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मेरे बच्चे का स्कूल में पहला दिन

कोई कुछ भी कहता रहे
मग़र माँ तो बस माँ होती है,
नाराज हो कितनी या खुशी में हो 
बच्चों में तो बस उसकी जान होती है,
लोगों के कैसे सवालों से टकराती है
इतनी कमजोर क्यों है दिखती
नहीं ये बता पाती है,
चाहत है हमेशा रहें
उसकी पलकों की छांव में
जरा सी दूरी से मन ये तड़प जाता है
रोती रहती है मगर खुद को
न समझा पाती है,
रखके कलेजे पे पत्थर विदा कर ही देती
दिल की ममता न एक पल को 
भुला पाती है,
अभी कल की ही बात है
नन्ही सी उंगली थामी थी
बहुत भारी मन से गले से लगाकर
अच्छे-बुरे सारे सबक समझाकर
पहला अनुभव लेने को जमाने का
उन कदमों की हलचल स्कूल में उतारी थी,
जुदा होते हुए वो सिसकता रहा अंदर
'माँ यहीं बैठी रहना'
कहकर तड़पता रहा अंदर,
जाते हुए थामकर जल्लादों का हाथ
पीछे मुड़कर वो देखे
और मैंने जाने कितनी बलाएं उतारी थीं,
आंख में आँसू भरकर
दो कदम भी चलना आसान नहीं था
मैं जिसे छोड़कर जा रही थी
वो मेरा जिगर था
कोई सामान नहीं था,
मेरे लिए वो रास्ता कठिन हो चला था
कैसे तय करती उस सफर को
नहीं कुछ सूझ रहा था,
हरी घास पर वो दो घण्टे बिताने को सोचे
भाग कर सबसे पहले लिपट जाऊँ मैं
'कहाँ है मेरी माँ'
जब मेरा लाल पूछे,
यूँ तो हरी घास पर मैं चहलकदमी कर रही थी
पर उसकी याद हर पल मेरे दिल पर
कांटे की मानिंद चुभ रही थी,
घड़ी के कांटे भी ठहर से गए थे
वो रुके भी न थे
पर बढ़ ही कहाँ रहे थे,
पानी का घूँट भी अंदर नहीं सरका
कि वो अभी तक है जानता
बस मेरे हाथों का जायका,
क्या खाया होगा कुछ भी तो नहीं
मेरे यहाँ होने का भी क्या फायदा!

मेरी पहली पुस्तक

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