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तुम शशि हो शरद के

 


व्रत हुआ कोजागिरी का

और देवों के प्रणय का हार

महारास की बेला अप्रतिम

मैं अपने मन के शशि द्वार

तुम शरद हो ऋतुओं में

तुम हो मन के मेघ मल्हार

चंद्रमा कह दूँ तुम्हें तो

और भी छाए निखार

तुम स्नेह की कण-कण सुधा हो

मद भरी वासन्ती बयार

पीत जब नाचा धरा पर

हुआ समय बन दर्शन तैयार

मेदिनी

 

तुम्हारी नर्म-गर्म हथेलियों के बीच खिला पुष्प

और भी खिल जाता है, जब

विटामिन ई से भरपूर चेहरे वाली तुम्हारी स्मित

इसे अपलक निहारती है

तुम्हारा कहीं भी खिलखिलाकर हँसना

मेरे आसपास आभासित तुम्हारे हर शब्द को

तुम्हारी गंध दे जाता है... महका जाता है

कण कण में तुम्हारा होना.

वही तो करते हो तुम जो अब तक करते आये

बना देते हो चंदन अपने शब्दों को

यही है मेरी औषधि, ये शब्द

डाल देते हैं मेरे चिन्मय मन पर डाह की फूँक

शाँत करने को मेरे मन के सारे भाव...

तत्क्षण मेरा मन वात्सल्य में डूब जाता है

झूम उठती है मेरे मन की मेदिनी

तुम्हारा पग चूमने को...


रावण बनाम रावण

 

"माँ, आज के समय में राम तो नहीं होते न?" दशहरे का मेला देखकर लौटी मेरी बेटी चीखते हुए बोली.


उसके इस प्रश्न पर हतप्रभ सी खड़ी मैं बिस्तर पर चौड़े पड़े शराबी और अधमी पति को एकटक देखती रही. कितने पक्षपाती हो जाते हैं हम जब बात अपनों पर आ जाती है. ये प्रेम का कैसा रूप है!

सबके अन्तस् एक दशानन


स्वयं के अन्तस् रावण अटल

घात लगाए स्वयं की हर पल

मुझको दर्पण बन, जो मिला

वही विजित है मेरा स्वर कल


नयन में राम तो पग में शूल हैं

हर शबरी के हिय हूक मूल है

हुआ आँचल माँ का तार-तार

बहने दो निनाद, भाव कोमल


कौन कहे कि हर सत्य राम है

कहीं दशानन भी, सत नाम है

नाम नहीं अब दहन करो तम,

गर्व और पाखंड का अस्ताचल