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तुम्हारा रुठना

 क्यों रुठ गयी हैं बादलों से बूँदें

कहीं समन्दर ने इनसे नाता तो नहीं तोड़ा होगा

जैसे मैं होती जा रही हूँ दूर तुमसे

हर साँस पर अब साँस भी तो नहीं आती

और यादें हैं कि ज़िबह किए देती


जैसे छूट जाती है पतंग अपनी डोर से


नील गगन की रानी आ गिरती है जमीन

लुटी, कटी, नुची, सौ ज़ख़्म लिए

वो भी हाथ नहीं बढ़ाता उठाने को

जिसने लड़ाया पेंच, जितनी भी आए खरोंच


जैसे पार्थिव हो जाता है कोई आयुष्मान


तबाही मचा शाँत हुआ चक्रवात

सब कुछ बहता रहता है बिना नीर

चलता है मन-प्रपात

बस इसी तरह छोड़ते हो तुम मुझे हर बार.

तीन लघुकथाएँ

(१) प्रेम जो प्रेमिका को खाता है


उसके हाथों ने छत नहीं अचानक आसमान को छू लिया. नए-नए प्रेम का असर दिख गया. ढीठ मन सप्तम स्वर में गा दिया गोया दुनिया को जताना चाह रही हो कि अब तो उसका जहाँ, प्रेम की मखमली जमीन है बस क्योंकि प्रेम उरूज़ पर था.

फिर एक रोज चौखट पर रखा दिया अचानक बुझ गया और उसकी शाम कभी नहीं हुई. हवा के बादलों पर बैठकर वो आसमान कहाँ छू पाती? एक ख़्वाब ज़िंदा लाश बन गया उसके अंदर.



(२) प्रेम जो प्रेमी को खाता है


उसके कपड़ों की क्रीज़, परफ़्यूम की महक, हेयर कलर और गॉगल्स के पीछे मुस्कराता चेहरा आजकल सभी की निगाह में है. ग्रेजुएशन की पढ़ाई एक ओर हो गयी, अपाचे तो ख़ुद ब ख़ुद डिस्को, होटल और लांग ड्राइव के लिए मुड़ जाती है.

उस रोज बारिश ज़ोरों पर थी फिर भी अपाचे स्टार्ट कर वो वेट कर रहा था. लोमबर्गिनी से उतरती अपनी माशूका को देखकर उसकी आँखों का रंग अचानक बदल गया. अगले दिन शहर के अखबारों में सुर्खियां टहलती रहीं--ईर्ष्या की जलन किसी के चेहरे पर तेजाब बन बही.



(३) समाज जो प्रेम को खाता है


पहली बार दवा की एक दुकान पर दोनों मिले थे. एक को बीमार माँ तो दूसरे को बहन के लिए दवाई चाहिए थी. सूखा चेहरा, मैले कपड़े, अबोले से वो दो क़रीब आ गए. अब दवा के ग्राहक दो नहीं एक ही होता. कभी-कभी माँ और बहन की तीमारदारी भी एक ही कर लेता.

दर्द न बाँट सकने वाला समाज ही उनके ख़िलाफ़ खड़ा हो गया. समाज की आँखों में बेचारगी, लाचारी, जरूरत, स्नेह, मोह… कुछ न आया बस उनका लड़का और लड़की होना खटका. दो से जस तस एक हुए वो दोनों पहले अलग फिर सिफ़र हो गए. किसी का न होना इतना बुरा नहीं पर आकर चले जाना सच जानलेवा ही तो है.


विशेष- इस श्रंखला की तीन लघुकथा. इसे लिखने की प्रेरणा मुझे तेजस पूनिया जी की कहानी "शहर जो आदमी खाता है" को पढ़कर मिली.

प्रेम का महाकाव्य

मैं वो शहर हूँ
जिसके किनारे दर्द की झील बहती है
अक़्सर प्रेमी युगल
एक-दूसरे को सांत्वना देते दिख जाते हैं.
मैं वो पेड़ नहीं बनना चाहता
जिनकी शाखों में उनके प्रेम को अमरत्व मिले
इससे बेहतर है, मैं वो कागज़ बनूँ
जिस पर प्रेम न पा सकने की
वो अपनी रोशनाई उड़ेल दें...
अमर होना चाहूँगा मैं
प्रेम में डूबा दर्द का महाकाव्य बनकर.

मेरी पहली पुस्तक

http://www.bookbazooka.com/book-store/badalte-rishto-ka-samikaran-by-roli-abhilasha.php