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तिल वाला लड़का

उसके दायें कंधे पर तिल नहीं था मगर ये तो बस उसे पता था. मुझे इतना मालूम है कि आज लिखने की मेज पर जब बैठी तभी अचानक मेरे मन में एक रुमान उभरा...अगर प्रेमी के दायें कंधे पर तिल हो, प्रेमिका अपने होंठ उस पर रखे तो प्रेमी के मन की सिहरन मेरी कविता के पन्नों को कितना गुलाबी कर सकेगी...
फिर क्या लोगों ने आँखों के खंजर से कुरेदना शुरु किया अब उसके दायें कंधे पर तिल होने से कौन रोक सकता है. तिल काला हो, भूरा हो या लाल क्या फर्क पड़ता, गुलाबी मोहब्बत ने तो जन्म ले लिया.
वो मोहब्बत नहीं जो दिल से आँखों में उतरकर स्याही बनी बल्कि वो मोहब्बत जो क़ागज़ पर बिन आग के धुएँ सी जली. हाँ, ये और और बात है कि तुम अपनी गर्दन पर हाथ फेरकर सोच रहे होगे कि कहानियों के रुमान में भीगी पागल सी लड़की कहीं इसी तिल की बात तो नहीं कर रही!

जिज्ञासा

रात क्या है?
शाम की पाती
जो सुबह तक
ख़ुद ही
चलकर आती

सुबह क्या है?
ईश्वर के
विश्वास का
टूटता हुआ तारा

विश्वास क्या है?
किसी की
परेशानी सुनकर
हाथों का यकायक
एक-दूसरे से जुड़ जाना

हाथ क्या है?
हमारी मौजूदगी का
विस्तार
जिसके भीतर
दुनिया है हमारी

दुनिया क्या है?
उम्र क़ैद
काटने के लिए
गुजर करने को
मिली जगह

उम्र कैद क्या है?
विंडो सिल पर
कप के
निशान के भीतर
जमी हुई धूल

चाय क्या है?
मैं और मेरे तुम,
मौन सा झरका,
बिछड़ने से
ठीक पहले की मिठास

प्रेम क्या है?
किसी अछूत द्वारा
मंदिर के भीतर
लगे घंटे का
पहला स्पर्श

स्पर्श क्या है?
वह पल जब
अलग हो रहा होता है 
माँ की गर्भनाल से
कोई शिशु

चाय के बहाने प्यार

आओ उफानते हैं
केतली भर प्यार आज
कविता दिवस के दिन
तुम मेरी बाहों में सोना
मैं सर रख लूँगी अपना
तुम्हारे सीने पर,
उबलते रहेंगे
हम दोनों के मन देर तक
पका लेंगे उसमें
प्यार, नोकझोंक,
तकरार की मीठी बातें
और छान लेंगे
एक दूसरे के मन में;
कड़वाहटें अलग करके

इंसान बनना है मुझे

माँ ने कृतज्ञ होना सिखाया

और यह भी सिखाया कि

नदी, वृक्ष, प्रकृति की तरह बनो

देना सीखो,

पशुओं की तरह बनो

अनुगामी रहो

अब उलझन में हूँ मैं

क्या इंसान नहीं बन सकती!

एक और सुझाव मिला

गीता का सार समझो,

ईश्वर कहता है

….

कदाचित कुछ नहीं कहता ईश्वर

अलावा इसके कि

कर्म प्रधान रहे

निर्णय स्वयं से हो और

संतुलन बना रहे

पीनट बटर

जाड़ों की दोस्त मूँगफली और

मूंगफली का दोस्त पीनट बटर

अगर करते हो ज्यादा चटर पटर

तो आजमा कर देखो एक बार


*पीनट बटर*

Health Matters


हाँ, साहस है मुझमें

क्यों बनूँ मैं प्रेम में अमृता
और ओढ़ लूँ 
उस प्रेम की उतरन
जो किसी ने किसी से किया...
आज कोई ले मेरी प्रेम रज
और माथे रखकर कहे
'मुझे स्नेह पगी अभिलाषा स्वीकार है'
हाँ, मुझमें साहस है 
प्रेम में अभिलाषा बनने का
...और उससे एक दिन नहीं मिलूँगी मैं
मिलती रहूँगी आँखें पनीली होने तक
जैसे साँझ से मिलती है रात.

मेरा मरना

समय का सिंगारदान
काला हो चला है
सूख रही है मेरे कलम की स्याही
लिखने की मेज पर पड़ा
कप का निशान मिटता ही नहीं
मां कहती है,
मैं ज्यादा चाय पीने से मरूंगी
कितनी भोली है मां,
आज तक शायद ही
कोई डेथ सर्टिफिकेट बना हो
जिस पर मृत्यु का कारण
चाय पीना अंकित है,
जब इतने दर्द में जी गयी
मैं तो ज़हर से भी न मरूं;
मैं जब भी मरूंगी
आत्मा की भूख से मरूंगी...

तिरंगा

 बचपन से ही मुझे केसरिया रंग प्रिय रहा. तब जबकि देशभक्ति का अभिप्राय नहीं मालूम था. उस रोज जब काकू को गाड़ी से उतारा जा रहा था तब भी मुझे इस रंग से कोई शिकायत नहीं हुई. काकी को चूड़ियाँ तोड़ते देख मेरे अंदर से कोई जय हिंद बोला था.
ये वैधव्य क्या कहूँ इसे... ये सावन है एक सच्चे सिपाही की प्रेमिका का. मेरे मन ने २१ तोपों की सलामी देते हुए काकी को बस इतना ही समझाया..."तेरी इन चूड़ियों के हरे रंग से ही तो तिरंगा बनता है."

दूरी

निश्चय ही कोई पूर्व वाला  तड़पा होगा
किसी उत्तर वाले से मिलने को 
और बनी होगी पूर्वोत्तर रेलवे 
इस तरह मिटायी होगी दूरी 
दो दिशाओं के मध्य;
क्यों नहीं आता मेरा मन 
ऐसी ही किसी गाड़ी पर बैठकर 
जो देश,  काल,  समय न मानती हो

शोर अभी बाक़ी है


 शाम की लहर-लहर

मन्द सी डगर-डगर

कुछ अनछुए अहसास हैं

जो ख़ास हैं, वही पास है

साल इक सिमट गया

याद बन लिपट गया

थपकियाँ हैं उन पलों की

सुरमयी सुर हैं बेकलों की

व्हाट्स एप की विश मिली

और कार्ड्स की छुअन उड़ी

बनारस के घाट पर

मोक्ष की फिसलन से परे

ऐ ज़िन्दगी तेरे यहाँ

कितने सवाल अधूरे खड़े

मैं रोज़ उगता हूँ, मैं रोज बीतता हूँ

भागने की होड़ में सुबह जीतता हूँ

दोस्तों संग चाय की टपरी, उम्मीद के पल

जो कल था गुज़रा, वही तो आएगा कल

सोचो मत आगे बढ़ो, तुम जी भर लड़ो

पूरे करने को सपने, अपने आज से जुड़ो

यारों के साथ गॉसिप बूढ़ी न हो जाये

उम्र के उतार में भी दिल जवाँ कहलाये

कैलेंडर पर यूँ बदलते हैं नम्बर

जैसे पतंग डोर छोड़ती है

भरी दोपहर में धूप जैसे

खड़ी मुँडेर मोड़ती है

साल दर साल जाने का, जश्न मनाने का

कल की सूरत पे पड़ा पर्दा उठाने का

गठजोड़ हमपे बाक़ी है

रुख़्सती को है बीस इक्कीस

आने को बीस बाइस

हुल्लड़, मस्ती, शोर अभी बाकी है.

कोई पुरुष जब रोता है

 ओ स्त्री!

जब तुम रोते हुए

किसी पुरुष को देखना

तो बिना किसी

छल और दुर्भावना के

उसे अपनी छाती में

भींच लेना

और उड़ेल देना उस पर

वो सारा स्नेह

जो तुम अपने कोख़ के

जाये पर लुटाती...

कोई पुरुष जब रोता है

तो धरती की छाती

दरकती है

तुम्हें बचाना होगा स्त्री! दरार को.

पुरुष, पुरुष ही नहीं ईश भी है

वो ही न हो तो तुम स्त्री कैसे बनो?

मेरी पहली पुस्तक

http://www.bookbazooka.com/book-store/badalte-rishto-ka-samikaran-by-roli-abhilasha.php