व्रत हुआ कोजागिरी का
और देवों के प्रणय का हार
महारास की बेला अप्रतिम
मैं अपने मन के शशि द्वार
तुम शरद हो ऋतुओं में
तुम हो मन के मेघ मल्हार
चंद्रमा कह दूँ तुम्हें तो
और भी छाए निखार
तुम स्नेह की कण-कण सुधा हो
मद भरी वासन्ती बयार
पीत जब नाचा धरा पर
हुआ समय बन दर्शन तैयार
बहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंआभार ओंकार जी!
हटाएंबहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंआभार आलोक जी!
हटाएंजी नमस्ते ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल गुरुवार(२१-१०-२०२१) को
'गिलहरी का पुल'(चर्चा अंक-४२२४) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
हृदयतल से आभार अनीता जी!
हटाएंबहुत खूब
जवाब देंहटाएंदेवो के प्रणय का हार
आभार अनीता जी!
हटाएंसुन्दर रचना
जवाब देंहटाएंआभार ज्योति जी!
हटाएंवाह!!!
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर सृजन।
आभार सुधा जी!
हटाएंआभार सुशील जी!
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