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चौंक: लघुकथा

कल रात भरी नींद में मुझे चौंक सी लगी. तुम्हारा ख़याल आया. अगले ही पल मैंने ख़ुद को तुम्हारे पास पाया. अंधेरे बंद कमरे में टकटकी लगाये तुम जाने पंखे में क्या देख रहे थे. आँखों से चश्मा निकाल कर साफ करने के लिए कुछ टटोल रहे थे, मैंने अपना दुपट्टा आगे किया. तुमने पंखे से नज़र हटाये बगैर दुपट्टे की कोर से चश्मा साफ कर अपनी आँखो पर रख लिया. मैंने पास रखे जग से गिलास में पानी डालकर तुम्हें दिया. तुम गटागट पी गये. जैसे मेरे पानी देने का इंतजार ही कर रहे थे. मुझे अच्छा लगा. समझ आ गया कि वो चौंक नहीं तुम्हारे नाम की हिचकी थी जो मुझे यहाँ तक ले आयी. मैंने तुम्हारे बालों में हाथ फेरते हुए कहा, रात बहुत हो गयी है सो जाओ. तुमने पंखे से नज़र हटाये बिना ही कहा, तुम आ गयी हो अब सोना ही किसे है. इतना सुनते ही मेरे अंदर का डोपामाइन दोगुना हो गया.


कुछ परेशान हो क्या, मैंने पूछा.


हाँ, कहकर भी तुम टकटकी बाँधे पंखे को ही देखते रहे.


बोलो न क्या बात है, मेरे कहते ही तुम बोल पड़े…


“टी डी पी समर्थन वापस तो नहीं लेगा न?”


मुझे दूसरी चौंक लगी और मैं वापस अपने बिस्तर पर थी.

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