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1 Raat


मेरी प्यारी मेट्रो



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ए मेट्रो, तूने कितना कमज़र्फ
इंसान बना दिया
हज़रतगंज को हल्दीघाटी का
मैदान बना दिया


जब तेरी बनाई भूलभुलैया सी
गलियों से गुजरते हैं
तब अपने ये आलाकमान हमें
बिल्कुल औरंगज़ेब से लगते हैं
दिलकश तहज़ीब के शहर को
बेजान बना दिया।

तू सुबह की नींद ले गयी
हर रोज़ जाम का झाम देकर
खुद आकाश-पाताल की सैर करे
हमें वादे तमाम देकर
मगर ऐ महज़बीं, तूने झूठ बोलना
कुछ और आसान बना दिया।

क्या करूँ आहट भी तेरी
सबको बहुत लगे खूबसूरत
लोग कहते हैं शहर को थी
एक तेरी बहुत जरूरत
ज़मीं की है तू, ज़मीं पे ही रहना
दिल को तेरा अरमान बना दिया।

अब तो आ ही गयी हो तुम
दिल से इस्तक़बाल है तुम्हारा
हम तो तुमपे दिल हारे हैं
बोलो क्या ख़याल है तुम्हारा
अपने भाव ज़रा कम ही रखना
एंटीक नहीं तुमको साजो-सामान बना दिया।


कचरे से बोतल बीनते बच्चे!


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कचरे से बोतल बीनते कुछ बच्चे
कभी उन्हें टिकाते हैं जमीन से
बैट की तरह,
कभी उन खाली बोतलों में
हवा भरने की नाकाम कोशिश करते हैं,
सूखे फेफड़ों की फूँक से
निकलने वाला संगीत लुभाता है उन्हें;
उन्होंने देखे होते हैं सारे ब्रांड
पर उनकी प्यास बुझाने वाला
है न उनका सुपर ब्रांड
म्युनिसिपलिटी की डायरेक्ट सप्लाई;
क्योंकि ईश्वर ने भी उन्हें भेजा है
डायरेक्ट सप्लाई वाला टैबू बनाकर;
किसी बड़े रसूखदार के मार्फ़त नहीं भेजा
न ही कोई साधारण सा बच्चा बनाकर
वो तो निम्न सोच की
प्रजनन क्षमता का नमूना हैं:
उन्हें कोई गुरेज नहीं
शीत, ताप, बारिश और बर्फीली हवाओं से
उन्हें तो बस इकट्ठी करनी हैं
कचरे से बीनकर
डिब्बे के संग खाली बोतलें।

दरियादिली

माँ...माँ... कहता हुआ नन्हा मेहुल स्कूल से आते ही गले से लिपटते हुए माँ को दुलारने लगा पर माँ ने उसे झिड़की दे दी।
"देख नहीं रहा अभी मैं क्या कर रही। शारदा देख मेहुल आ गया है इसका बैग लेकर ऊपर जा, ड्रेस चेंज करा देना। कुछ खिला भी देना, अभी मुझे स्वामी जी के साथ थोड़ा सा वक़्त लगेगा।" नौकरानी को आदेश देते हुए मेहुल की माँ फिर से स्वामी जी की आवभगत में लग गयीं।
तब तक दरवाजे पर एक बच्चा भीख मांगते हुए आ गया, "दीदी रोटी दे दो। दो दिन से भूखे हैं।"
"जा भाग यहाँ से, कोई और दरवाजा देख।"
"दीदी कुछ खाने को दे दो, हमने दो दिन से कुछ नहीं खाया है।" बच्चा बहुत दयनीयता से स्वामी जी की ओर देखने लगा।
"भागेगा यहाँ से या बताऊँ?" इतना कहकर माँ ने दरवाजे बंद कर दिए और स्वामी जी के लिए कपड़े और दक्षिणा सम्हाल कर रखने लगीं।
"माँ, इसमें से कुछ पैसे दे दो न बेचारा बहुत भूखा है।" मेहुल के इतना कहते ही उसकी माँ और स्वामी जी एक साथ गुस्सा करने लगे।
"कहाँ चली गयी शारदा, इसे लेकर जा यहाँ से।" माँ चिल्लाते हुए बोली तभी स्वामी जी बात को काटते हुए बोले, "अच्छा अब मैं भी चलता हूँ।"
"अरे स्वामी जी अभी कहाँ, आपने भोजन तो किया ही नहीं।"
"अभी इच्छा नहीं, फिर कभी।"
"दीदी...दीदी...!" शारदा भागते हुए आयी।
"क्या हुआ शारदा?"
"दीदी, मेहुल बाबा कहाँ?"
"अभी तो यहीं था, कहाँ गया?"
माँ और शारदा सीढ़ियों से ऊपर की ओर भागे। चारों तरफ मेहुल के नाम की आवाजें गूँज रहीं थीं पर उसका कहीं पता नहीं। माँ का बुरा हाल था। शारदा उसके पीछे-पीछे दौड़ रही थी। दोनों गेट से बाहर आये। माँ देखकर अवाक रह गयी। अभी कुछ देर पहले जिस बच्चे को उसने डांटकर भगा दिया था, मेहुल उसे अपना बचा हुआ लंच खिला रहा था। स्वामी जी उसकी पीठ पर हाथ फेरने लगे। माँ की आँखों में खुशी और पश्चाताप का मिला-जुला भाव था।

मेरी सोच भी बड़ी खानाबदोश सी हो गयी है

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 मेरी सोच भी बड़ी
खानाबदोश सी हो गयी है,
कभी तुम से उठती है
कभी तुम पे ठहरती है।
भटकते-भटकते न जाने
कितनी गलियों से गुजरती है।

कभी बनती है किसी
भूखे बच्चे की आँसुओ की सदा,
कभी बन जाती है
कोई मासूम सी अनाथ की दुआ
आज बन्द तिजोरी में रखे
कागज़ के टुकड़ों में सो गयी है।

बन जाती है कभी ये
किसी बेवा की हया
कभी कोठों की रंगीनियों में
खोई जफ़ा,
आज ऊँचे घरानों की
बेहया ज़ीनतों से लिपटकर रो गयी है

वो जो मंदिर में सजा है
सोने-चांदी की खनक सा
इत्र-गुलाबों में छुपा है
एक मासूम महक सा
नापाक हवा इनसे मिलकर
हो पाक जो गयी है।

मेरी सोच भी बड़ी
खानाबदोश सी हो गयी है,

हो कोई जवाब तो तसल्ली करा दो!

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ये कहकर अदालत ने
अपना दरवाजा बंद कर लिया
कि आरुषि को
तलवार दम्पत्ति ने नहीं मारा,
लगभग सभी ने राहत की सांस ली;
अगर ये राहत है तो किस बात की,
कि महफूज़ नहीं हैं अब
घरों में भी बेटियां,
कि पहले तो गुनाह
सूरत में हुआ करते थे
अब एलियन गुनाह करते हैं,
कि वक़्त हर ज़ख़्म
भर देता है
कि आरुषि हमारी अपनी तो नहीं,
कि यहाँ तो
हर रात सनसनीखेज होती है
हर गली का एक
किस्सा मशहूर है,
कि सोचने को बस एक
यही बात तो नहीं
एक नन्हीं सी जान
और उसपर सौ अफसाने हैं,
कि....
ये फेहरिस्त बहुत लंबी है
हजारहां सवाल हैं
और दर्द में सुलगती आँखे हैं:
अब वो नहीं आएगी कभी
इंसाफ की भीख मांगने,
मगर सवाल ये है कि
बेटी जब तक घर नहीं आती
घर राह तकता है
फिर उसे सुलाकर
वो खुद भी सो जाता है,
एक रात अचानक उसकी नींद खुलती है
वो बदहवास सा
ये सोचकर बेटी को हमेशा के लिए
सुला देता है
कि कोई और न ये कर दे??
कोई जवाब हो तो तसल्ली करा दो:
कि गुनहगार की सूरत बता दो,
जिस लम्हे इंसाफ हो वो वक़्त मिला दो,
इंसानियत के नाते अपनापन दिखा दो,
वारदात न हो जिसमें वो रात बना दो,
लाल न हो जो गली वो राह दिखा दो,
गर ये भी न सोचूँ, तो क्या मैं सोचूँ,
सोच में फर्क की ये दीवार गिरा दो।

एक और दीवाली की सुबह।

दीवाली की धमधमाती रात की अगली सुबह यूँ तो शांत होनी ही थी। ऐसे में ड्राइव करने का अलग ही आनन्द होता है। पर आज कुछ ज़्यादा ही मौन था चारों ओर। घरों के खिड़की, दरवाजे लॉक थे कि लोग छुट्टी मना रहे थे, इससे भी बड़ा एक कारण था मौनता का कि रोड किनारे हर जगह जानवर चित्त पड़े थे। ये वो प्रहरी हैं जो सुबह होते ही मुस्तैद हो जाते हैं पर आज चौकस नहीं थे क्योंकि जब हम तेज आवाज में पटाखे फोड़कर दीवाली की खुशियां मना रहे थे तब ये छुपने को जगह तलाश कर रहे थे।
हम अपनी खुशियां मनाने के लिए कभी-कभी किसी को दूर तक परेशानी में डाल देते हैं। इन जानवरों का क्या क़ुसूर था कि रात भर आराम की नींद नहीं सो पाए। दीवाली की खुशियां जरूर मनाइए पर अपने आस-पास जानवरों, बुजुर्गों और बच्चों का ख़याल करके। ऊंची-ऊंची बिल्डिंग की छोटी तंग गलियों में डेसिबल की धज्जी उड़ाते फोड़ू बम महज पैसों का बेजा प्रदर्शन है। बेहतर होगा कि आप अपनी सामग्री को एकत्रित कर एक पार्क में निकल जाइए और खूब मनाइए दीवाली का जश्न।
त्योहार मनाना ग़लत नहीं बस आपका तरीका सही हो।

इतिश्री.... एक बुझे हुए दिये की।

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शहर के कोलाहल से दूर
जंगल के वीरानों में
नयी सड़क से लगी हुई
पुरानी पशेमां गली पर
ज़्यादा दूर नहीं
उस पीपल के पीछे
एक टूटा-झुका सा
पर खण्डहर नहीं
हाँ उम्मीद का मारा
इस दरवाजे से जाता हुआ
उस निकास के आगे
बस बरसों में अपनी उम्र गिनकर
इतने ही कदम चलो
यही तो है वो आबो-हवा
जो तुम्हें बुला रही है
आशीष देने को
ये गूलर, ये नीम
और इनके नीचे सो रही
तुम्हारी माँ
इन्हीं के सिरहाने पापा भी तो हैं
ऊर्ध्वाधर लेटे
जब तक साँस थी
एक चम्मच पानी के भी
गुनहगार न हुए
आज उनकी समाधि पर
दीपक जलाकर दे ही दो
अपने जीवित होने का प्रमाण
फिर उल्टे पैरों लौटोगे
मुझे पता है
बीवी को शॉपिंग करानी है
जाते-जाते कहीं से लंब
तो कहीं से क्षैतिज हुए
खण्डहर नुमा हवेली के
एक पाये पर सर टिकाकर
श्रद्धांजलि दोगे।
इतिश्री।

ऑटो अपडेट वर्जन

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लोग कहते हैं
समय के साथ
प्यार पुराना हो जाता है,
मगर जान
तुम तो हमारा
ऑटो अपडेट वर्जन हो,

न पुराने होगे
न बदलने पड़ोगे;
हो भी तो वायरस फ्री,
विश्वास और मोह के
दो पायों पर टिकी
शीत, ताप, बारिश की छत हो जैसे:

जब 25 अप्रैल को
लोग कहते हैं....
धरती हिली थी,
हम तो
जैसे तुम्हारी लहर की गोद में थे,
भूकम्प
हमारा पता जाने बगैर ही गुजर गया;
अच्छा है जो अपना इश्क़ हार्डवेयर नहीं है
 
छुप जाते हो,
कलम की स्याही,
शब्दों की खुशबुएँ बनकर;
ये न जताना
कि तुम इस अनारकली के
शहजादा सलीम हो,
कहीं जहाँपनाह की शमसीर
सौ बार हमें जिबह न कर दे,
किसी ने छुप-छुपकर
मिलते-मिलाते देखा भी तो
सौ बार गंगा मइया से बोला
बस इस बार बचा लो,
कल ही हरिद्वार आते हैं
पिछले हर कसम की डुबकी लगाने:

खण्डहर की छत पे
हो एक टूटी खाट
स्याह नभ के तले
तुम्हारी कलाई थामे हो हमारा हाथ
और हमें क्या चाहिए,
ए सी कमरों में
बनावटी सामानों के बीच
पहाड़नुमा चीड़-सागौन के
नक्काशीदार बेड की नरम बिछावन पर
तुम स्लो सिस्टम लगते हो हमें:

हम प्यार बेशुमार करते है,
  इस प्यार में
नहीं कोई इतवार करते हैं,
और ऐतबार से कहते हैं
अगर प्रेम जैसे खौफनाक
मगर यूनिवर्सल ट्रूथ को आगे बढ़ाया जाए,
तुम्हारे जैसे आशिक़ को
हमारे जैसी महबूबा से मिलाया जाए,
तो थर्ड वर्ल्ड वार खयालों में भी न होगा।

नानी का पिटारा

नानी के देहावसान के बात से ही उस संदूक की चाभी तलाश की जा रही थी। बच्चे से बूढ़े तक की नज़र थी उस पर।
'आखिर क्या होगा उसमें जो नानी कभी खोलती भी थी तो अकेले में' पूर्वी के माथे पर ये कहते हुए बल पड़ गए थे आखिर 20 साल से वो यही देख रही थी।
सोचती तो वो भी रहती थी पर माँ और मामी की बातों से बिल्कुल भी सहमत न थी कि नानी ने इसमें बहुत पैसे जमा कर रखे होंगे।
आखिरकार वो दिन आ ही गया। नानी की मौत की हड़बड़ी में वो चाभी कमर से निकलकर कहीं गुम गयी थी, ताला तोड़ना पड़ा। संदूक ऊपर तक भरी थी। एक-एक सामान निकाला जा रहा था। किसी को उसमें कोई दिलचस्पी नहीं थी क्योंकि सबकी नजरें तो वो ढूंढ रही थी जो अब तक नहीं निकला था। संदूक का पूरा सामान कमरे में तितर-बितर था। सभी की जिज्ञासा शांत हो गयी थी। एक-एक कर सारे लोग जा चुके थे। पूर्वी और उसकी माँ हर सामान को देखकर खुशी से भर जाती थी।
'ये देख तेरे भइया के मोजे जो मैंने बुने थे और वो भी पहली बार' माँ पूर्वी से बोली।
'ये कितना प्यारा है छोटा सा, किसका है?'
'अरे ये तेरे बचपन का है।'
'ये देखो माँ!' पूर्वी ने श्वेत-श्याम चित्रों से सजा एक पुराना अलबम दिखाते हुए कहा।
माँ-बेटी यादों की रंगीन गलियों में भटक गयी थी। आज इन्हें ये अहसास हुआ था कि कीमत सिर्फ पैसे और गहनों में ही नहीं उन यादों की भी  होती है जो गुजरकर फिर नहीं आती।

उन्मुक्त होकर जीने दो न हमें!


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प्यार के बंधन में तो बंध जाते हैं सभी
आज उन्मुक्त होकर जी लेने दो न हमें,
सीने से लगा लो आज फिर हमको
कुछ न कहो लबों को सी लेने दो न हमें,

समंदर की रेत पर कुँवारी ख्वाहिश के नाम
तुमने हमको जो इक पैगाम लिखा था,
खुद को शहजादा
हमारे तन-मन का
और
हमें ज़िन्दगी का अंजाम लिखा था,
दिल में हूक वो फिर उठती है,
इक तलब सी मन में जागी है,
रेत के मकां ढह गए
अरमां तो अब भी सुलगते हैं,
बियाबान सा हर मंजर बनाकर चले गए,
आओ न कि अहसास की बारिश कर दो
जिस्म की खुशबू का असर जी लेने दो न हमें।

न पैसों की बारिश, न इज्जत न शोहरत
न खुशियों का बिस्तर न सोने की थाली
हमें जीने मरने की सुध ही कहाँ है
तुम्हारे लिए अब समाधि बना ली
लिखते हैं तुम्हारा नाम हर शाख पर बुटे पर
लेते हैं सुध तुम्हारी हर तितली हवा से
ढूंढते हैं तुम्हें हर मौसम में दर-ब-दर
मानसून सी तुम्हारी लुका-छिपी चलती है
आओ न किसी बारिश में एक छतरी तले
आधे-आधे हम तुम
तुम्हारे नूर का पानी लबों से पी लेने दो न हमें।

 आसमान की चूनर ओढ़नी बना दो हमारी
अपने कदमों की धूल से मांग सजा दो
दूर न करो पलकों का आशियाना
अपनी परछाईं में हमारा शामियाना बना दो
तुम्हारी आगोश में हर रात, सुहागरात है
आओ न कि हमारे दर्द को ढक दो
अपने छुवन की एक नूरानी रात दे दो न हमें
घुट रही तुम बिन बेसबब ज़िन्दगी
सियाह रातें हैं दिन बस एक उलझन
तुम्हारे आने की खुशी में महका है ये मन
वो घूँट मुक़द्दस खुशियों के पी लेने दो न हमें।

तुम्हारी उष्णता को घूँट-घूँट पियेंगे!


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हमारे मन के अधूरेपन को
आकार देती तुम्हारी पूर्णता
और तुम्हारे न होने पर
पल-पल पिघलती हमारी लघुता,
इसको साकार करना है हमें
नीलगगन का मिलन बनकर।
तुम्हें चाँद क्या कहें
तुम तो आसमान हो हमारे,
तुम्हारे फैलाये हुए डैने ही तो
हमारी छाँव हैं;
सुनो आज की रात थाल में
हमारे स्नेह का
हल्दी और अक्षत होगा,
छलनी से चमक रही हमारे चाँद की आभा
श्रंगार के यौवन को और बढ़ाएगी,
तुम रूप, रस, माधुर्य भरा घूँट पिलाओगे,
हमें प्रेम की गलियों में
दामन थामकर टहलाओगे,
तुम्हारे लिए गणेश चतुर्थी नहीं
हम तो हर वार व्रत रहेंगे,
आज की रात हम प्रेम का मधुमास जियेंगे,
तुम्हें पल-पल दिल में उतारेंगे,
तुम्हारी ऊष्णता का घूँट-घूँट पियेंगे,
अहसास की चादर तले
सुखन की धीमी आंच पर,
तुम्हारे नेह की हांडी में
जीवन का लाजवाब दाल-भात चखेंगे।

वो तेरह दिन...





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कोई न बचाता मेरा अस्तित्व मेरी आत्मा के देह छोड़ने पर बड़के की माँ भड़क गई थी। पहली बार देखा था उसका इतना रौद्र रूप मैंने जब वो अनुनय-विनय न करके आदेश सुना रही थी।
'तेरे बापू के सारे संस्कार वैसे ही होंगे जैसा वो कह कर गए थे। जिसको रुकना है रुको, जाना है जाओ, अभी उनकी धर्मपत्नी ज़िंदा है। मुझे ईश्वर ने सुहागिन नहीं बुलाया अपने पास जाने किन कर्मों की सजा थी, अब ये गुनाह करके मैं उनकी आत्मा नहीं दुखाउंगी। सुन बड़के छोटे से भी कह दे, समझा दे उसे नहीं रुकना चाहता तो जा सकता है पर मैं ये तेरह दिन पूरे तेरह दिन मनाऊंगी। चाहे तो तेरहवीं के भोज में आ जायेगा न चाहे तो वहीं किसी जगह मना ले।'
कहते-कहते सौदामिनी का ब्लड प्रेशर हाई हुआ जा रहा था। फिर भी वो पूरे जोश के साथ आगे बढ़कर सब कर रही थी। आज मेरी आत्मा को मुक्त हुए 20 घंटे ही हुए थे। पहले तो शरीर को पंचतत्व में विलीन करने की जल्दी थी फिर शमशान घाट से वापिस आते ही इस बात पर विचार-विमर्श चल रहा था कि तेरहवीं संस्कार तीन दिनों में सम्पन्न कर दिया जाए। छोटे को ऑफिस देखना था और उसकी पत्नी गांव में एडजस्ट भी नहीं कर पाती थी सो उसका पूरा दबाव था बड़के पर कि जल्दी करे। बड़का कुछ बोलता इससे पहले ही उसे ये कहकर चुप करा दिया गया कि तुम गांव में रहने वाले क्या जानो शहर में किस तरह से एडजस्ट करना पड़ता है। बड़के की पत्नी भी छोटे को देखकर भाव खा रही थी, 'अरे मेरे बच्चे का इम्तिहान है।'
सौदामिनी की दो टूक बात सुनकर सबकी बोलती बंद हो गयी थी। निर्णय एकतरफा और ज़ोरदार था, सभी को मानना ही था। 
'ठीक है माँ, आप जैसा उचित समझो।' इतना कहकर वो माँ के पास खाट पर बैठ गया था। 
'छोटे को और उन दोनों को भी बुला लो।'
सभी माँ को घेरकर बैठ गए। पहली बार इस बैठक में मैं नहीं था। सभी बात शुरू करते इससे पहले ही गला भर आया, आवाज रुँध गयी सभी की। 
'माँ, ये लीजिये पानी।' पानी का गिलास माँ को देते हुए छोटी बहू ने कहा।
माँ ने गिलास एक तरफ रखने का इशारा किया। सारी भूख-प्यास तो मैं ले आया था। कैसे रहेगी वो मेरे बगैर, उसकी पल-पल की आदत था मैं। सब तो अपने आप में ही व्यस्त थे, मैं ही तो था जो उससे झगड़ता था उसका अकेलापन बांटने को। 
किसी तरह से बातचीत आगे बढ़ाई गई। माँ ने गरुण पुराण से लेकर तेरहवीं भोज तक की सूची बनवा दी थी। बच्चे बार-बार काना-फूसी शुरू करने लगते फिर माँ की भृकुटी देखकर शांत हो जाते। जब बात समय से हटी तो पैसे पर आ गयी थी। सभी का ये मानना था कि इतनी फिजूलखर्ची की क्या जरूरत। पर माँ की ज़िद के आगे किसी की न चली।
सौदामिनी तो मेरी मौत को एक उत्सव के रूप में मनाने को आतुर थी। उसे यही लगता था जैसे मैं अब भी उसके आसपास हूँ। उसका जानलेवा लगाव मेरी परेशानी का सबब था पर अब मैं चाह कर भी कुछ नहीं कर सकता था। अब तक सब लोग अपने-अपने कमरे में जा चुके थे। सौदामिनी बिस्तर पर करवट बदल रही थी। दुःख से ज़्यादा ज़िम्मेदारियों का भाव था उसके ऊपर जिसे वो बखूबी निभा रही थी। सब अपने-अपने कमरे में बस इसी उधेड़बुन में जग रहे थे कि ये काम तो कम समय और पैसे में भी हो सकता था फिर इसके लिए इतना करने की क्या जरूरत? उधर सौदामिनी की सोच थी कि जब सारे काम चलते रहते हैं, शान-शौकत दिखाने का वो कोई मौका नहीं छोड़ते फिर इसे फिजूलखर्ची कैसे कह सकते हैं। जब मैंने किसी के शौक और दिखावे को फिजूलखर्च नहीं कहा फिर किसी का क्या हक़ है अपना ही पैसा खर्च करने से रोकने को?
सौदामिनी ने बस यही कहकर सबको चुप कराया था कि इतना पैसा तो अभी उनकी पेंशन बुक में ही पड़ा है कि सारे काम निपटाने के बाद भी बड़का अपने बच्चे की फीस और छोटा नए मकान का डाउन पेमेंट कर सकता है। मैं असहाय सा शरीर के मोह से आज़ाद मगर आत्मा की दासता में जकड़ा हुआ था। जीवन भर इन लोगों के लिए जान गला दी अब भी इतना कुछ छोड़ आया कि आराम से रह सकते हैं फिर भी मेरी आत्मा के तर्पण के लिए मेरी पत्नी को संघर्ष करना पड़ रहा है। मेरे बीज से जन्मे मेरे अपने बेटे क्या इन्हें भी मैं एक रिश्ता ही समझूँ। मेरा शरीर नहीं रहा तो ये मेरे होने का अस्तित्व ही नकार रहे हैं। क्या होगा इनका खुद का भविष्य, कहीं मुझसे बुरा तो नहीं? मेरी आत्मा घुटी जा रही थी।
जाने क्यों होता है ऐसा जितना हम बड़े अपने बच्चों के बारे में सोचते है आखिर वो क्यों नहीं समझते इस बात को या फिर नासमझी के भंवर में रहते हैं। उम्र के अंतिम पड़ाव में बुजुर्ग जाए तो कहा जायें। जब मेरा जीवन बच्चों की जिम्मेदारियों को पूरा करने में समिधा बनकर हवन हो रहा था तब मैंने न तो खुद की जरूरतों के बारे में सोचा न ही अपने आस-पास की दुनिया के बारे में। बच्चों के लिए कितनी बार माँ-बाप भूखे सोते हैं, कितनी ही बार अपनी रातों की नींदे खोते हैं और उन्हें इस बात की भनक तक नहीं होने देते फिर भी एक उम्र होने पर उपेक्षा की दहलीज़ पर आ ही जाते हैं। 
आज जब मेरे न होने पर सौदामिनी का ख़याल बच्चों को सबसे ज़्यादा रखना चाहिए था तो उसे कर्म-कांड के नाम पर अस्तित्व बचाये रखने के लिए भी संघर्ष करना पड़ा। इसके बाद तो फिर कभी न आऊंगा मैं किसी हक़ की भीख मांगने। मेरी जड़ आत्मा इस सत्य को नहीं पाई आज तक कि शौक और फैशन के नाम पर लुट जाने वाले लोग आस्था और विश्वास के नाम पर खुद को कंजूसी के बिलों में क्यों रोप लेते हैं। किस दिशा में भटककर जाएगी आने वाली पीढ़ी? किस रूप में आएंगे ईश्वर प्रचंड मार्तंड का अस्तित्व बचाने? कहते हैं माता-पिता में ईश्वर दिखता है पर जब इनकी सुनी ही न जाये तो क्या कहेंगे? 
दूसरी ओर कलयुग के माता-पिता हैं जाने कौन से संस्कार से बांध रहे हैं बच्चों को, क्या समझेंगे ये हमारी संस्कृति, तहज़ीब और मूल्यों को। ये तो दिखावे के गुलाम बने जा रहे। पाश्चात्य के मोह में ऐसे घुलते जा रहे कि अपनी सभ्यता मजाक लगती है। जब बच्चे जनेऊ धारण करने के बाद भी उसका मतलब नहीं समझते तो क्या समझेंगे तेरहवीं के तेरह दिनों का अभिप्राय। काश कि मैं एक बार फिर आ पाता और इस बार अपना जीवन बच्चों की जरूरतों में न गंवाकर उन्हें सांस्कारिक बनाने में लगाता। 
सौदामिनी ने एक जश्न की तरह वो तेरह दिन मनाए। हर किसी से यही कहती कि क्यों रोये किसी बात का तो ग़म नहीं इसके अलावा कि सुहागिन नहीं मरी। इतना भरा-पूरा परिवार छोड़ गए अपने पीछे, सारे कर्म-कांड किये जीवन के। हर ज़िम्मेदारी को बखूबी निभाते थे। बच्चों की ख्वाहिश तो क्या, बच्चों के बच्चों की भी पूरी करते थे। एक बच्चे ने पिछले हफ्ते नई सायकिल छूने पर लकी को डाँट दिया था, घर आया तो बड़के ने भी मारा। उसके दादाजी से नहीं देखा गया तुरन्त नई सायकिल दिलाई। ये तो सही है कि उनके जाने पर उनकी बहुत कमी रहेगी पर वक़्त आ गया था। ऐसे ही एक दिन मुझे भी अपने पास बुला लेंगे....इतना कहते-कहते ज़ोर की खाँसी आयी और गला एक तरफ लुढ़क गया था। सौदामिनी भी अपनी चिरनिंद्रा में लीन हो गयी थी। उसकी मौत पर बच्चे फूट-फूट कर रोये थे। बड़के ने कहा दिया था माँ का अंतिम संस्कार और सारे कर्म-कांड वैसे ही होंगे जैसे बापू के हुए। छोटे ने भी सहमति दे दी थी।

Gulzaar: Poetry lives in his name1

Hat's off to his poetry.

 ye halka-halka savera
jab tum mujhse kahte ho,
shabd thithurte hothon par
baatein bhari ho jati hain. 


Tum naav-ummeedi par baithe,
majhdhar ke shikve ruth gaye.


Hum aankhon se kahein,
tum dil se samajh lo.


Suno na, ye ruthne-manane mein kya hai
samjho na ishare, rafta-rafta chale zindagi.


Tum meri baahon mein
aur main tumhari aankhon mein.

Aaj ek chhoti si koshish ki Gulzar sahab ke shabd aap tak pahunchane ki, apki pratikriyaon ka intizaar rahega.

2 अक्टूबर के दिन

क्या होगा इसके अलावा
कि हम प्रतिमाओं पर
माल्यार्पण करेंगे
और नमन करेंगे
उस महान विभूति को;
थोड़ा सा भाषण दिया जाएगा
क्योंकि हम अहिंसा के पुजारी
उस देवदूत का पढ़ाया हुआ पाठ
एडिट कर चुके है,
अहिँसा से अ को
ग़ायब कर चुके हैं।

औरत को औरत ही रहने दिया जाए।

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बराबरी का दंश न सहने दिया जाए,
औरत को औरत ही रहने दिया जाए,

वो नींव है ज़मीर की,
बुलन्दी है जज़्बात की,
एक किस्सा है वफादारी का,
हिस्सा है समझदारी का,
वो कलम में भी है,
वर्तनी में भी है,
वो गर आंसुओं में है
तो बहने दिया जाए
पर औरत को औरत ही रहने दिया जाए।

वो रावण के छल से ऊपर है,
कौरवों के बल से ऊपर है,
गर यीशु कहीं है,
मरियम का ही तो है,
औरत दूजा नाम संयम का ही तो है,
वो वक़्त पड़े तो झुकती है,
तूफानों में कहाँ रुकती है,
है प्रशंसित वो सहने में तो सहने दिया जाए,
पर औरत को औरत ही रहने दिया जाए।

क्यों दोहन करोगे उसका
बराबरी के नाम पर,
क्यों डराते हो उसे
किसी अंजाम पर,
वो तुम्हें समेटती है अपने अंदर
उसी तन के लिबास में,
तुम छेदते हो उसे
जिस अहसास में,
न हो दर्द बेजुबाँ अब कहने दिया जाए
पर औरत को औरत ही रहने दिया जाए।

मेरी पहली पुस्तक

http://www.bookbazooka.com/book-store/badalte-rishto-ka-samikaran-by-roli-abhilasha.php