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सबक

एक नाराज बच्चे ने एक हृदय की धड़कन सुनी और वह खुश हो गया. वह बच्चा धड़कते हृदय से कहने लगा, "मैं तुम्हारे प्यार में पड़ गया हूँ"

धड़कते हृदय ने कहा, "जानते ही कितना हो मुझे? क्यों मेरे प्यार में पड़ गए हो? क्या हमेशा प्यार कर पाओगे मुझे?

नाराज बच्चे को पहली बार ख़ुशी मिली थी. पहली बार उसको कोई बात अच्छी लगी थी. उसने इसे ही सब कुछ मान लिया और झट से बोल पड़ा, "यकीन से तो नहीं कह सकता लेकिन अपनी तरफ से पूरी कोशिश करूँगा"

अब धड़कते हृदय को यकीन हो गया. उसे पता है क़ामयाब वही होता है जो कोशिश करता है. उसने नाराज बच्चे को अपने अंदर एक कमरा दे दिया. नाराज बच्चे और हृदय की धड़कन का संयोजन प्रेमपूर्वक बहने लगा. यह देखकर कुछ और भी लोग थे जो नाराज बच्चे की तरह धड़कन की तरफ आकर्षित हुए. धड़कन ने पहले ही नाराज बच्चे को जगह दे रखी थी. धड़कन जानती थी उसके पास इतनी जगह नहीं है कि वह सभी को बुला सके उसने माफी माँगते हुए सबको कोई और धड़कता हृदय ढूँढने की सलाह दी. वह सब कहाँ मानने वाले थे. वहीं मँडराते रहे. नाराज बच्चे को धड़कन अपना प्रिय मानती थी. वह उसकी आवभगत में लगी रहती बस इसीलिए कि नाराज़ बच्चे को जो खुशी उसके पास आकर मिली है वह कभी कम न हो और बढ़ती ही रहे. लेकिन अब उन दोनों के बीच बहुत से लोग आ गए थे. बहुत से लोग इस ताक़ में भी थे कि कब नाराज़ बच्चा धड़कन से नाराज़ हो जाये. कुछ नाराज़ बच्चे को अपने कमरे में धड़कन की तरह जगह देना चाहते थे. वहीं कुछ नाराज़ बच्चे बनकर धड़कन के कमरे को ख़ाली कर उसमें अपनी जगह बनाना चाहते थे. रास्साकशी का माहौल था. ठीक उसी तरह जैसे समुद्र मंथन के समय हुआ था. वासुकि की जगह किसी ने ले ली, मंदराचल पर्वत की जगह धड़कता हृदय है. अमृत निकला. विष भी निकला. धड़कते हृदय ने किसी भी मोहिनी को आगे नहीं आने दिया. सब अमृत नाराज बच्चे पर उड़ेल दिया और विष एक कोने में रख दिया. सभी ने विष चख लिया. नाराज बच्चा भीड़ की ओर देखने लगा. उसे लगा धड़कते हृदय ने मेरे साथ नाइंसाफी कर दी. मुझे केवल अमृत दिया और बाकी सभी को जाने क्या-क्या मिला है. भीड़ ने नाराज बच्चे को अपनी तरफ आता देख गले से लगाया. हाथों-हाथ लिया. उसे बेवजह उदास करके उसकी खुशी का कारण बनी और इस तरह नाराज बच्चा उनकी ओर आकर्षित हो गया. अ ब स द कितने ही लोग हैं यहाँ. नाराज बच्चे को बहुत अच्छा लगने लगा. उसे लगा वह यही तो चाहता था. यह बात उसके मन की है. कितने सारे लोग उसके अपने हो गये. उस एक धड़कते हृदय के चक्कर में वह तो बेचारा अकेला ही रह जाता. कैसा था वह धड़कता हृदय कितना बड़ा मक्कार...मुझे कमरे में बिठाकर बंद कर लिया. अब नहीं आऊँगा उसकी बातों में. सचमुच मैं तो ठगा गया. कितनी बड़ी दुनिया है लेकिन उस मूर्ख ने तो मेरी दुनिया ही छोटी कर दी थी. अब भीड़ ने यह अनुभव कर लिया था कि नाराज बच्चा धड़कते हृदय से कुछ असहमत है और इसी बात का फायदा भीड़ अपने-अपने तरीके से उठाने लगी. भीड़ फायदे उठाने लगी. नाराज बच्चा मजे लेने लगा. धड़कता हृदय अकेला रह गया. उसका कमरा खाली था. वह नाराज बच्चे को बहुत याद करता था. कितने दिनों से उसे नाराज बच्चों के साथ हँसते-खेलते, उसका मन बहलाते धड़कता हृदय खुद भी खुश हो जाता था. धड़कते हृदय ने कभी नाराज बच्चे के सामने यह नहीं कहा कि वह अकेला है, उसे भी साथी की जरूरत है. लेकिन धड़कता हृदय अब भी चाहता है कि नाराज बच्चा अपने कमरे में वापस आ जाये. मगर भीड़ नहीं चाहती है. वह नाराज बच्चे का मखौल उड़ाती है कि धड़कते हृदय की क़ैद में वह रहा. अब नाराज बच्चा आज़ाद है. धड़कता हृदय आज़ाद है और भीड़ भी आज़ाद है तीनों की आज़ादी अलग-अलग है. नाराज बच्चे की आज़ादी यह है कि उसे धड़कते हृदय से मुक्ति मिल गयी. धड़कते हृदय की आज़ादी यह है कि अब वह बिल्कुल अकेला हो गया और भीड़ की आज़ादी यह है कि उन्होंने नाराज बच्चे को धड़कते दिल से अलग कर दिया. 
किसी का साथ पाना फिर उससे दूर हो जाना हर किसी को यह बात तकलीफ नहीं देती है लेकिन उसको बहुत देती है जो रिश्ते जल्दबाजी में नहीं बनाता, किसी लालच में नहीं बनाता लेकिन षड्यंत्र करने वाले लोग नहीं समझते. बात-बात पर किसी को दोषी ठहरने वाले लोग नहीं मानते कि अपनापन ऐसा भी होता है. 
धड़कता हृदय अब नाराज बच्चे से कभी यह सवाल नहीं करेगा कि वह सभी की बातों में क्यों आया, और जब एक दिन छोड़ना ही था तो एक दिन आकर मिला ही क्यों था? सवाल नहीं करेगा तो इसका मतलब यह भी नहीं कि नाराज़ बच्चा खुद से भी यह सवाल न पूछे.
नाराज़ बच्चा कभी भी धड़कते हृदय से यह सवाल नहीं करेगा कि वह पक्षपाती क्यों बना, इतना अमृत क्यों दिया कि उसका दम घुटने लगा? अगर नाराज़ बच्चा नहीं पूछेगा तो क्या इसका मतलब यह भी नहीं कि धड़कता दिल अपने आप से यह सारे सवाल न करे और ख़ुद को गुनहगार मानते हुए कभी दोबारा नाराज बच्चे के सामने भूल कर भी जाये.
जो सबक हमें जिंदगी रोजमर्रा की बातों में दे जाती है उसमें कहीं ना कहीं गुरु हम स्वयं ही होते हैं.

मुझे इमोशनल एनेस्थीसिया दे दो

देव तीसरी सिगरेट निकालने ही जा रहा तभी सुरीली ने आगे बढ़कर उसका हाथ रोक लिया.

"यह क्या देव हद होती है किसी बात की. जब तुम मेरे सामने इस तरह से अपने फेफड़े जला रहे हो तो बाद में जाने क्या करते होगे"

"नहीं तुम गलत समझ रही हो. मैं फेफड़े नहीं जला रहा. मैं तो उसकी यादों को जला रहा हूँ"

"तो क्या इस तरह सब कुछ भूल जाओगे? ऐसे तो तुम अपना जिस्म गला दोगे और मजबूती से पाँव टिकाकर खड़े रहने के लायक भी न रह पाओगे"

"तो क्या करुँ मैं सुरीली? मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा"

"कुछ मत करो. अभी कुछ मत सोचो"

"कहना आसान है. अच्छा एक बात बताओ, मेरी जगह तुम होतीं तो क्या करतीं"

"पहली बात तो यह कि तुम्हारी जगह मैं नहीं हूँ. दूसरी बात मैं कुछ नहीं करती. जिंदगी में कभी-कभी ऐसा वक्त आता है जब हम और तुम कुछ नहीं कर पाते. सब कुछ होता रहता है. वक्त करता है सब"

"सुरीली तुम तो समझो मुझे. मैं जी नहीं पा रहा. मेरी साँसे चुभती है मुझे. यह ख़ाली वक्त, रातों का सन्नाटा, मुझे लगता है हर पल मैं ब्लैक होल में जा रहा हूँ. क्या करुँ यार कुछ समझ में नहीं आ रहा. मुझे इमोशनल एनेस्थीसिया दे दो, मैं कुछ महसूस ना कर पाऊँ सुरीली. सुरीली मुझे बचा लो उसकी यादों से. बच्चा बना लो मुझे. छुपा लो मुझे"

सुरीली ने लड़खड़ा रहे देव को संभाला. फुटपाथ के किनारे बेंच पर उसको बिठाते हुए दोनों कंधों पर अपने हाथ रख दिये और उसकी आँखों में देखने लगी. यह ममत्व और स्नेह से लबरेज आत्मविश्वास का वो लम्हा देव को देने की कोशिश है जो एक दोस्त की जिम्मेदारी है और उसका हक़ भी. देव अपने मन का गुबार हल्का करता जा रहा है और सुरीली उसके बालों में हाथ फिरा कर उसे सांत्वना देती जा रही है. जितना देव को पता है उतना ही सुरीली को भी पता है कि अब देव की जिंदगी में तोशी का आना नामुमकिन सा है. वह गयी कहाँ, उसने तो मुँह फेरा है. अपनी रंगत बदली है.

सुरीली किसी तरह देव को उसके घर तक ले आयी. कल फिर मिलने का वादा करके बोझिल कदमों से अपने घर की ओर चल पड़ी. यादें हैं कि पीछा नहीं छोड़ रहीं. कितना खुश रहा देव पिछले दो सालों में. बहुत प्यार करने लग गया था तोशी से और वो है कि… लगता है दुनिया में किसी को सच्चा प्यार डाइजेस्ट ही नहीं होता है. पर तस्वीर का दूसरा रुख भी तो होता है. सुरीली का माथा ठनका, तोशी भी तो बहुत खुश रही है देव के साथ. कहीं ऐसा तो नहीं मैं देव को अपने दोस्त की तरह देख रही हूँ! कहीं ऐसा तो नहीं मैं देव का पक्ष वज़न करके देख रही हूँ! कुछ तो ऐसा हुआ ही होगा वरना तोशी कल तक तो देव पर जान लुटाती थी. अब जबकि सुरीली के मन में यह बात आ ही गयी है तो असमंजस बढ़ गया है. क्या करे, क्या ना करे. देव ने भी तो पूरी तरह से मना कर दिया है कि तोशी से देव को लेकर कोई चर्चा न करे. पीछे पलटती है तो देव की ओर जाती है और आगे बढ़ती है तो वह रास्ता तोशी की गली का भी तो हो सकता है. कुछ भी हो सुरीली ने मन ही मन ठान लिया, कहानी का दूसरा रुख जरुर देखेगी. सोचते सोचते उसका स्टॉप आ गया. बस से उतर कर अपने घर चली गयी मगर छूट गयी है थोड़ी सी देव के पास. किस हालत में उसे छोड़ कर आयी है.

उसने देव को फोन किया, "हेलो देव कैसे हो?"

"और कैसा? जैसे छोड़ कर गई थी. सुरीली आज पहली बार मुझे ऐसा लग रहा है कि मैं बिल्कुल अकेला हो गया हूँ. मुझे ख़ुद में तुम्हारी भी कुछ कमी सी लग रही है"

"अरे पागल मत बन. मैं और तुम अलग हैं क्या"

"सब कुछ अलग होता है कुछ भी एक सा नहीं होता. हम जैसा सोचते हैं वैसा तो कुछ भी नहीं होता. क्या-क्या नहीं सोचा था पर… उसके लिए तो मैं आकाश को भी लाल रंग में देखने लगा था. मैं उसकी आँखों के गुलाबी डोरों से चमकते आँसू देख पा रहा हूँ. मुझे हर कहीं वो दिख रही है. आँखें बंद करता हूँ वो जोर जोर से हँसते हुए मेरे बिस्तर के पास खड़ी हो जाती है. सुरीली वो मुझसे दूर नहीं गई है. वह मुझे यह एहसास करा रही है कि उसके बिना जीना है. मुझे चिढ़ा रही है. मेरे प्यार की इंसल्ट कर रही है"

"देव तुम उससे प्रेम करते हो और प्रेम में यह सब शोभा नहीं देता. वह भला क्यों चिढ़ायेगी तुम्हें, क्यों नाटक करेगी दूर जाने का? वो भी तो तुमसे बहुत प्यार करती थी. अभी यह सब सोचने का वक्त नहीं है. तुम आराम करो मैं सुबह बात करती हूँ. कोई ना कोई रास्ता निकलेगा ही"

"मुझे रास्ता नहीं मुझे तोशी चाहिए" यह सुनते ही सुरीली को समझ में आ गया था कि आगे क्या करना है. वह समझ चुकी है कि देव और तोशी के बीच प्यार खत्म नहीं हुआ बल्कि कोई गलतफहमी आ गयी है.

अच्छी ख़ासी रात उभर आयी है मगर बिस्तर पर मन नहीं लग रहा है. कॉफी बना लायी. लैपटॉप ऑन किया, 'हर कहीं तो देव है. लैपटॉप में बस उसी की पिक्चर्स, उसी के प्रेजेंटेशन. तोशी के साथ उसके कितने सारे फोटो. जब भी फोटो क्लिक करता है सबसे पहले मुझ से पूछता है, देखो मैं कितना डीसेंट लग रहा. यह वाली देखो हैंडसम हूँ ना! तोशी के साथ की सारी पिक्चर्स यह कहते हुए भेज देता है, मैं जानता हूँ तुम मेरे इन खूबसूरत लम्हों को अपने पास संजोकर रखोगी और उसके सारे प्रेजेंटेशन्स… मुझसे बिना पूछे कहीं भेजता भी तो नहीं और यह ब्लैक जैकेट में… कितना खुश था उस दिन तोशी के साथ पहली बार डेट पर गया था और तैयार होने से पहले मुझे फोटो दिखायी थी और मैंने भी किस तरह मजे लेने के लिए उसे बोल दिया था, इस कबूतर को कौन पसंद करेगा और उसने छेड़ते हुए कहा था, तो क्या तू ही हमेशा मेरी कबूतरी बनी रहना चाहती है. और मैं हँसती रही थी. कभी हमारा कोई हिडन सीक्रेट नहीं रहा हम दोनों के बीच. बातों ही बातों में कई बार उसने जानने की कोशिश करी थी कि मैं अकेले क्यों रहना चाहती हूँ. मैं हर बार यही कहती कि अकेले रहना मेरा चुनाव है मेरी नियति नहीं, जो मैं साथी ढूँढने के लिए संघर्ष करुँ. जब मुझे अकेले रहना ही पसंद है तो कुछ और सोचना क्या! यह बात कभी-कभी उसे कचोटती भी थी लेकिन मैं अपनी बेफिक्री से उसे रिलैक्स करवा देती थी. सभी की चिंता रहती है उसे फिर तोशी तो उसका प्यार है. 

अब कोई सूरत नहीं दिख रही. दिन भर बातों में डूबे रहने वाले तोशी और देव को अलग हुए पूरे तीन दिन हो गये 'ओह तोशी के सोशल अकाउंट्स चेक करती हूँ शायद कही कुछ क्लू मिल जाए, इंस्टा, ट्विटर, एफ बी कहीं भी तोशी ने न तो मुझे रिक्वेस्ट किया था न ही मेरी रिक्वेस्ट एक्सेप्ट की थी. हम फ्रेंड नहीं थे पर फर्क ही क्या पड़ता. वो अपने अकाउंट्स कभी प्राईवेट नहीं रखती थी. पिछले दो सालों में हम बस तीन बार मिले थे. पहले देव हर बात में उसकी बातें किया करता था फिर प्यार पुराना पड़ने लगा और बातें कम होने लगी लेकिन जब भी दोनों का मिलना होता तो हर बात मुझे बताता था और तस्वीरें भी दिखाता था. आह इंस्टा पर तो पिछले तीन महीने से कोई पोस्ट ही नहीं. रील और स्टोरी भी नहीं. फेसबुक स्टोरी खोलते ही, सुरीली की हथेलियों से पसीना छूटने लगा. यह कविता नुमा कुछ लिखा है एक ही साँस मे कविता पढ़ ली…

रस्सी देखी है ना
मतलब हाथ में लेकर
कोई कूदता है
कोई लटकता है
आज मेरे हाथ में भी है रस्सी
पर मैं कूद नहीं सकती

आज पहली बार सुरीली ने तोशी की एफ बी स्टोरी देखी है. 
यह क्या सुरीली तो बहुत अपसेट है, इस तरह के भाव पब्लिक में लिखे मीन्स मैटर सीरियस है. जो रस्सी कूदता नहीं वो लटकता है और यह भी लिखा कि वो कूद नहीं सकती… तो क्या, ओह नो. सुरीली ने चाय का कप दोनों हथेलियों के बीच ऐसे जकड़ लिया जैसे चाय खत्म होने पर भी वो कप को छोड़ने वाली नहीं. 'शायद इन सब से बात नहीं बनने वाली. मुझे तोशी से बात करनी ही पड़ेगी. क्या कर लेगा देव, ज्यादा से ज्यादा गुस्सा करेगा तो सुन लूँगी. कहीं ऐसा ना हो कि उसकी हाँ के चक्कर में देर हो जाए. नहीं-नहीं मुझे तोशी से अभी बात करनी है' सुरीली ने मन ही मन सोचते हुए तोशी को फोन लगा दिया. तोशी तो जैसे फोन हाथ में लिए ही बैठी थी. उसने फोन डिस्कनेक्ट कर दिया. सुरीली ने फिर से फोन लगाया फिर से डिस्कनेक्ट और इंगेज टोन. मगर सुरीली कहाँ हिम्मत हारने वाली थी. उसने कई बार फोन लगाया. तोशी ने फोन अटेंड कर बस इतना ही कहा, 'सब कुछ खत्म करके भी तुम्हारा मन नहीं भरा? अब क्या चाहती हो तुम मुझसे? देख ली ना मेरी स्टोरी? यही सच है मेरा. बस यही… खुश रहो जाकर अपने देव के साथ'

सुरीली के सामने कहानी स्पष्ट हो गई थी. अब कुछ भी समझना नहीं रह गया. इसे क्लियर कैसे किया जाये यही समझना था. सोशल अकाउंट से बढ़कर हिंट कहाँ मिल सकती थी. चाय का कप टेबल पर पटक कर सुरीली लैपटॉप के साथ बेड पर बैठ गयी. फेसबुक इंस्टा अलग-अलग विंडो पर खोल रखी हैं. इंस्टा तो ज्यादा कुछ नहीं बता रहा अलावा इसके कि देव से मिलकर आसमान में उड़ रही थी. फेसबुक पर टर्न करते ही स्क्रॉल करने लगी. पिछले 3-4 दिन से कोई एक्टिविटी नहीं. यह क्या पिछले हफ्ते का पोस्ट इस पर देव, तोशी और प्रांजल की नोकझोंक हुई है. देव इतनी जल्दी किसी की बात पर रिएक्ट तो नहीं करता फिर प्रांजल के कहने पर… और तो और तोशी से भी भिड़ गया. मुद्दा सुरीली को बनाया गया. हो क्या गया है इस प्रांजल को. हम दोनों के रिश्ते को इतनी अच्छी तरह से समझने के बावजूद भी कैसे तोशी को भड़का रहा है. वह अच्छी तरह से जानता है पर किस तरह से कह रहा है कि देव तोशी के साथ ज्यादा वक्त बिताने लगा बेचारी सुरीली अकेली पड़ गई. क्या ख़ाक अकेली पड़ गई मैं. क्या मैं देव की जिम्मेदारी हूँ. उसकी अपनी लाइफ है मेरी अपनी. दोस्ती का मतलब क्या यह होता है. मेरे साथ सिंपैथी की आड़ में कितना गंदा खेल खेल गया प्राँजल. गॉड देव के रिश्ता टूटने की वजह मैं हूँ लेकिन इसमें गलती तोशी और देव की भी तो है. एक दूसरे पर विश्वास न करके किसी तीसरे की बातों पर रिश्ता तोड़ने लगे. सुरीली ने देव की प्रोफाइल देखी. वहाँ पाॅटर के अलावा कुछ नहीं मिला. प्राँजल की प्रोफाइल देखते ही उसके होश उड़ गए. पिछले कई दिनों से वह लव ट्रायंगल वाली पोस्ट लगा रहा था. इस बीच तोशी से उसकी अच्छी दोस्ती हो गई थी. लगभग हर पोस्ट में तोशी का कमेंट जरुर चिपका था. उनमें से अधिकतर में लंबी-लंबी बातें. पूरा का पूरा ट्रायंगल सीन तोशी के दिमाग में प्रांजल में इंजेक्ट किया था. अभी हाल ही में उसका ब्रेकअप हुआ था और मूव ऑन करने का इससे बेहतर क्या तरीका होता. सुरीली को समझ में नहीं आ रहा था कि लोग अपने मजे के लिए किसी के इमोशंस के साथ कैसे खेल सकते हैं और तो और प्रांजल ने हँसी हँसी में ही यह भी प्वाइंट आउट कर दिया था कि तोशी देव को छोड़ कर तो देखे, देव सीधा सुरीली की बाहों में जायेगा और फिर सुरीली उसे मनाने का ड्रामा करेगी.

थोड़ा और स्क्रॉल करके ऊपर जाने पर सुरीली को उस स्वेटर की पिक्चर दिख गयी जो उसने देव को उसके बर्थडे में अपने हाथों से बनाकर गिफ्ट किया था. और तो और यह कैप्शन देखो, कौन करेगा ऐसा प्यार जैसा सुरीली देव से करती है! दोस्ती की अनूठी पेशकश. और उसके नीचे तोशी और देव दोनों के कमेंट्स. कमेंट में देव को कितना प्रोवोक किया गया है मेरी दोस्त तो नहीं करती ऐसा. बहुत डेडीकेटेड फ्रेंड है सुरीली. काश मेरी भी ऐसी ही फ्रेंड होती. 'सच बहुत बड़ा खिलाड़ी निकला प्राँजल' सोचते हुए सुरीली अपना माथा पकड़ कर बैठ गयी. तक़लीफ़ तो बहुत हुई यह सब देखकर मगर सुरीली को रास्ता मिल चुका है कि किस तरह देव को उसकी मंजिल तोशी तक पहुँचाना है. उसकी आत्मा चीख रही है देव को कभी सखा, कभी बहन तो कभी माँ बनकर स्नेह दिया. बदले में कुछ नहीं चाहा. इतना सब कुछ होता रहा और देव ने एक पल के लिए भी दोस्त की तरह मुझसे आकर बात नहीं की. उसकी नज़र में मेरी दोस्ती से ज्यादा वैल्यू उन बातों की हो गयी. देव, सुरीली का प्यार नहीं प्राउड था.

देव को तोशी से मिलवाकर सुरीली ने स्नेह की पथरीली डगर को अलविदा कहा. इतना आसान नहीं था देव को भुलाना… विपरीत दिशा में भागते हुए बस यही कहती गयी, 'मुझे इमोशनल एनेस्थीसिया दे दो.'

आख़िरी से पहले की ख्वाहिशें

"मैं तुमसे बात नहीं कर पाऊँगा, हाँ ये जानता हूँ तुम मुझसे बहुत प्यार करती हो और शायद यही वजह भी है"

"ठीक है तुम शब्दों में लिखते रहना, मैं आँखों से चूम लिया करुँगी, जीती रहूँगी अपने आप में तुम्हारी होकर"

"मुझे अफसोस है कि मैं कभी तुम्हारे सामने भी न आ पाऊँगा"

"मैं अपने आज़ाद ख़यालों में पा लिया करुँगी तुम्हारी झलक"

"कब तक बनाती रहोगी उम्मीद के मक़बरे?"

"तुम्हारे ख़यालों में तर साँसों के चलने तक"

"फिर?"

"फिर थोड़ी सी मुझे ज़मींदोज कर देना वहाँ, जहाँ चूमते हैं ये पाँव अलसुबह की ओस. महसूस लूँगी हर रोज तुम्हारी छुअन, थोड़ी सी मुझे जला देना उस पेड़ की लकड़ियों संग जिसे सींचा है तुम्हारे बचपन ने, गले लगाया है तुम्हारे यौवन ने, अपने आँसुओं से भिगोयी हैं जिसकी पत्तियाँ तुमने, मेरी हड्डियों से बनाना काला टीका… जो लगाया जाये प्यार भरी पेशानी पर. बाक़ी बची मुझ से बनाना एक नजरबट्टू..जहाँ भी रहो तुम मेरी आज़ाद रुह के साथ वहाँ रखना.
पूरी कर देना मेरी आख़िरी से पहले की ख्वाहिशें"

"----?----"

"मेरी आखिरी ख्वाहिश तो बस 'तुम' है"

तिल वाला लड़का

उसके दायें कंधे पर तिल नहीं था मगर ये तो बस उसे पता था. मुझे इतना मालूम है कि आज लिखने की मेज पर जब बैठी तभी अचानक मेरे मन में एक रुमान उभरा...अगर प्रेमी के दायें कंधे पर तिल हो, प्रेमिका अपने होंठ उस पर रखे तो प्रेमी के मन की सिहरन मेरी कविता के पन्नों को कितना गुलाबी कर सकेगी...
फिर क्या लोगों ने आँखों के खंजर से कुरेदना शुरु किया अब उसके दायें कंधे पर तिल होने से कौन रोक सकता है. तिल काला हो, भूरा हो या लाल क्या फर्क पड़ता, गुलाबी मोहब्बत ने तो जन्म ले लिया.
वो मोहब्बत नहीं जो दिल से आँखों में उतरकर स्याही बनी बल्कि वो मोहब्बत जो क़ागज़ पर बिन आग के धुएँ सी जली. हाँ, ये और और बात है कि तुम अपनी गर्दन पर हाथ फेरकर सोच रहे होगे कि कहानियों के रुमान में भीगी पागल सी लड़की कहीं इसी तिल की बात तो नहीं कर रही!

तिरंगा

 बचपन से ही मुझे केसरिया रंग प्रिय रहा. तब जबकि देशभक्ति का अभिप्राय नहीं मालूम था. उस रोज जब काकू को गाड़ी से उतारा जा रहा था तब भी मुझे इस रंग से कोई शिकायत नहीं हुई. काकी को चूड़ियाँ तोड़ते देख मेरे अंदर से कोई जय हिंद बोला था.
ये वैधव्य क्या कहूँ इसे... ये सावन है एक सच्चे सिपाही की प्रेमिका का. मेरे मन ने २१ तोपों की सलामी देते हुए काकी को बस इतना ही समझाया..."तेरी इन चूड़ियों के हरे रंग से ही तो तिरंगा बनता है."

कच्ची मिट्टी

 कुम्हार चाक पर कच्ची मिट्टी को हाथों की थाप से गढ़ा करता था. उसके बनाये हुए घड़े लोगों में इतने पसंद किए जाते थे कि बिना वजह ही लोग लेते थे. कुछ लोग तो बस देखने ही आते थे. उनकी सबसे बड़ी विशेषता एक ओर झुका होकर भी संतुलन बनाये रखना था. कुम्हार के अंदर न तो गर्व था न ही पैसों का लालच. एक दिन एक गायक उधर से गुजरा उसे भी ये कला पसंद आयी. वो वहीं बैठकर रियाज़ करने लगा.

एक दिन उसने कुम्हार के मन में ये बात डाल दी कि उसके गीतों से ही घड़ों ने संतुलन बनाना सीखा. कुम्हार मुग्ध था गायक पर उसकी बात मानता चला गया. फिर गायक बोला कि सभी के घड़े तो टेढ़े नहीं होते फिर तुम्हारे ही क्यों? कुम्हार को अपनी खासियत ही कमी लगने लगी...गायक को सुनकर उसकी चाक पर हाथों की थाप धीरे धीरे सीधी पड़ने लगी. गायक की रुचि घड़ों में कम हुई वो चला गया और एक दिन सब की रुचि भी...अब कुम्हार घड़े नहीं बनाता गीत गाता है.

श्वेत से लाल गुलाब तक का सफ़र

उँगली पर गिनने भर को ही दिन हुए थे शादी को हमारी. मेरा जीवन उसकी ख़ुश्बू से महकता इससे पहले ही मेरे जीवन की सुहागरात हो गयी थी. एक-दूसरे को स्पर्श करना तो दूर हमने आँख भी नहीं मिलायी. सात फेरों के साथ उसे अपना बनाकर लाया था. मेरा ध्येय उसकी देह नहीं था. अपनी भावनाएँ मार चुका था. अब कर्तव्य की बारी थी.

बहुत हिम्मत जुटाई मैंने उसकी तरफ श्वेत ग़ुलाब बढ़ाया ये कहकर कि इसमें जो चाहे रंग भर ले.

उसने साड़ी का पल्लू आगे बढ़ाया, "इसे श्वेत ही रहने देते हैं."

स्थिति स्पष्ट हो चुकी थी. मेरे चेहरे पर पसरी थकान ने देह को निढ़ाल कर दिया. रात लगभग दो बजे नींद खुली तो बिस्तर का वो स्थान रिक्त मिला. कमरे का पूरा सामान अपनी जगह था बस वो श्वेत ग़ुलाब छोड़कर.

मुझे चंद रात दीं पर उसी चाँद रात वो उठकर चली गयी थी.



तीन महीने की अनुभूति और तीन रातों की देखा-देखी बस जब संग इतना सा ही था तो मन शीघ्र ही उचाट होने लगा. घर पर भी मैं कम समय रुकने लगा. दीदी बात-बात पर परेशान हो उठती. पापा मुझसे कुछ नहीं कह पाते तो मेरे हिस्से का भी वो ही सुनती. सौभाग्या के साथ शेष समय बीतता रहता. कभी टी वी तो कभी उसकी तोतले स्वर में कहानियाँ बस यही चलता. खाने की मेज पर पसरा सन्नाटा और अधिक है अब. आँखों में पनपी अपेक्षा ने इसे बढ़ाने का काम किया. पहले से ही मैं कोई बहुत अधिक उत्सुक नहीं रहा विवाह को लेकर. काम के स्थान से लेकर मित्रों तक यही शिकायत रही कि सब कुछ अकेले ही कर लिया. वो तो अच्छा हुआ कि सब कुछ अकेले ही हुआ. अनुमेहा कहानी बनने से बच गयी.


खाने के बाद सौभाग्या से कुछ वार्तालाप और सोने की बारी. सौभाग्या रोज की तरह अपनी मामी का सामान देखने लगी. कितने मन से पापा ने हर उस सामान से कमरा भर दिया था जिसकी आवश्यकता अनुमेहा को होती. उसके पापा को स्पष्ट बोल दिया था कि वो अपनी बेटी को बस उन कपड़ों में विदा करें जिन्हें पहनकर वो हमारे घर में अपने शुभ क़दम रखेगी. आज भी सौभाग्या मुझसे कह कर सोने गयी कि सुबह होते ही मैं उसकी मामी को लेकर आऊँ.


एक अनचीन्हा सा स्पर्श मेरे पास क्यों रहता है अब तक. तीन महीने हो गये. न तो कोई उसका कोई साथ न ही मुड़कर आने की सूरत. पापाओं की वार्तालाप भी इस बात पर आकर समाप्त हो गयी कि ईश्वर ऐसी बेटी किसी को न दे.


मैं स्मृतियों में था तभी व्हाट्सएप संदेश की बीप हुई. रात १० बजे कौन ही याद करता तो कौतूहल वश उठाकर देखा. अपरिचित नम्बर से आये 'हेलो' का उत्तर दिया तो उधर से पुनः सन्देश आया…*कल समय हो तो हम मिलते हैं.

मेरी आँखों में विस्मय तैर गया. मेरे 'न' कहने पर उधर से कई संदेशे एक साथ आये पर कोई गुत्थी न सुलझी तो मैंने फोन बंद कर किनारे रख दिया. सुबह देखा तो अंतिम संदेश…*तुम्हारा दिया हुआ उपहार 'श्वेत ग़ुलाब' तुम्हें लौटाना है. नीचे पता लिखा था.


बहुत कुछ याद आ गया मुझे. जैसे समय आगे बढ़ने ही नहीं दे रहा झकझोर देता है और मैं चुपचाप समर्पण कर देता हूँ. सर्दियों की कड़कती हवा मेरे आसपास दर्द का मफ़लर… बस यही रह गया जीवन. अनमना सा मैं मिलने चला गया. शिफॉन की ग़ुलाबी खुले पल्लू में साड़ी के अंदर जैसे दूध और हल्दी मिश्रित कोई प्रतिमा रख दी गयी हो. अनु...मेह...मेरे स्वर को वाक तंतु ने उच्चारित होने के पहले ही अंदर खींच लिया. चेहरे पर भाव नदारद थे और शृंगार भी. माथे पर कुमकुम की बिंदी. अधर तो स्वयं ही लाल इनको लाली की जरुरत कहाँ! गर्दन की लंबाई की परिधि में लटकता हुआ मंगलसूत्र नाम का धागा अब भी है. साहस जुटाकर पैर भी देख लिए. तसल्ली की कुछ बूँदें मन को तर कर गयीं कि दोनों पैरों की उँगलियों में बिछिया भी. उसकी चंचल सी आँखें यहाँ-वहाँ जाने क्या देख रही थीं, एक बार तो मेरी आँखों में देखते ही हट गयीं. झुकी तो नहीं पर कहीं और ही घूमती रहीं.


हाय-हेलो की औपचारिक सी अनौपचारिक बात हुई. मेरे पास बोलने को कुछ नहीं था.


"जानते हो मैंने सोचा था जब हम मिलेंगे तो कोई और बात नहीं करेंगे." उसने चुप्पी तोड़ी.


"जब नहीं मिले तब भी कोई बात हुई क्या हमारे बीच?" मेरे इतना कहते ही वो चुप हो गयी.



"हमारे बीच कोई और बात न होने का कोई मतलब भी है." जाने क्यों वो घुमाना चाह रही थी.


"कोई बात होती तो क्या कोई फ़र्क पड़ने वाला था?" मैंने पूछ ही लिया.


"तुम ऐसा क्यों सोचते हो?"


"बिकॉज़ यू नो इट वुडन्ट हेल्प." मैं बाहर आकाश में छितरे बादलों को देखने लगा. शीशे की खिड़की से बाहर दिख रहे बादलों का रंग और मेरे सामने बैठी औरत का रंग मुझे एक समान लग रहा था. समझ नहीं पा रहा हूँ नीला कहूँ या स्याह. होटल पैराडाइज इन जितना अपनी भीतरी साज-सज्जा के लिए प्रसिद्ध है उतना ही बाहर दिखते मनोरम दृश्य के लिए भी. मुझे घुटन सी हो रही है. उसकी बात का कोई उत्तर नहीं दे पाया.


"क्या हमें अपना जीवन अपने हिसाब से जीने का अधिकार नहीं मिलना चाहिए?" उसने पुनः मौन तरंगों पर प्रहार किया.


"हाँ हाँ क्यों नहीं!" मैं तो जैसे इसी बात की प्रतीक्षा कर रहा था.


"तुमने मुझसे नहीं पूछा तो मैं ही बता देती हूँ."


"क्या?"


"यही कि मैं किसी से प्रेम करती हूँ." ठंडी हवा का झोंका मेरे कानों को चीरता हुआ निकल गया. क्या यही बकवास करने के लिए मुझे बुलाया था! अपने मन से ही पूछ बैठा मैं.



"अब अगर किसी और से प्रेम करती हो और अपने वैवाहिक जीवन को प्रयोग की वेदी पर रख ही चुकी हो तो चली क्यों नहीं जाती उसके पास? क्या लेने आयी हो मेरे पास? क्यों बुलाया मुझे? क्या यही सब सुनाने के लिए? बोलो...है कोई उत्तर तुम्हारे पास?" मेरा स्वर तीब्र और तेज भी हो गया था. गुस्से से मेरा चेहरा तमतमा गया. ये सच है कि उसकी ओर से ऐसा ही कुछ प्रत्याशित था परंतु सच को इस तरह सुनकर मैं स्वयं को सम्हाल नहीं पाया. मेरे कहने के दो मिनट बाद भी जब कोई उत्तर नहीं मिला तो मैंने उसके चेहरे की ओर देखा.


यह क्या! उसके चेहरे पर तो सादगी पसरी है जैसे मेरी बात का कोई प्रभाव ही नहीं. मेरे पीछे के खुले आसमान को देखकर पढ़ने का प्रयास करती सी लग रही थीं उसकी आँखें. मेरी आँखों के लगभग २० डिग्री के अंतर पर होने के कारण मैं अब अच्छे से उसका चेहरा देख पाया. आँखों के नीचे गहरे काले घेरे उभरे हुए, उसने इन पर शृंगार की कोई परत भी नहीं चढ़ायी है. एक बार मेरा मन बोला भी कि प्रेम करने वालों का तो ये चेहरा नहीं होता पर मैं गलत भी हो सकता था इस बात से सहानुभूति की एक लहर दौड़ गयी मेरे अंदर. उसका नितांत मौन हो जाना अखर गया. मैं पुनः बोल पड़ा.


"कुछ और या कहानी ख़त्म?"


"कैसे ख़त्म हो जाने दूँ अपने प्रेम की कहानी?"


"तो जाओ न उसी के पास. क्यों आयी हो यहाँ?"


"इसके लिए मुझे तुम्हारी मदद चाहिए होगी."


"कैसी मदद?"


"मैं जिसके साथ प्रेम संबंध में हूँ वो शादीशुदा है."


"अच्छा...और तुम यहाँ मेरी मदद माँगने आयी हो? क्या समझा है तुमने मुझे...तुम्हें क्या लगता है मैं एक साथ इतनी ज़िन्दगी ख़राब करुँगा?"


"तुम मुझे ग़लत समझ रहे. हम लोग बहुत दिनों से प्रेम में हैं. ऐसे कैसे छोड़ दूँ?"


"फिर तुमने मुझसे शादी क्यों की?"


"मेरे पास कोई रास्ता नहीं था. मुझे पता था कि मैं तुम्हें मना लूँगी पर…"


"पर क्या?...बोलो? और ये बातें तो तुम घर छोड़े बग़ैर भी कह सकती थीं."


"जब उसने ख़ुद शादी की तो उसे मेरी इतनी याद नहीं आयी जितनी मेरी शादी होने के बाद आयी. शायद मेरा तुम्हारी बाहों में सोना उसे अखर जाता तभी उसने मेरी शादी की रात ही मुझे अपने प्यार का वास्ता देकर समझाया और मैं ख़ुद को रोक नहीं पायी." उसकी बात सुनकर मेरे पैरों के तलवों में सुइयां सी चुभने लगीं जैसे किसी ने दोनों पाँव बाँध दिए हैं. ठण्ड कानों को सुन्न कर चुकी है. अपनी कुर्सी से उठकर किसी तरह शीशे तक गया. छूकर देखा सब कुछ ठीक है.


"तुम्हें शारीरिक रुप से कुछ नहीं हुआ है. तुम स्वस्थ हो. जब हम कोई अप्रत्याशित बात सुन लेते हैं तो सभी के साथ ऐसा ही होता है. कुछ बातों के प्रति हमारा मस्तिष्क अधिक उद्दीप्त होता है." ज्ञान की प्रयोगशाला बोलती हुई मेरे पीछे आ गयी.


'ये जिसे शॉक समझ रही ये तो एक तरह से शॉक थेरेपी है मेरे लिए पर इसे क्या पता' मैं अपने आप से बड़बड़ाया. उसकी बातों का मेरे पास न तो कोई उत्तर था न ही समाधान. मैं बाय कहकर तेजी से दरवाज़े तक आया.


"इस श्वेत ग़ुलाब का क्या करुँ मैं?" उसकी आवाज़ पर पीछे मुड़ा.


"काले रंग से रंग लेना." सहसा ही मेरे मुँह से निकल पड़ा. दस मिनट पहले का चेहरा अपनी आभा खोता दिखा. पहली बार आँखें मिलीं. बहुत से प्रश्न-उत्तर थे दोनों के बीच. मन में आया एक बार उसे अपनी अनु कहकर पुकारुँ. पूछूँ कि इस तरह किसी के पीछे लगकर अपना जीवन क्यों मिटा रही. जिसे छोड़ना था वो छोड़ गया पर मैं हिम्मत न जुटा पाया.


"पूछोगे नहीं कुछ?" शायद उसने मन की सुन ली.


"...न...नहीं." अपनी मुट्ठियाँ भींचते हुए मैंने सधा सा उत्तर दिया. सामने ग़ुलाबी सूत में लिपटी 'स्त्री' कोई और नहीं मेरी अर्धांगिनी है. बहुत सी भावनाएँ मचल उठी. भागकर उसे सीने से लगा लेने का मन हुआ पर अहम ने रोक लिया. आज पहली बार मेरे हृदय में रिश्ते की आग भड़की थी. उसने अपना बायाँ हाथ आगे किया और मैंने दाहिने हाथ से उसे थामकर गले से लगा लिया. आज पहली बार पब्लिक प्लेस में मैंने किसी स्त्री का चुम्बन लिया. मेरे मन की दृढ़ता साक्ष्य है इस बात की कि परिणय प्रकृति का सर्वोत्तम उपहार है.


सहसा ही एक झिझक ने आ घेरा मुझे. ये तो वही है जिसने मुझे धोखा दिया. मैं ऐसा कैसे कर सकती है.


"व्हाट हैपेंड?" मेरे अलग होती ही वो बोली.


"हमारे बीच कुछ हो भी सकता है क्या?" मैं बड़बड़ाया.


"वो हो चुका जो होना था. अब तुम उस फीलिंग से इनकार नहीं कर सकते जो हमारे बीच अभी पनपी." मैं कौतूहल से उसका चेहरा देखने लगा. सच का दृढ़ भाव दिखा वहाँ. वो सच जो मैं न बोल पाता और शायद डिज़र्व भी नहीं करता.


"मैं यहाँ एक पल भी नहीं रुक सकता. बहुत घुटन हो रही है."


"चलो कहीं खुले में चलते हैं."


चहलकदमी करते हुए हम बाहर निकल आये. दोनों ही शाँत हैं सम्भवतः पानी में जो पत्थर कुछ देर पहले उछला था वो नीचे बैठते ही पानी को स्थिर कर गया. चलते-चलते कई बार अनु मेरे बहुत पास आ जाती और उसकी साड़ी लहराती हुई मुझे छू जाती. मैं बिना किसी झिझक कदमताल कर रहा. कुछ दूरी पर एक नेवला देखते ही वो डर गई. उसने मेरी कुहनी के भीतर से अपनी कुहनी का घेरा बना लिया. मुझे समझ में नहीं आ रहा कि मैं इतना सहज कैसे हो सकता हूँ.


"मुझे पीला रंग बहुत पसंद है और तुम्हें?" उसने मेरी तरफ प्रश्न उछाला. मैं समझ गया अब ग़ुलाब अपनी रंगत बदलने वाला है.


"जो तुम्हें पसंद." वो खिलखिलाकर हँसी. मेरा रोम-रोम पुलकित हो गया कि आज मैं कितने दिनों के बाद किसी के मुस्कुराने का कारण बना हूँ. अगले ही पल सीने में कुछ कचोटता सा लगा.


"कुछ देर बैठते हैं." वो बेंच देखते हुए बोली.


"तो क्या आज ऑफिस न जाऊँ?" मैंने घड़ी पर नज़र डाली.


"अब कैसे जाओगे?" उसके प्रश्न को ही मैं उत्तर मान बैठा. बेंच पर वो मेरे पास ही बैठ गयी. मैंने सिर टिकाकर आँखों को बंद कर लिया. उसके और मेरे बीच हवा आने भर का फासला है पर उसके अहसासों से एक छुअन मिल रही है. आज वो साथ है तो अच्छा लग रहा...क्या मुझे पत्नी का ही सामीप्य चाहिए? अपने आप से ही कई प्रश्न कर रहा है मन. अपने माथे पर किसी स्पर्श के अनुभव के साथ आँख खोल दी तो देखा वो अपने रुमाल से कुछ साफ कर रही.


"देखो न चिड़िया की बीट…"


"और तुमने अपना रुमाल ख़राब कर दिया."


"तो क्या उसके लिए कोई दूसरी लाओगे?"


"दूसरा गंतव्य तो तुमने देखा है."


"हम्म…"


"अनु...तुमने क्या सोचा?"


"यही कि जब तुम भी मेरा साथ नहीं दोगे तो मैं ही उस पर प्रेशर करुँगी कि डाइवोर्स देकर मुझे अपना ले."


"तुम्हें क्या लगता ये सब इतना आसान है? वो मान जायेगा तुम्हारी बात? उसकी शादी हो गयी. वो अपनी लाइफ में सेट हो गया. किसी के चले जाने से एक समय के बाद वो स्पेस ऑटोफिल हो जाता है और वो अपना एनवायरनमेंट ओक्यूपाई कर लेता है....और ख़ुद ही सोचो जब वो प्लेस फिल हो गया तो एडजस्टमेंट करना पड़ेगा. क्या प्रेम में ये पॉसिबल है?"


"शायद तुम सही हो!" अनु ने गहरी साँस छोड़ते हुए कहा. मैंने अपनी बात जारी रखी.


"अनु प्रेम में प्रेम किया जा सकता है. किसी के आने और चले जाने के बाद भी पर प्रेम में वापसी की सूरत को बस समझौता कहते हैं. क्या किसी रिश्ते की बुनियाद समझौता हो सकती है?"


"हम्म!" अनु अब भी शांत है.


"मान लो उसने तुम्हें न अपनाया या अपनाए जाने के बाद तुम्हारे बीच वो प्यार न रहा…?"


मेरा मन जाने क्यों उद्विग्न होकर बहा जा रहा. मैं अनु को गुमराह तो नहीं कर रहा? कहीं मैं उससे प्यार तो नहीं करने लगा? लेकिन एक्स्ट्रा मैरिटल अफेयर से रोकना ग़लत भी तो नहीं. मैं उधेड़बुन में था.


"सुनो, अगर यही सब बातें मैं तुमसे कहूँ? तो क्या तुम उसे भूल जाओगे? क्या हम एक नया जीवन शुरु कर सकेंगे?"अनु ने मेरे पैरों के नीचे ठीक सामने बैठकर मेरी आँखों में आँखें डालते हुए कहा.


"ये क्या कह रही हो तुम?" मैं आवेश में बोल पड़ा.


"वही जो तुम सुन रहे हो."


"लेकिन मैंने कब कहा कि मेरे साथ ऐसा कुछ है?"


"उस रात जैसे ही मैं कमरे में पहुँची थी तुम्हारी एक्स का व्हाट्स एप मेसेज आ गया. मेसेज पढते ही मेरे होश उड़ गए. सारे सपने एक साथ ख़त्म दिखे. मैंने चेक किया तो पाया कि तुमने अपना फोन 24 घण्टे पहले ही फॉर्मेट किया था. यहाँ तक कि व्हाट्स एप एकाउंट डिलीट भी किया था. उस मेसेज के सहारे मैं ब्लू डायरी तक पहुँची जिसके हर पेज पर खून से कुछ न कुछ लिखा था. बहुत बड़े सदमे की रात थी वो मेरे लिए." मैं अपराधी की तरह अनु की बात सुन रहा था तभी ख़याल आया.


"तुम्हें मेरे मोबाइल का पासवर्ड कैसे पता चला?"


"सौभाग्या उसमें गेम खेल रही थी वो पहले से ही फ्री था. ये सब देखकर मुझे तुमसे नफ़रत हो गयी कि मेरा क्या क़ुसूर था? मुझसे शादी ही क्यों की? तुम्हें किसी के साथ शेयर कैसे कर सकती थी?"


"ओह्ह शिट."


"वो अतीत है तुम्हारा. अब तुम्हें सब कुछ भूलना होगा. वो सब बातें याद करो जो मुझसे कहीं हैं अभी."


"अनु...मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा. मैं क्या करुँ, कहाँ जाऊँ?"


"क्या अब भी तुम्हें ये सोचना शेष रह गया? क्या मैं बस इसलिए त्याग करुँ कि स्त्री हूँ और तुम पुरुष हो तो कुछ भी करने के लिए स्वतंत्र हो?"


"शायद तुम सही हो."


"शायद नहीं सौ फीसदी."


"ये बताओ जब तुम मुझसे इतनी नाराज़ थीं तो यहाँ तक कैसे पहुँची?"


"मुझे पिछले हफ्ते दीदी ने फ़ोन किया. उन्होंने बस इतना ही कहा कि मैं उनका अतीत जानती ही हूँ अब अगर भाई के साथ कुछ बुरा हुआ तो…"


"ह्म्म्म… बहुत बुरा हुआ उसके साथ. सौभाग्या एक साल की भी नहीं थी जब जीजाजी चल बसे."


"वो तुम्हें इस तरह नहीं देख सकतीं"


"और तुम?"


"मैं भी." बेंच से उठकर हम रास्ते पर आ गए. शायद यही मेरी भटक को मिला सही रास्ता है. उस रात अगर वो अँधेरे में उठकर न जाती तो मेरे जीवन में उजाला कभी न आ पाता.


"आज हमारे प्रेम को लाल गुलाब मिल गया." इतना कहते ही उसने मुझे कसकर छाती से भींच लिया. उसकी गर्म साँसें मेरे हर ज़ख़्म पर मरहम सी लग रही हैं.



अनकही से उपजा अनकहा सा कुछ

वो वाचाल था और मैं भी. हमारी भावनाओं के कितने नदी-समन्दर मिल जाते थे आपस में. हर बात पर हम उस शब्द को पकड़ते थे जो कहने से रह गए हों. बातों ही बातों में रुह-अफज़ा होते.


फिर एक दिन उसने मौन को दस्तक दी. मेरा वाचाल अकेला रह गया. मेरे कंधों पर भरम की तितलियाँ फड़फड़ाने लगीं. वाचाल मरने को था. मौन ने वाचाल को गले लगा लिया. मैं अपना स्व भूलती रही. मुझे पता था उसका वाचाल टकराया है किसी सुनामी से. सुन्न पड़ गया कंधों पर तितलियों का फड़फड़ाना.


और उस रोज उसका मौन मेरे कंधे पर आ बैठा. उसने मुझे वो मौन लौटाया जो उसके जीवन में आयी सुनामी का परिणाम था. मैं द्रवित हुई उस अनुभूति से. कैसे छुपा पाया होगा ये बवंडर वो अपने भीतर. सोंख लेना चाहती हूँ अब वो दर्द मैं सारा का सारा. श्री हीन हुई थी अब हीन भी हूँ. मैं और वो साथ-साथ समानांतर चल रहे हैं अब... मौन के अधिकतम पर. मेरी प्रतीक्षा को कोई सावन नहीं बना, कोई नक्षत्र नहीं न ही कोई राशि.

तीन लघुकथाएँ

 स्पर्श


अँधेरों में एक काली छाया उभरी. विरह ने आगे बढ़कर उसे होठों से लगाना चाहा. कोने में पड़ी सिगरेट सुलग उठी और देखते ही देखते विरह के होठों से जा लगी. एक अरसे से निस्तेज पड़ी राखदानी को आज स्पर्श मिला.


क्रोनोलॉजी


पहाड़ बूंदों के इंतज़ार में तब तक अपने आँसू अंदर दबाता रहा जब तक पेड़ चिड़िया को आलिंगन में लिए रहा. आलिंगन तब तक सुखद रहा जब तक पेड़ ने बौराई हवा की राह तकी.


फिर एक माँ ने जैसे ही अपने नवजात को चूमा, हवा इठलाकर पेड़ से जा लिपटी. पंख फड़फड़ाकर चिड़िया उड़ी उसने पहाड़ को अपनी आग़ोश में भर लिया. मेघ बरसते गए और पहाड़ जी भर रोता रहा.


इश्क़ फिर भी है


कागज़ स्याही पर फ़िदा है और कलम कागज़ को देखते ही कसमसाती है. तीनों अलग-अलग सियाह से हैं.

तीन लघुकथाएँ

(१) प्रेम जो प्रेमिका को खाता है


उसके हाथों ने छत नहीं अचानक आसमान को छू लिया. नए-नए प्रेम का असर दिख गया. ढीठ मन सप्तम स्वर में गा दिया गोया दुनिया को जताना चाह रही हो कि अब तो उसका जहाँ, प्रेम की मखमली जमीन है बस क्योंकि प्रेम उरूज़ पर था.

फिर एक रोज चौखट पर रखा दिया अचानक बुझ गया और उसकी शाम कभी नहीं हुई. हवा के बादलों पर बैठकर वो आसमान कहाँ छू पाती? एक ख़्वाब ज़िंदा लाश बन गया उसके अंदर.



(२) प्रेम जो प्रेमी को खाता है


उसके कपड़ों की क्रीज़, परफ़्यूम की महक, हेयर कलर और गॉगल्स के पीछे मुस्कराता चेहरा आजकल सभी की निगाह में है. ग्रेजुएशन की पढ़ाई एक ओर हो गयी, अपाचे तो ख़ुद ब ख़ुद डिस्को, होटल और लांग ड्राइव के लिए मुड़ जाती है.

उस रोज बारिश ज़ोरों पर थी फिर भी अपाचे स्टार्ट कर वो वेट कर रहा था. लोमबर्गिनी से उतरती अपनी माशूका को देखकर उसकी आँखों का रंग अचानक बदल गया. अगले दिन शहर के अखबारों में सुर्खियां टहलती रहीं--ईर्ष्या की जलन किसी के चेहरे पर तेजाब बन बही.



(३) समाज जो प्रेम को खाता है


पहली बार दवा की एक दुकान पर दोनों मिले थे. एक को बीमार माँ तो दूसरे को बहन के लिए दवाई चाहिए थी. सूखा चेहरा, मैले कपड़े, अबोले से वो दो क़रीब आ गए. अब दवा के ग्राहक दो नहीं एक ही होता. कभी-कभी माँ और बहन की तीमारदारी भी एक ही कर लेता.

दर्द न बाँट सकने वाला समाज ही उनके ख़िलाफ़ खड़ा हो गया. समाज की आँखों में बेचारगी, लाचारी, जरूरत, स्नेह, मोह… कुछ न आया बस उनका लड़का और लड़की होना खटका. दो से जस तस एक हुए वो दोनों पहले अलग फिर सिफ़र हो गए. किसी का न होना इतना बुरा नहीं पर आकर चले जाना सच जानलेवा ही तो है.


विशेष- इस श्रंखला की तीन लघुकथा. इसे लिखने की प्रेरणा मुझे तेजस पूनिया जी की कहानी "शहर जो आदमी खाता है" को पढ़कर मिली.

पॉजिटिव में पॉजिटिव


हम अभी जस्ट मैरीड ही हैं. हाँ नहीं तो लॉक डाउन में ही कर लिए शादी. क्या है कि अम्मा जी को नया अचार रखना था सो मर्तबान ख़ाली करने थे. जबे देखो तबे परधान जी का फ़ोन मिलाए के कहें…"लाली की अम्मा से कहि देव हम बीस जन आई के भौंरी डरवाय लै जैहैं. बियाह तो अबहिने करी लें. हमार अचार न चलिहे तब तक." बेचारी अम्मा ने पिता जी का उठना-बैठना मुश्किल कर दिया. पिता जी कहते ही रह गए कि हम अच्छा मर्तबान खरीद के दे देई जो समधिन मान जाए. अम्मा को डर था कहीं लॉक डाउन के चक्कर में बिटिया कुँआरी न रह जाए. ख़ैर पंडित जी को कुछ दे दिवा के बियाह हो गया.

आज तीसरे दिन बारिश के बाद तनिक धूप निकली तो कमरा में रोशनी हुई. ई थोड़ा और पास आकर बोले,

"सुनो बहुत सुंदर लग रही हो. आज देखा तुमको रोशनी में...आओ न एक सेल्फ़ी खींचे"

"हाय दैया, अभी कोई देख ले तो"

"आओ न हम झुंझुन का मोबाइल मांग के लाए हैं" कहते हुए ई हमारे बाजू में खड़े होकर सेल्फ़ी लिए. हम शरम के मारे अपना मुंह इनके पीछे छुपा लिए. अम्मा जी के आवाज़ देते ही मोबाइल जेब में रख के बाहर भागे.

ई का सामने देखकर हमारे हाथ पैर फूल गए. इनके बुशर्ट पर हमारे होंठ के निशान... वो भी पीछे से. हम दरवाजा, दीवाल सब बजा दिए पर ई मुड़े तक नहीं. "हाय दैया-3" कहकर हम दिवाल पर खोपड़ी दे मारे. थोड़ी ही देर में ई झनझना के बुशर्ट फेकते हुए कमरे में घुसे.

"कर लियो मन की...का जरूरत थी यहाँ चुम्मी लेने की?"

हम कुछ नहीं बोले तो ढूंढते हुए अंधेरे में आ गए.

"अरे हम गुस्सा कहाँ रहे जो तुम बुरा मान गई. बस एक बार सब ठीक हो जाए हम भी घूमने जाएंगे. पियार करने को थोड़ी मना किए वो तो सब लोग चिढ़ा दिए तो…"

"मग़र हम चुम्मी नहीं लिए थे. हम तो बस…"

"का हम तो बस...अब बोलो न?"

हम कुछ बोलते इससे पहले ही मीठी अपने चाचा को बुला ले गई. हम चुपचाप खड़े कमरे की खिड़की से छनकर आ रही धूप देखने लगे. 'का अजीब है अंधेरे में दिखे न और उजाले में धूल के कण भी सोना माफ़िक चमके. इंसान सच माने तो का माने…'

तनिक देर में घर में हाहाकार मच गया. इतना सुना कि मीठी के चाचा को परधान के घर बुलाया गया. सब एक-दूसरे को चुप करा रहे हैं, कोई न जान पाए कि इनका कॅरोना टेस्ट मंडप वाले दिन हुआ था. हम जड़ के समान खड़े रह गए. अम्मा तनिक देर में आकर हमारे कमरे की कुंडी बाहर से लगाने लगीं. हमने बहुत पूछा कोई कुछ न बोला, ऊपर से सब हमको ऐसे घूरे जैसे हमही कुछ किये हैं.

आज तीन दिन हो गए. किसी से कोई बात नहीं. दिन में दो बार खाना पानी मिलकर फिर दरवाजा बंद. शौच, स्नान के लिए पीछे से निकलकर जाना फिर वहीं वापस आना. कित्ता बदल गया छः दिन में हमारा संसार बस एक अम्मा की हठ की वजह से. जब तब खिड़की से धूप छनकर आ जाती है और उसमें बिखरे रेत के कण हमें अहसास दिलाते हैं कि उजली दुनिया में कितनी गंदगी है!

आईने वाली राजकुमारी: भाग IV


चेतक हवा से बातें कर रहा और राजकुमारी स्वयं से. उनका मन उलझनों से घिर रहा था और वो उड़कर महल तक पहुँचना चाहती हैं. महल में पहुँचते ही सर्वप्रथम रानी माँ के गले लग जाएँगी और उन्हें विस्तार से बताएँगी कि उनके साथ क्या-क्या घटित हुआ. जीवन के अठारह वर्ष यही तो करती आयीं हैं. माँ के अंक में शिशु की भाँति समा जाना. विह्वल सी होकर चेतक को एड़ पर एड़ लगाए जा रहीं थीं. सहसा ही चेतक की धीमी होती गति ने संकेत दिया, महल समीप ही है. मुख्य द्वार के सामने पहुँचते ही राजकुमारी चेतक को सैनिक के हवाले कर भीतर की ओर भागीं.
"तुम चेतक के साथ दौड़ की स्पर्धा करने गयीं थी क्या?"
"क्यों माँ सा, आपने ये प्रश्न क्यों किया? हम तो चेतक की लगाम थामकर उड़ते चले आए"
"तुम्हारी बढ़ी हुई श्वांस को देखकर कहा. कहीं कुछ अघटित तो नहीं घटित हुआ?"
"कैसा अघटित माँ सा? वैसे भी जो होता है वो पूर्व निर्धारित ही होता है फिर उसे अघटित क्यों कहें?"
"आज अपनी प्रथम यात्रा में ही ऐसा प्रतीत हो रहा कि तुम बहुत कुछ सीखकर आयी हो" रानी माँ ने विस्मय से राजकुमारी के नेत्रों में देखकर कहा. इस पर राजकुमारी मौन होकर दूसरी ओर देखने लगीं…'लग रहा माँ सा ने हमारा चेहरा पढ़ लिया' आगे कुछ भी बोलना उन्होंने उपयुक्त नहीं समझा. नन्हा सा मन इसी क्षण बड़ा हो गया कि उसने पलों में समस्या सुलझाती माँ सा के सामने असत्य का सहारा लिया. उन्हें भान हो गया यदि माँ सा को सारी बात पता चली तो अकेले नहीं जाने देंगी. राजकुमारी को अभी इसका आभास कहाँ कि अपनों के सामने बोला गया पहला असत्य उन्हें कठिनाइयों के हाथ को कठपुतली भी बना सकता है.
"माँ सा हमें थकान हो रही"
"जाओ विश्राम करो" इतना सुनते ही राजकुमारी अपने कक्ष की ओर बढ़ी. उन्हें विश्राम से अधिक एकांत की आवश्यकता थी. जल- प्रक्षालन कर अपने शयनगृह में आ गयीं. न चाहते हुए भी आँख बंद करने पर "वो" राजकुमारी की यादों में आ गया. उन्होंने झट से आँखें खोल दीं. सिरहाने जल रहे दीये की बाती पर तर्जनी रख दी. शयनगृह अंधेरे की आभा से आलोकित हो उठा और वो उन स्मृतियों से…'किसी चेहरे में इतना आकर्षण कैसे हो सकता है'...उनके मन का एक भाग उस ओर खिंच रहा था जिसे वापस लाने का निरर्थक प्रयास वो करती रहीं. कभी उजाले से भागकर तो कभी अंधेरों में स्वयं को समेटकर. स्नेह की एक अनदेखी डोर पर मन बावरा हो चला. शब्द तो नकारे जा सकते थे पर मन के भाव नहीं. उनकी सोच में तो यह तक आ गया कि...उसने कुछ देर और रुकने को उन्हें विवश क्यों नहीं किया!

आईने वाली राजकुमारी: भाग III


गतांक से आगे--


"तो आप द्वैत गढ़ की राजकुमारी हैं?" उन अपरिचित ने प्रश्न कर राजकुमारी का ध्यान भंग करने की चेष्टा की.
"हम किन शब्दों में अपना परिचय दें तो आप समझेंगे?" राजकुमारी ने भी पलटवार किया.
"आप अपनी जिह्वा को अधिक विश्राम नहीं देती हैं?"
"आप प्रश्न अधिक नहीं करते हैं?"
"हमें आपके प्रत्युत्तर भाते हैं"
राजकुमारी के नेत्रों में न परन्तु हृदय पर हाँ की छाप लग चुकी थी.
"आप यहाँ आती रहती हैं क्या?"
"हम क्यों बताएँ?"
"हम पूछ रहे क्या ये कारण पर्याप्त नहीं?"
"आप तो हमसे ऐसे कह रहे जैसे हमारे सखा हों!"
"आप हमारी सखी तो हैं"
"हमने कब ऐसा कहा? हम तो आपसे बात भी नहीं कर रहे"
"बात तो आप अब भी कर रहीं और तो और हमें अंजुरि में जल भरकर दिया"
"बात करने का तो कुछ और ही प्रयोजन है और जल देकर तृष्णा बुझायी"
"आपको देखते ही रेत का एक जलजला हमारे भीतर ठहर गया और आप कहती हैं तृष्णा बुझ गयी"
"आप हमें बातों के जाल में उलझा रहे हैं"
"आपके नेत्रों ने हमारा आखेट किया है"
"यह कैसा आरोप है?"
"क्या प्रमाण नहीं चाहेंगी?"
"---"
"हमें अनुमति दीजिए कि हम आपके हृदय के स्पंदन की अनुभूति कर आपको प्रमाण दे सकें!"
"हमारा हृदय...स्पंदन...प्रमाण...बेसिरपैर की बात कर रहे हैं आप"
"विवाद नहीं सुंदरी अनुभव कीजिए"
इतना सुनते ही राजकुमारी के हृदय का स्पंदन गति पकड़ने लगा. स्वयं को बचाने के प्रयास से वहाँ से वापस जाना ही उपयुक्त लगा.
"कहाँ चली सुंदरी...सुनिए तो...हम पूर्णिमा की संध्या यहीं झील के किनारे आपकी प्रतीक्षा करेंगे. आपको आना ही होगा अगर हमारे चन्द्रमा से मिलना को प्रतीक्षारत हैं आप..."
राजकुमारी ने जाते हुए इतना सुन लिया था. तेज गति से चेतक की ओर भागी. बैठते ही एड़ लगायी और चैन की साँस ली.
अगला भाग पढ़ने के लिए कल तक की प्रतीक्षा...

आईने वाली राजकुमारी: II


राजकुमारी इठलाती हुई महल से बाहर आ गयी. कुछ हो क्षणों में उनका चेतक हवा से बातें करने लगा. पालकी और चेतक दोनों एक-दूसरे के विपरीत पर उनमें से किसी को भी एक-दूसरे के साथ की आवश्यकता ही कब थी. वो तो रानी के आदेश का पालन करना था. राजकुमारी आज अपने प्रथम भ्रमण में इतनी उन्मुक्त होकर विचरण कर रहीं थीं. कभी उड़तीं तो कभी रुककर सुरम्यता को अपलक निहारतीं. आज का भरपूर आनंद ले रही थीं. ठीक मयूरी विहार के सामने पहुँचकर चेतक को एड़ लगायी. उतरते हुए उसकी पीठ पर थपकियां दीं जो कि आभार है इस प्रथम सैर के लिए. सामने झील से कल-कल करते हुए पानी ने उन्हें अपनी ओर आकर्षित किया और वो मंत्रमुग्ध हो उसी ओर भागीं. ऊपर से गिरते हुए स्वच्छ जल से अठखेलियाँ करने लगीं. तभी विपरीत दिशा से आई आवाज ने उनका ध्यान खींचा…
"पीने को जल मिलेगा सुंदरी?" अनजानी आवाज ने उन्हें चौंका दिया. पीछे मुड़ते ही एक छबीला, गहरे नयन-नक्श वाला युवक सामने था. जिसके चेहरे पर अप्रतिम आभा थी...जल भूलकर वो राजकुमारी के सौंदर्य को अपलक निहारता रह गया.
"बड़े निर्लज्ज प्रतीत होते हो!" राजकुमारी के इतना कहने पर भी उसने पलकें नहीं झपकायीं. राजकुमारी ने अपनी म्यान पर हाथ रखा ही था तभी चेतक की हिनहिनाहट ने दोनों का ध्यान खींचा.
"सुंदरी...जलपान करना है"
"यह क्या आप सुंदरी-सुंदरी कह रहे हैं. हम द्वैतगढ़ की राजकुमारी हैं. यह झील अथवा झरना हमारी सम्पत्ति नहीं. आप स्वयं जाकर जल लीजिए"
"हम निर्लज्ज तो नहीं आप निर्मोहिनी अवश्य प्रतीत होती हैं. एक भटकते हुए पथिक पर तनिक भी दया नहीं"
"दया या निर्दयता का कोई प्रश्न ही नहीं. आइये हमने चश्मे का स्थान रिक्त कर दिया. जल ग्रहण कीजिए"
"ऐसे नहीं राजकुमारी हम तो आपकी अंजुरि से ग्रहण करेंगे"
"आप तो बहुत हठी प्रतीत होते हैं"
"हठी नहीं राजकुमारी हम एक श्राप के भय से ऐसा कह रहे हैं. अगर हमने यह बहता हुआ पानी अपनी अंजुरि में लिया तो हम पत्थर के हो जाएंगे" यह सुनकर राजकुमारी का मन पिघल गया और वो उन अपरिचित युवा को अंजुरि में भरकर जल पिलाने लगीं. दोनों एक-दूजे को स्नेहमयी होकर तकने लगे.
वेश भूषा और वार्तालाप से पूरा संकेत मिल रहा था कि वो एक साधारण व्यक्ति न होकर राजकुमार हैं.

कल पढ़िए इसका अगला भाग

आईने वाली राजकुमारी


बात यही कोई एक सौ साल पुरानी है द्वैतगढ़ में एक राजकुमारी रहा करती थी जो अपनी सुंदरता के लिए जानी जाती थी. उनके अधरों पर प्रशंसा के कितने ही गीत लिखे गए जो यदाकदा उनके कत्थई नेत्रों के सामने से आए गए परन्तु उनके गुलाबी गालों को सम्मोहित न कर सके. अपने भाई सा से उन्होंने तलवार चलाना बस इसलिए सीखा कि उनकी ओर उठने वाली लालसा भारी निगाह को वो सबक सिखा सकें. प्रतिभा और सौंदर्य से पूर्ण होने के बाद भी गर्व किंचित उन्हें स्पर्श तक न करता था. महाराज, महारानी और युवराज की लाडली राजकुमारी को बस इसी बात का दुःख था कि उन्हें कहीं भी अकेले जाने की अनुमति नहीं मिलती थी.
एक दिन राजकुमारी अपने भवन में उदास बैठी थी. दासी ने इसकी सूचना महारानी को दी. महारानी उस समय अपना शृंगार करवा रही थीं परन्तु सब छोड़कर भागीं. माँ को आया देख राजकुमारी ने उनकी ओर अपनी पीठ घुमा दी.
"पुत्री, ऐसा मत करो. पीठ तो शत्रु को दिखाने का रिवाज है"
"तो आप आज ये प्रमाणित कीजिए कि आप हमारी मित्र हैं"
"तो इसके लिए क्या करना होगा हमें?"
"हम आज मयूरी विहार जाना चाहते हैं, आप अनुमति दीजिए"
"बस कुछ क्षण प्रतीक्षा कर लो. तुम्हारे भाई सा आ रहे होंगे"
"नहीं, हम अभी इसी क्षण और अपने चेतक पर अकेले जाना चाहते हैं"
"यह इच्छा हम पूरी नहीं कर सकते"
"तो आप हमारी मित्र नहीं. हम अठारह बरस के हो गए. समझदार हैं. निडरता और चतुराई के कौशल से पूर्ण हैं परंतु इस महल में ही बंद होने को विवश हैं"
"यह मत भूलो कि तुम सौंदर्य कला से पूर्ण एक युवती भी हो"
"परन्तु अपनी सुरक्षा तो कर सकते हैं"
"कुछ भी हो… ममहाराज के आने तक तुम्हें ठहरना ही होगा"
"ठीक है हम भी अब अन्न जल तब तक नहीं ग्रहण करेंगे, जब तक महाराज नहीं आते"
"पुत्री तुम नाहक ही वाद कर रही हो"
"माँ सा… हमारा चेतक बाहर प्रतीक्षा कर रहा"
बहुत अनुनय विनय के पश्चात महारानी इस शर्त पर मानी कि राजकुमारी के घोड़े के साथ उनकी पालकी भी जाएगी और उसमें दासियाँ होंगी. माँ सा का हाथ चूमकर राजकुमारी ने हामी भर दी.

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एंटी डिप्रेशन

कल एक उदास सी दोपहर में कुछ नहीं करने के इरादे से कुछ नहीं सोच रही थी मैं. जब कुछ नहीं करती हूँ तो घुप्प अंधेरी जगह पर बैठना पसंद करती हूँ. तभी फ़ोन की घण्टी बजी. मन न होते हुए भी उठाना पड़ा. इन दिनों जीने की ऐसी इच्छा जगी कि ख़ुद में एकाकीपन भर लिया ताक़ि मन को आवाज़ को समझ सकूँ. इनसे, उनसे, तुमसे...सब से दूर.
जैसे आत्मा है चार धाम
कर यात्रा जपें राम नाम.
"हेलो" जबरदस्ती की आवाज़ में बोल दिया.
"दीदी कुछ सुना तुमने?" उधर से हड़बड़ाई सी रुआंसी आवाज़ आई. मुझे पता था ये आगे क्या कहने वाली है क्योंकि सुशांत का दुःखद अंत कुछ देर पहले ही भाई ने बताया था. फ़िर भी मैंने अनजान बनते हुए कहा,
"मैं कैसे सुनूँगी...हुआ क्या?"
"वो सुशांत ने सुसाइड कर लिया…"
"कौन सुशांत?"
"अच्छा तुम टी वी नहीं देखती ना! वो धोनी में हीरो था"
"अच्छा"
"तुम्हें कोई अफ़सोस नहीं हो रहा क्या?"
"नहीं! मुझे सुसाइड करने वाले लोगों के साथ कोई सिम्पथी नहीं"
"क्यों किया होगा उसने ऐसा?"
"उसे ये नहीं पता होगा कि जहाँ सब कुछ ख़त्म हो जाता है शुरुआत वहीं से होती है"
"फ़िर भी क्या हुआ होगा...इतना बड़ा आदमी"
"डिप्रेशन...और शायद वो मन से बहुत छोटा था"
"आज मुझे तुम्हारी value समझ में आ रही है. कितने ही बार तुमने मुझे डिप्रेशन से बाहर निकाला है. मेरा भी सुसाइड करने का मन किया"
"अगली बार मन करे तो निकल लेना. मुझे पछतावा करने वाले बिल्कुल नहीं पसंद"
"अच्छा दीदी तुम्हें डिप्रेशन कभी नहीं हुआ या फ़िर सुसाइड करने का मन…?"
"तुम इमोशनली स्ट्रांग हो तो इस सच को स्वीकार कर रही हो...और मैं साइकोलॉजिकली स्ट्रांग हूँ अपना दर्द पी सकती हूँ पर लोगों के सामने हार कैसे मानूँ!"
"ऐसा क्या…?"
"हाँ अइसन बा" सैड पॉइंट से हैप्पी नोट तक आकर बात ख़त्म हो गई और अपने पीछे बहुत से सवाल छोड़ गई.
मुझे अंदर कुछ चोक होता सा लगा. खिड़की से बाहर देखा धूप बहुत थी...मुझे तुम याद आए. तुम्हारी किताब खोलकर बैठ गई पर यहाँ तो भीतर से भी ज़्यादा दर्द है. सच मुझे बहुत दर्द हो रहा था. पूरी रात मौसम के बदलते तेवर से लड़ती रही. आज 24 घण्टे बाद बहुत हिम्मत जुटाकर तुमसे आग्रह किया और तुमने उन्मुक्त होकर रंग बिखेर दिए शब्दों के. आज बहुत दिनों के बाद मेरा कमरा रोशनी से भर गया.
तुम्हें पता है एन्टी डिप्रेशन हो तुम मेरे.

नियाज़ी


दोनों ने अपनी उंगलियाँ एक दूसरे में फँसाते हुए इश्क़ को यूँ गले से लगा लिया जैसे आज इश्क़ इनका गुलाम हो गया है. हो भी कैसे ना इश्क के अलावा रहा ही क्या उनकी ज़िंदगी में! होती होगी लोगों की सुबह, दोपहर, शाम, रात इनका तो बस इश्क़ होता है.
आन्या ने जिब्रान को टटोलते हुए अपना हाथ उसके कंधे पर रखा और आंखों में चमक भरते हुए बोली, "देखो तो सही मैंने कहा था ना ये ए टू ज़ेड का सफर बहुत लंबा होता है"
जिब्रान भी मदहोशी में बोला, "हां तो सफर जितना लंबा होगा, अपना साथ भी तो उतना ही ज़्यादा होगा"
"तुमसे बहस में आज तक जीत पाई हूँ जो आज ही जीतूँगी" आन्या ने अपना सर जिब्रान के कंधे पर रख दिया.
"बहस नहीं इश्क है ये और मैं वो प्रेमी नहीं जो इस्तक़बाल करते हुए अपनी प्रेमिका का पाँव मख़मल पर रखूँ और एक रोज उसे तपती रेत पर नंगे पाँव चलने को मज़बूर करूँ" जिब्रान ने सुकून के कुछ पल लेने को आन्या की गोद में सर रख दिया.
"सुनो इस तालाब के किनारे बहुत घुटन हो रही है. चलो बीच पर चलते हैं. आज मेरा मन समंदर की लहरों में डूबने का हो रहा…" आन्या के कहते ही जिब्रान ने उसका हाथ थाम लिया और दोनों चल पड़े. समंदर के किनारे पहुँचते ही दोनों के क़दम ख़ुद ब ख़ुद रेत के उस टीले की ओर मुड़ गए जिसके नीचे बैठकर दोनों अक्सर अपने नामों में छुपे अपने बच्चों के नाम ढूंढा करते थे.
जिब्रान ने रेत में मुट्ठी छुपाते हुए कहा, "मुट्ठी में रेत तो सभी बचाने की कोशिश करते हैं मैं वक़्त को रोकना चाहता हूँ ताक़ि तुम मुझसे कभी दूर न जाओ"
"और मैं इस ब्रह्मांड के हर उस जगह से जीवन की प्रत्याशा को ख़त्म करना चाहती हूँ जहाँ तुम न हो, ताक़ि हम साथ रह सकें" कहते हुए आन्या ने जिब्रान की मुट्ठी अपनी मुट्ठी में जकड़ ली.
"मैं तुममें क़ैद और वक़्त मुझमें" कहकर जिब्रान ने अपनी मुट्ठी खोल दी.
आन्या ने तुरंत टोका, "यह क्या किया तुमने... इश्क़ को ज़ाया क्यों किया?"
"दो मोहब्बत करने वाले मन ही मोहब्बत को समझ सकते हैं. मैंने कुछ भी ज़ाया कहाँ किया! इन फ़िज़ाओं में इश्क़ का रंग घोला है बस कि आने वाली नस्लें इससे सराबोर रहें और उनकी दुवाएँ हम तक वापस आएं"
"सुनो मेरा दम घुट रहा है. मुझे बारिश में तर होना है…"
"ये लो मैंने छतरी खोल दी अब बादलों को ख़बर होगी मानसून की और वो हम पर बरसेंगे" आन्या ने कराहते हुए अपनी आँखें बंद कर लीं. जिब्रान ने छतरी को नीचे रखते हुए उसे बाहों में भर लिया.
"आ…"
"जि…"
दोनों के ज़र्द पड़े चेहरे और मुँह इस क़दर सूखे हुए हैं कि थूक भी नहीं आ रहा. जीभ तालू से चिपक गई है.
"अब मुझसे और नहीं चला जा रहा जिब्रान"
"ऐसा मत कहो आन्या...मेरी साँसों से चलो तुम…" कहते ही दोनों की आँखें फ़िर बंद हो गयीं. तभी कुछ आहट हुई. आन्या की मृत सी पड़ी देह में दहशत दौड़ गई. जिब्रान पर उसकी हथेलियों की पकड़ और तेज़ हुई.
"लगता है वो लोग आ गए...जिब्रान मेरे पास हो न?" बदहवास सी आन्या उसे टटोलते हुए पूछ बैठी.
"अब तो हमें ख़ुदा ही एक करने जा रहा" जिब्रान ने हाथों से छूकर आन्या का चेहरा महसूस किया. दोनों एक बुत जैसे एक-दूसरे में समा गए.
पिछले ७२ घंटों से एक काल कोठरी में क़ैद दो इशकज़ादे आन्या और जिब्रान...उन्हें पता है कि इश्क़ जैसे अज़ाब के बदले मुक़र्रर फ़ांसी के लिए ही उन्हें यहाँ से बाहर निकाला जाएगा...आज भी इनको गुफ़ा में एक बुत की तरह देखा जा सकता है. नियाज़ी...हाँ अब वो आन्या और जिब्रान नहीं रहे. मैं जब भी भ्रमण पर होती हूँ नियाज़ी को देखने जरुर जाती हूँ.

मेरी पहली पुस्तक

http://www.bookbazooka.com/book-store/badalte-rishto-ka-samikaran-by-roli-abhilasha.php