दर्द का दशानन जीत गया
उम्मीद की सिंड्रेला हार गई
'निचोड़ लो रक्त इन स्तनों से
लहू-लुहान कर दो छाती,
घुसा दो योनि-मार्ग में
जो कुछ भी चाहो'
मेरी आत्मा चीखी थी
फफोलों से दुख रहा था
मेरा जिस्म
जब वो सारे वहशी
बारी-बारी से
अपनी गंधेली साँसे भर रहे थे
मेरी नासिका में,
उन कुत्तों का बदन
मसल रहा था
मेरी छाती के उभारों को,
बारी-बारी से चढ़ रहे थे
मेरे ऊपर
मैं छटपटा रही थी दर्द में
और वो हवस की भूख में
कसमसा रहे थे,
भयंकर दर्द कि
मेरी साँसे घुट रही थी
दोनों हाथों से
मेरी गर्दन को भींचकर
मेरे मुंह पर
चाट रहे थे
पूरे चेहरे पर
दांतो के निशान आ गए थे,
एक हाथ से
नंगा कर दिया था
योनि में लगातार
प्रहार हो रहे थे
कुछ अंदर गया पहली बार
मेरी चिंघाड़ आस-पास तक
गूंज गयी थी,
फिर एक दो तीन चार
...........
कितने ही नामर्द, नपुंसक
कुत्तों का लिंग
अंदर-बाहर होता रहा,
वो आह-आह कर
सिसकी भरते रहे,
मैं बेजान-बेजुबान
पत्थर सी हो चुकी थी,
मेरी योनि
अनवरत रिस रही थी
मैं नहीं जानती
वो द्रव्य सफेद, लाल था
या फिर पीला,
मुझे तो मेरे पास
संवेदना का ज़र्द, सफेद,
असंवेदनशील मृत चेहरा
दिख रहा था बस;
शायद मेरा रस झड़ चुका था,
तभी तो
वो मुझे
ज़िंदा लाश बनाकर छोड़ गए थे,
सांस तो अब भी आती है
मगर शर्म अब नहीं आती;