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योग के बहाने



 पहिला योग

जादू की झप्पी

दुसरा योग है

लिप ऑन लिप

तिसरा योग

छुवमछुवाई

एक नारियल

टू टू सिप

चौथा योग

बिरवा के नीचे

बदन कर रहे

घिस घिस

पंचम योग है

राहु काल में

अम्मा की

फ्लाइंग चप्पल

छठो योग

पिता का

निशाना रह्ये

सबते अव्वल

सप्तम योग

इसक है रोग

ज्ञान की दाढ़ी

चेहरा लागी

मन को भाये

लौकी, मूँग दाल का भोग


#योगदिवस 

चौंक: लघुकथा

कल रात भरी नींद में मुझे चौंक सी लगी. तुम्हारा ख़याल आया. अगले ही पल मैंने ख़ुद को तुम्हारे पास पाया. अंधेरे बंद कमरे में टकटकी लगाये तुम जाने पंखे में क्या देख रहे थे. आँखों से चश्मा निकाल कर साफ करने के लिए कुछ टटोल रहे थे, मैंने अपना दुपट्टा आगे किया. तुमने पंखे से नज़र हटाये बगैर दुपट्टे की कोर से चश्मा साफ कर अपनी आँखो पर रख लिया. मैंने पास रखे जग से गिलास में पानी डालकर तुम्हें दिया. तुम गटागट पी गये. जैसे मेरे पानी देने का इंतजार ही कर रहे थे. मुझे अच्छा लगा. समझ आ गया कि वो चौंक नहीं तुम्हारे नाम की हिचकी थी जो मुझे यहाँ तक ले आयी. मैंने तुम्हारे बालों में हाथ फेरते हुए कहा, रात बहुत हो गयी है सो जाओ. तुमने पंखे से नज़र हटाये बिना ही कहा, तुम आ गयी हो अब सोना ही किसे है. इतना सुनते ही मेरे अंदर का डोपामाइन दोगुना हो गया.


कुछ परेशान हो क्या, मैंने पूछा.


हाँ, कहकर भी तुम टकटकी बाँधे पंखे को ही देखते रहे.


बोलो न क्या बात है, मेरे कहते ही तुम बोल पड़े…


“टी डी पी समर्थन वापस तो नहीं लेगा न?”


मुझे दूसरी चौंक लगी और मैं वापस अपने बिस्तर पर थी.

प्रेम में मैं

मुझे तुमसे

लड़ना नहीं था

पर तुम्हारे सामने

खड़े होना था

जब तुम्हारी ओर

बढ़ने लगे

बहुत से हाथ

सहानुभूति के

जब तुम बढ़ाने लगे

अपने दायें बायें

क़द औरों का

तब मेरी ज़िद थी

मुझे तुमसे

आगे निकलना था

प्रेम का माधुर्य

 


सर्वेक्षण से कमायें और जीतें


'मैं तुम संग प्रेम में हूँ'

यह कोई प्रणय निवेदन नहीं

मेरे मन का माधुर्य भर है

शकरपारे से पगी अपनी दीद

रख देना चाहती हूँ

मैं तुम्हारी हथेली पर

लज्जारुण हो तुम लगा लेना

हथेली अपने सीने से

संध्या विनय के क्षणों में

नीड़ चहकने तक

तुम आकाश सुमन हो मेरा

सौम्य नभ कमल

मेरे विनयी साथी

मेरी तंद्रा का आकर्षण

कल्पनाओं की नीलगिरि से

आती हुई परिचित भाषा

मुझे नहीं पता मैं कौन

और तुम मेरे मन का मौन

थप्पड़

 



घर बैठे कमायें बिना किसी निवेश

जब लुभावने शब्दों की बात आती है तो एक शब्द मेरे ज़ेहन में कौंधता है और वह है रेपटा. हाँ यह वह शब्द है जो मुझे आकर्षित करने वाले शब्दों में से एक है. जाने क्यों इस शब्द से मुझे लगाव है. लेकिन रेपटा अर्थात थप्पड़ का शाब्दिक मायने बहुत कम रहा मेरे जीवन में. हाँ किसी ने कोई जधन्य अपराध किया तो मेरे मुँह से बरबस ही निकल जाता है कि अगर सामने होता तो मैं रेपटा मार देती लेकिन यह कहने सुनने की बातें हैं. अधिकतम गुस्से में मेरे मन में आया एक ख्याल भर है. हाँ यह मानती हूँ कि अगर किसी ने आत्म सम्मान को ठेस पहुँचायी है तो ले देकर सामने ही हिसाब किताब बराबर कर लो. थप्पड़ की गूँज होती है. थोड़ा सा झनझनाहट भी होती है लेकिन कोई ऐसी चोट नहीं आती जिससे टूटन हो. बिना वजह मारा गया थप्पड़ आत्म सम्मान को गंभीर नुकसान पहुँचाता है. कंगना रनौत को लगा थप्पड़ मैं निंदा की श्रेणी में रखती हूँ. थप्पड़ मेरे लिए निंदा का विषय ना होता अगर मामला तुरंत सुलटा लिया जाता (विचार मेरे अपने हैं इसमें किसी का कोई लेना देना नहीं है) 


किसी को भी किसी के आत्म सम्मान को ठेस पहुँचाने का कोई अधिकार नहीं है क्योंकि कई बार इन थप्पड़ों की गूँज नहीं हो पाती है और वह डाह बनकर गलाते हैं किसी के मन को. इंसान अवसाद में आकर आत्महत्या तक की ओर क़दम उठा लेता है.


थप्पड़ बस एक थप्पड़ नहीं राजनीतिक दृष्टिकोण से समीकरण होता है व्यवहारिक दृष्टिकोण से सम्मान और अपमान होता है और नैतिक दृष्टिकोण से? इसके बारे में सोचा है कभी?


नहीं न! सोचोगे भी कैसे इस समाज को राजनीति का अखाड़ा जो बना दिया है. नैतिकता किस चिड़िया का नाम है. न तो नैतिकता उसके पास होती है जिसने थप्पड़ मारा न ही उसके पास जिसको थप्पड़ पड़ा क्योंकि इसके बाद समाज में एक थप्पड़ की गूँज से दो धड़े हो जाते हैं. इनमें से एक आत्म सम्मान का वास्ता देकर नैतिक ठहराता है और दूसरा बदले की भावना से ग्रस्त कुंठित ठहराता है. एक थप्पड़ से जितनी गरिमा आहत नहीं होती है इससे ज्यादा थप्पड़ पर हो रहे बहस मुबाहिसे से, विचार विमर्श से, कविता शायरी से, मीडिया चर्चा से होती है. थप्पड़ ट्रेंड करने लगता है. लोग खोज कर पढ़ने लगते हैं. बस यही तो चाहिए ठेलुओं को. नैतिक पतन के साथ-साथ सामाजिक पतन की भी पराकाष्ठा है यह.

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सभा

 


जंगलों में अक्सर चलती हैं सभायें

हिसाब होता है हर रोज संपदा का

कोई सज़ा मुकर्रर नहीं होती

मग़र लाली पर

बस ले जाती है कभी-कभार वह

मात्र इतनी लकड़ियाँ

जितनी आग से

बुझायी जा सके जठराग्नि

इन लकड़ियों के बदले

वह रक्षा भी तो करती है

जंगल, जीवन और प्रकृति की


इस पेड़ के नीचे आज की यह

अंतिम सभा है

हत्या का इस पर स्टिकर लगा है

सुंदर से गछ को मिटाकर

किया जायेगा सौंदर्यीकरण

दहन कर इसकी जड़ों को

करेंगे किसी मल्टीप्लेक्स का अनावरण


@main_abhilasha 


चित्र सुशोभित जी की स्टोरी से चुराया था.


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रोटी पर घूमती दुनिया

 Earn without INVEST


शब्दों से ध्वनियों को विरत कर

उसने कहा, 'अब कहो प्रेम'

बधिर हो लाज तज

एक मूक ने उन आँखों पर लिख दिया

'अब भी हूँ तुम्हारी सप्रेम’

एक मूक से वाचाल भी

अब मूक हो गया


तवे पर रोटी का सिक जाना

कोई नयी बात कहाँ

प्रेम में रोटी दो जून की बनाना

कोई नयी बात कहाँ


रोटी और तवे का स्नेह जलता रहे!

@main_abhilasha