एक ही होता. कभी-कभी माँ और बहन की तीमारदारी भी एक ही कर लेता.

दर्द न बाँट सकने वाला समाज ही उनके ख़िलाफ़ खड़ा हो गया. समाज की आँखों में बेचारगी, लाचारी, जरूरत, स्नेह, मोह… कुछ न आया बस उनका लड़का और लड़की होना खटका. दो से जस तस एक हुए वो दोनों पहले अलग फिर सिफ़र हो गए. किसी का न होना इतना बुरा नहीं पर आकर चले जाना सच जानलेवा ही तो है.


विशेष- इस श्रंखला की तीन लघुकथा. इसे लिखने की प्रेरणा मुझे तेजस पूनिया जी की कहानी "शहर जो आदमी खाता है" को पढ़कर मिली.

है ईश अगर मन में तो ये क्या है..

मैं राम कहता हूँ
तो तलवार निकालते हो
मैं अल्लाह भजता हूँ
तो पत्थर मारते हो
मैं बाइबिल पढ़ता हूँ
तो सबक सिखाते हो,
क्या मजहब की परिभाषा
बस तुम्हीं जानते हो?
अरे मजहब कोई ब्रांड नहीं
कि अच्छा या खराब हो,
राम-रहीम सत्ता के कीड़े-मकोड़े नहीं
कि पाँच साल इनको पूजो
फिर वॉक आउट कर जाएं,
ये कोई प्रश्न काल में जागी सत्ता नहीं
कि महत्वहीन हों,
इनकी आवाज हममें और तुममें हैं
ये माइक लेकर नहीं बैठते
कि सामने वाले पर प्रहार कर सकें
और इनका कोई गलियारा भी नहीं
कि वहाँ निकलकर निर्वस्त्र करें
एक-दूसरे को,
ये तो एक आत्मा हैं
हमारे और तुम्हारे अंदर बसी
......
ताकि सच के रास्ते पर चलने का
साहस जुटा सकें,
ताकि प्रलय के दिन हम
नज़रें मिला सकें अपने आप से
उस वक़्त वो ये नहीं पूछेगा
कि मेरे नाम पर कितने लोगों को
जिबह किया?
उसकी आँखों में बस एक ही सवाल होगा
कितने चेहरे उम्मीद की रोशनी में
उजले हुए??
बाहर निकलो अपनी सोच के दलदल से
नज़र उठाकर देखो
मासूमों को,
मज़लूमों को,
शोषितों को,
ज़ुल्म सहने वालों को,
ज़मींदोज़ कर दो उन सबको
जो मानव नहीं,
काले कर दो चेहरे बलात्कारियों के,
अगर साहस है
तो छीन लो
पूंजीपतियों के गुदड़ो में भरा सोना-चांदी
बना दो उसे
गरीब के मुँह का निवाला,
जड़ दो नगीना
गरीब के आँसू का
अगर कर सकते हो तो करो
नहीं तो लानत भेजो खुद पर
क्योंकि जो तुम कर रहे हो
उससे तो अच्छा है
कि कुछ न कर पाने का दंश
तुम्हें निगल जाए
और फिर उगल दे बाहर
एनाकोंडा की तरह,
तड़पने को।

मेरी पहली पुस्तक

http://www.bookbazooka.com/book-store/badalte-rishto-ka-samikaran-by-roli-abhilasha.php