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नानी का पिटारा

नानी के देहावसान के बात से ही उस संदूक की चाभी तलाश की जा रही थी। बच्चे से बूढ़े तक की नज़र थी उस पर।
'आखिर क्या होगा उसमें जो नानी कभी खोलती भी थी तो अकेले में' पूर्वी के माथे पर ये कहते हुए बल पड़ गए थे आखिर 20 साल से वो यही देख रही थी।
सोचती तो वो भी रहती थी पर माँ और मामी की बातों से बिल्कुल भी सहमत न थी कि नानी ने इसमें बहुत पैसे जमा कर रखे होंगे।
आखिरकार वो दिन आ ही गया। नानी की मौत की हड़बड़ी में वो चाभी कमर से निकलकर कहीं गुम गयी थी, ताला तोड़ना पड़ा। संदूक ऊपर तक भरी थी। एक-एक सामान निकाला जा रहा था। किसी को उसमें कोई दिलचस्पी नहीं थी क्योंकि सबकी नजरें तो वो ढूंढ रही थी जो अब तक नहीं निकला था। संदूक का पूरा सामान कमरे में तितर-बितर था। सभी की जिज्ञासा शांत हो गयी थी। एक-एक कर सारे लोग जा चुके थे। पूर्वी और उसकी माँ हर सामान को देखकर खुशी से भर जाती थी।
'ये देख तेरे भइया के मोजे जो मैंने बुने थे और वो भी पहली बार' माँ पूर्वी से बोली।
'ये कितना प्यारा है छोटा सा, किसका है?'
'अरे ये तेरे बचपन का है।'
'ये देखो माँ!' पूर्वी ने श्वेत-श्याम चित्रों से सजा एक पुराना अलबम दिखाते हुए कहा।
माँ-बेटी यादों की रंगीन गलियों में भटक गयी थी। आज इन्हें ये अहसास हुआ था कि कीमत सिर्फ पैसे और गहनों में ही नहीं उन यादों की भी  होती है जो गुजरकर फिर नहीं आती।

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