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शब्द ही शिव हैं


शब्द ही शिव हैं
कभी प्रेम के रचे जाते हैं
कभी उद्वेग
तो कभी अंत के.

आच्छादित करते हैं
मन की तृष्णा को
समय के बहाव
और नदी के वेग को.

है शब्द का अमरत्व ये
कर में सरल है
दिमाग में भुजंग हैं
मन में महत्वहीन बन जाते हैं.


कविता का शीर्षक माननीय अनूप कमल अग्रवाल जी "आग" के शब्दों से उद्धत है 🙏


शब्दों की छुअन और मैं


तुम्हारा हाथ अपने हाथों में लेकर
सदियों तक बैठना चाहती हूँ तुम्हारे पास
और तुमसे पूछना चाहती हूँ वो सब कुछ
जो मैं तुम्हें पढ़ते हुए महसूस कर पाती हूँ…
कैसे उतरती हैं मुंडेरें छत से
शाम की ढलती धूप में,
कैसे कागज रोता है शब्दों से गले लगने को,
कैसे प्रेमी की आँखों में रात होती है,
कैसे सपने मुरझाकर आकाश की हथेली पर
हल्दी रखते हैं सूरज वाली,
कैसे देख सकते हो आसमान में लाल रंग उतरना,
सियाह रात में धनक का खिल जाना,
खिलती होगी पलाश से
जंगल की आग
मैं तो तुम्हारे भावों की बिछावन पर
मन सेकती हूँ.
कैसे तुम शब्दों को इतना प्रेम सिखा पाते हो!
इन्हें पढ़ते ही इनसे कर बैठती हूँ आलिंगन
गोया तुम यहीं हो
और मैं... 
मैं तो बस स्नेह की कठपुतली
जिसकी डोर तुम्हारे शब्दों ने
अपनी उंगलियों में फंसा रखी है
जितना चाहो हँसती हूँ
जितना चाहो रोती हूँ
यह तुम्हारे शब्द भी ना
जाने इतने जीवित से क्यों होते हैं!
कभी-कभी पीछे से आकर
अचानक कंधे पर हाथ रख देते हैं
जब मुड़कर देखती हूँ
तो आंखें फिरा लेते हैं
ये तुम्हारे शब्द पसंद करते हैं
मेरी आंखों से चूमा जाना
इन्हें भाता है मेरे दर्द का जिमाना
मगर कहते नहीं कभी मुकर जाते हैं
कि बोल भी सकते हैं.

मेरी पहली पुस्तक

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