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एक पोशीदा मौत




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मैं मर रही हूँ

मैं मर रही हूँ हौले हौले
एक पोशीदा मौत
इस बार जब मैं लौटी
वियतनाम से
छोड़ आयी अपनी आँखें वहाँ
जैसे छोड़ दिए थे
जापान में अपने कान
और सारनाथ में जिह्वा
क्या करुँगी इन सबका
जब बोलना ही नहीं
ग़लत को ग़लत
सुननी नहीं चीखें
एक गांधारी है न मेरे भीतर भी
यहाँ सब
एक बेचैन यात्रा में हैं
सभी को जल्दी है कहीं पहुँचने की
मैं रोक लेती हूँ सहसा
अपने चलते हुए कदमों को
हर बार यात्रा करते हुए,
मुझे रास आये
रास्ते
मंजिलों से अधिक
ज़्यादा चलना चाहा रास्तों पर
माँ के चेहरे की ज्यामिति
कितनी बदल जाती है
मेरे देर से पहुँचने पर
पापा का स्वर
अचानक ही सप्तम हो जाता है
मैं अपने ऊबड़ खाबड़ दाँतों के बीच
हल्का सा जीभ को काटते हुए
कल्टी मार जाती हूँ
कोई बहाना नहीं मेरे पास
देर तो कल भी होनी है
कल भी तो होनी है
एक और यात्रा
तुम बताना जरा
मंजिल पर पहुँच कर
कम होती रही तुम्हारी बेचैनी?
और लूट न सके यात्राओं का सुख भी
बंद न्यायालयों का भार सह सकने वालों को
आती होगी मौत यूँ ही
रोज थोड़ा-थोड़ा मरते हुए
जैसे मर रही हूँ मैं

6 टिप्‍पणियां:

yashoda Agrawal ने कहा…

आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों के आनन्द में गुरुवार 16 अक्टूबर 2025 को लिंक की जाएगी .... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ... धन्यवाद!

सुशील कुमार जोशी ने कहा…

सुंदर

हरीश कुमार ने कहा…

बेहतरीन

Roli Abhilasha ने कहा…

आभार आपका !

Roli Abhilasha ने कहा…

आभार मान्यवर!

Roli Abhilasha ने कहा…

बेहद आभार!

मेरी पहली पुस्तक

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