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भाषा ने लिपि से कहा




मैं आँखों की मधुर ध्वनि

तुम अधरों से झरती हो

घट घट में मैं डूबी हूँ

तुम कूप कूप में रहती हो


संकुचित स्वयं में हूँ

और तुमसे विस्तारित हूँ

मैं आविर्भाव जगत का,

मुझे संरक्षित तुम करती हो


मेरी पहली पुस्तक

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