To explore the words.... I am a simple but unique imaginative person cum personality. Love to talk to others who need me. No synonym for life and love are available in my dictionary. I try to feel the breath of nature at the very own moment when alive. Death is unavailable in this universe because we grave only body not our soul. It is eternal. abhi.abhilasha86@gmail.com... You may reach to me anytime.
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मारक ज़हर
'बापू सहर जात हौ पेड़ा लेत आयो' कलुआ की बात सुनते ही नन्हकू ने खाली जेब में हाथ डाला।
'सुनत हौ बप्पा की खांसी गढ़ाई रही न होते कौनो सीसी लाय देते सहर ते...इत्ते दिन ते परे-परे खाँसत हैं..करेजा हौंक जात है..'
'हम सहर बिरवा हलावे नाइ जाइ रहेन..देखी जाय डॉकटर अम्मा का कब लै छुट्टी देइ.. जैसे जेब फाटी जाय रही नोटन ते..यू सब लेत आयो..' सारी खीझ अपनी पत्नी पर निकालते हुए नन्हकू शहर जाने के लिए पगडंडी के रास्ते बढ़ा जा रहा था। लाचार पिता घर पर पड़ा था, माँ शहर के सरकारी अस्पताल में आखिरी साँसे गिन रही थी। इस समय उसकी चिंता का सबब बस एक ही था...अगर माँ को कुछ हो गया तो उसे शहर से गांव लाने और अंतिम संस्कार का खर्च कहाँ से आएगा, उसका रोम-रोम कर्ज से डूब गया था...अब कौन देगा पैसा...ईमान के अलावा और है ही क्या उसके पास?
वह मुक्ति चाहता था। अपना रास्ता बदलकर सीधा दवा की दुकान पहुँचा। मारक जहर लेकर घर की रास्ता पकड़ी। दरवाजे पर पहुंचते ही सन्न रह गया। शायद बड़कू अम्मा के मरने की खबर लाया था। पिता को देखकर कलुआ पेड़ा लेने की आस में उससे लिपट गया। जेब में हाथ डाला और खुशी-खुशी घर के अंदर भाग गया। घर के बाहर लोगों का जमावड़ा था, मिट्टी लाने की बात चल रही थी।
कुछ देर बीता ही था कि कलुआ की माँ चीखते हुए बाहर भागी, 'हमार कलुआ के मुँह से फेना काहे आ रहा..कलुआ के बापू?' नन्हकू की घिग्गी बँध गई और वह अचेत होकर गिर पड़ा...कलुआ वो मारक जहर खा चुका था।
समय तेरा जवाब क्या.....!
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आते हुए उसने खटकाया भी नहीं
जैसे दबे पाँव मगर
निडर चला आया हो कोई,
एक सवाल था उसकी आँखों में
कि मैं उसके आने के जश्न में
शामिल क्यों नहीं औरों की तरह,
कैसे बताऊँ उसे
जब स्वागत और प्रतिकार में
कोई फर्क ही नहीं
कौन रुकने वाला है मेरे रोकने से
न घड़ी की सुइयाँ,
न ही समय में लिप्त दर्द,
इस रूह कँपाती सर्दी में
नए वर्ष का जश्न
एक सुखन दे गया,
आज वो भी खुले आसमान के नीचे
बिना कपड़ों के आवारा थिरक रहे हैं,
जिनकी तिजोरियाँ बोझ से दरक रही हैं,
कल सुबह यहीं से बच्चे
बीनकर ले जाएंगे
खाली ब्रांडेड बोतलें;
वो आ गया है अपना समय पूरा करने
उसे भी तो देखना है
कितनी हाँड़ी बिना भात की हैं,
कितने नन्हे भूखे सोये,
कितनी माँओ ने पानी डालकर
दाल दोगुनी कर दी,
कितने लाल रेस्टोरेंट के नाम पर
पानी में दाल का बिल भरते हैं:
उसे अपना चक्र पूरा करके
चले जाना है,
क्या फर्क पड़ता उसे विषमताओं से,
उसमें संवेदना की बूंद तक नहीं
वो तो है हर रोज़
कैलेंडर पर बदलती एक नयी तारीख।
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