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तुम एक प्रयोज्य हो स्त्री


 नहीं है मुझे तुमसे रत्ती भर भी सहानुभूति

तुम एक प्रयोज्य हो स्त्री

खोखली वायु के आकाश में विचरने वाली

क्या उदाहरण बनोगी किसी के समक्ष?

नहीं निकाल पायी थी तलवार

अपने म्यान से औचक

तो नोंच लेती उसकी खाल

दाँत और नाखून भी तो हथियार ही हैं

कुछ नहीं तो घृणा से थूक ही देती

उस भेड़िये की आँखों में

तुम्हारे रुदन की पीड़ा कुछ तो कम होती

अपमान का घूँट तो न गटकना पड़ता

छाती और पेट पर मार तो न लगती

तुम्हें पता है तुम्हारे बहाने से

यह पुरुष समाज एक बार फिर करेगा अट्टहास

और मनायेगा स्त्री की कमजोरी

इन्हीं में से कुछ पुरुष आयेंगे आगे

और जबरन रख लेंगे तुम्हारा सिर

अपने कंधे पर

उनकी सहानुभूति में मिश्रित रहेगा

पुरुष के वर्चस्व का महिमामंडन

‘स्त्री दुर्बल है और दुर्बल ही रहेगी’

तुम्हारे दरवाजे पर पसरी भीड़ का स्लोगन

भले ही उच्च स्वर में न हो

पर परिस्थितियों में प्रमाणबद्ध रहेगा

मार खाकर डंके की चोट पर दण्ड दो

अथवा क्षमा

स्त्री ही रहोगी

संभवतः इसीलिए नियति ने तुम्हारे वास्ते

बस एक दिवस बनाया है


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सुसाइड नोट


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ये मेरे आखिरी शब्द
जो कल डायरी बन जाएंगे;
एक भयंकर अंतर्द्वंद्व,
उथल-पुथल का जीता-जागता उदाहरण हैं
मैं, मेरे मैं को
मिट्टी में मिलाने जा रही हूँ,
माँ, हो सके तो माफ कर देना मुझे
इस देह पर बिना हक़ का
हक़ जता रहीं हूँ,
पापा, तुम्हारा दिया हुआ आत्मसम्मान
न बचा पाई,
जो भी सजा दोगे आप मंजूर है
बस पापा बोलूँ तो मुंह मत फेरना:
ये मत सोचना कि तुम्हारी बेटी
मर गई है,
मैं जीना चाहती हूँ पापा
मगर इस देह में 
हर पल एक नई मौत मरकर नहीं
बल्कि जिस्म के इस पिंजड़े से आज़ाद होकर,
आज मैं बोलूँ तो कौन है सुनने वाला
कल, मेरी श्राध्द के बाद से
कोई होगा जो हर शाम
मेरे यादों की तकिया अपने सिरहाने रखेगा,
पापा, तुम रोज तर्पण करना
अंजुलि भर दाल-चावल और 
होंठों में नमी लाने भर का पानी;
कपड़े, गहने, गीत-संगीत
कुछ भी मुझे अर्पण मत करना,
इन सबका मैं क्या करूँगी,
दर्द भर स्याही से
जीवन भर कागज पर लिखी
जो मेरी थाती है न,
बस इसे ही समझना:
कई बार जताया था मैंने
कि मैं भंवर में हूँ,
कई बार समझाया था ज़िन्दगी को
कि मैं जीना चाहती हूँ,
वक़्त आगे बढ़ता गया
और मैं जीने की जिजीविषा हारती रही:
जब वेदना की आखिरी चट्टान पर थी
तब भी दृढ़ थी,
बस एक झोंके से आत्मविश्वास ढ़ह गया
और उस पल एक तिनका तक न दिखा
जिसपर मैं बाकी का सफर करती,
आज साँस छोड़ रही हूँ,
देह छोड़ रही हूँ,
अनथकी आत्मा बस यहीं रहेगी:
पापा, जो साँसें नहीं बचा सकते
क्या वो ज़िन्दगी का मोल समझेंगे कभी?
क्या इतना काफी नहीं
कि मैं सफ़र करूँ??

मेरा अस्तित्व

आज बच्चे को अस्पताल ले जाना था..ऑफिस से छुट्टी लेनी पड़ी..पहुंचने में देर हो गई नम्बर आने में वक़्त था..पतिदेव मुझपर बरस पड़े, 'तुम्हारी वजह से हुआ ये, ऑफिस में लंच के बाद पहुंचने को बोला था अब क्या करूं?'
'मैडम आप प्लीज किनारे आकर लड़ाई कर लीजिए, मुझे झाड़ू मारना है' मैं स्वीपर की बात पर किटकिटा कर रह गई।
'तुम गेम खेल रहे हो और तुम्हारी वजह से मैं टॉर्चर हो रही हूं। सौ बार बोला है वक़्त देखकर काम किया करो।' बेटे के हाथ से मोबाइल लेकर मैं सुकून की तलाश में फेसबुक लॉग इन करके किनारे बैठ गई।
यही कोई 10 मिनट के बाद बॉस की प्रोफाइल पर एक अपडेट आती है, '.... निःसन्देह एक कर्मठ एम्प्लॉई थीं पर ऑफिस से बेटे की बीमारी का बहाना करके छुट्टी लेकर फेसबुक पर सक्रिय पाई जाती हैं। मैं नहीं चाहता कि इनकी इस हरकत का असर फर्म के अन्य एम्प्लॉई पर पड़े। इनकी सेवाएं तत्काल प्रभाव से समाप्त की जा रही हैं।'
'तभी कहता हूं एक भी काम सही से नहीं होता तुमसे। क्या जरूरत थी इसकी...' पतिदेव का तंज मेरे रोष को और बढ़ा गया। बहुत मुश्किल से हाथ आई जॉब मेरे सपनों को किरच-किरच तोड़ रही थी और मेरा अस्तित्व प्रश्नचिन्ह के घेरे में था।

मेरी पहली पुस्तक

http://www.bookbazooka.com/book-store/badalte-rishto-ka-samikaran-by-roli-abhilasha.php