•एक उचाट सा मन लिए
कोने कोने घूमता हूँ
मैं गैटविक हवाई अड्डा
हर गुज़रने वाले चेहरों में
ए आई वन सेवन वन के यात्रियों को खोजता हूँ
जो उस रोज उड़ा था
सरदार वल्लभभाई पटेल हवाई अड्डे से
एक सामान्य सी उड़ान “अहमदाबाद टु लंदन”
मगर पहुँच न पाया
न ही कभी पहुँचेगा
कुछ तो हुआ होगा असामान्य
कि वो नहीं पहुँचा अपने गंतव्य
सबने कंधे झाड़ लिए कहकर
‘सब कुछ तो ठीक था हमारे एण्ड से’
फिर क्यों हुआ उसका द एण्ड
आस थी भरपूर उसके डैनों में
अपनी इच्छा का आसमान मापने की
फिर क्यों न चल सकी
दस घंटों की उड़ान दस मिनट भी
ध्वस्त हो गये प्रतीक्षांकुर
हँसी मरी
दुःख जमा
पिघल गयी आँसुओं की लैबोरेट्री
देहों का खून हो गया काला
दरकी खिड़कियों पर पसरी गूँज
दरवाजों ने फेंके क्षत विक्षत शव
दुत्कारे गये प्रार्थनाओं के नियम
इतनी निष्ठुर नियति
कि निगल गयी
एक उस दोपहर के साथ अंतहीन दिनों को
कुछ जीवन से विदा हो गया
भोर का लालित्य
सांझ का स्मित
बदले में देकर अवसाद का ब्लैकहोल
सोचो मौन के दीर्घायु होने से पहले
कितना चीखी होगी बेबसी
एक ग़ैरजरुरी बात की तरह
कितनी जल्दी भुला दिया तुमने
कैसे भूल गये तुम
और कैसे भूल जाऊँ मैं
मेरी छाती पर लोटती है फुसफुसाहट
कि वो नहीं आये
शापित महसूसता हूँ
कौन देगा मुआवजा
मेरी उम्मीद को ओवरटाइम का
जो सुस्ताती नहीं, रुकती भी नहीं
मैं गैटविक हवाई अड्डा, लंदन
उन आगंतुकों की फाइल्स में
तमाम थ्योरीज पढ़कर भी नहीं होऊँगा संतुष्ट
जिनकी पदचाप जब्त कर गया समय
जिन्हें घटना था
मगर घटकर रह गया
सामान्य तो नहीं हो सकता
एक साथ इतनी पदचापों का ठहर जाना
किसने रोका होगा
किसने किया होगा स्वागत
रुकने से पहुँचने के अंतराल तक
जाते हुओं को यदि कोई दे सका प्रगाढ़ आलिंगन
तो वो थीं उस छात्रावास की दीवारें, छत
और वो चुनिंदा लोग
जो कल चिकित्सक कहलाते
उन्हें भी असमय पहनना पड़ा
मृत्यु का ताबीज
मेरी आतुरता
कातर दृष्टि में कलप कर रह गयी
जीवन के सिलेबस में
अजीवित हो जाने की ऐसी दारुण कथा
कभी कभी लगता है
कि मनुष्यों को बनाकर ईश्वर
स्वयं भी सीख रहा है मनुष्य होने की कला
भाव प्रणव मनुज से अनसाॅल्व्ड रुब्रिक तक की
अकथनीय टीस का मर्म
जरुर सुलझा सकोगे तुम
पर बागेश्वर से ग्रोक तक
कोई मत कहना
कि तुम्हें सब है पता
इंसान होकर इंसान बने रहने को चाहिए
टाइटैनियम का कलेजा
फिर मेरे वेटिंग एरिया में भी हो सकेगा
दर्द का एटमिक टेस्ट
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें