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प्रभु शरण



कि बढ़ चले पुकार पर

त्रिशूल रख ललार पर

जो मृत्यु भी हो राह में

कर वरण तू कर वरण


हो पार्थ सबकी मुक्ति में

रख हौसले को शक्ति में

जो शत्रु को पछाड़ दें

वो तेरे चरण, तेरे चरण


जब तेरे आगे सर झुकें

हाथ कभी रिक्त मिलें

बाधाओं से टकरा के

बन करण तू बन करण


पछाड़ दे तू हर दहाड़

ऐसी हो तेरी हुँकार

चीर किसी द्रोपदी का

ना हो हरण, ना हो हरण


न हो जटिलता का अंत

बस मौन रहे दिग-दिगन्त

हो पथ का भार तेरे सर

प्रभु शरण ले प्रभु शरण

शब्द ही शिव हैं


शब्द ही शिव हैं
कभी प्रेम के रचे जाते हैं
कभी उद्वेग
तो कभी अंत के.

आच्छादित करते हैं
मन की तृष्णा को
समय के बहाव
और नदी के वेग को.

है शब्द का अमरत्व ये
कर में सरल है
दिमाग में भुजंग हैं
मन में महत्वहीन बन जाते हैं.


कविता का शीर्षक माननीय अनूप कमल अग्रवाल जी "आग" के शब्दों से उद्धत है 🙏


मैं स्मरण हूँ...


गंगा को समेटे
रखता हिमालय पे चरण हूँ,
नख से शिख तक करता
भभूत का वरण हूँ,
मैं इस सदी का
दूसरा संस्करण हूँ,
ध्यानी हूँ, दानी हूँ
और स्वाभिमानी हूँ
तांडव है मेरा मनोरम
सती का विधाता हूँ
बसता हूँ कन्दराओं में
हर मर्म का ज्ञाता हूँ
खाल को आभूषण बनाए
सौंदर्य का अलंकरण हूँ,
रंगों में नीलकंठ औ
भुजंग को लपेटे हूँ
हैं नेत्र तो कुल तीन
सारी दृष्टि मैं समेटे हूँ
भाल पे है चन्द्रमा
कान नागफनी छाई हैं
पुण्य भगीरथ के तप का
पाप धोने गंगा बुलाई हैं
दो पाँवों से करता तांडव
तीन लोकों का संचरण हूँ

मेरी पहली पुस्तक

http://www.bookbazooka.com/book-store/badalte-rishto-ka-samikaran-by-roli-abhilasha.php