To explore the words.... I am a simple but unique imaginative person cum personality. Love to talk to others who need me. No synonym for life and love are available in my dictionary. I try to feel the breath of nature at the very own moment when alive. Death is unavailable in this universe because we grave only body not our soul. It is eternal. abhi.abhilasha86@gmail.com... You may reach to me anytime.
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ज़िन्दगी, तू ही तो है!
न कोई और है रहबर, मांगे बस तेरी पनाहें
तू तो बस अब ही ठहर न किसी रोज़ न आ
मैं तो हूँ तुझमें ज़िबा तेरा कोई और ठिकाना
तेरी चाह बस वहीं थमीं
उस ओर ही टूटा था सितारा
जिस ओर मेरी आँखों ने
तुझे जी भरके निहारा
तेरी खुशबू, तेरा जादू
बस तेरी ही तेरी कमी
तू है तो कहीं
पर यहाँ तो नहीं
हो तेरा कोई ख्वाब अधूरा उसे पूरा कर दूं
मुझे ज़ीनत न समझ दिल की ये इनायत कर
तुझे चाहूं मैं बेसबब, खुद को ज़िंदा कर दूं
तेरी हर अदा पर फिदा
छू ले एक बार मेरा दर्द
सुकूँ हो जाये
मैं जागती रहूँ तुझमें
और ये रात हममें सो जाए
ये खिला-खिला सा तू
वक़्त दे बस इतना सुकूँ
मैं चीर के दिल रख दूँ, तू गुनाह तो बता
तुझको चाहा है, बस चाहा है और चाहा है तुझे
ये गुनाह है तो आकर दे दे एक रोज़ सजा
बस एक लम्हे के लिए
मैं छोटी सी नदी
वो सैलाब तेरी मोहब्बत का
मैं बह तो गयी
पर फना होकर
तेरी आँखों में सिमट जाए, ख़्वाब हमारा कर ले
है तेरे सुरूर की हसरत और बस दीवानगी तेरी
तू मेरे दिल का हो रहबर सितम भले सारा कर ले
वो जूस वाला...
"हाँ तो ठीक है न! कौन सा मेरी जागीर ले गया?"
"और क्या अब तो ऐसे बोलेगी ही तू!"
"अपने काम से काम रख और गाड़ी चलाने पे ध्यान दे। वैसे मुझसे ज़्यादा अब तू जूस वाले का इंतज़ार करती है।" मेरा इतना कहना था कि वो चुप होकर गाड़ी चलाती रही। मैं अपनी फ्रेंड के साथ रोज़ इसी रास्ते से आफिस जाती थी। पहले तो कभी ध्यान नहीं दिया पर एक दिन साथ में पानी न होने पर जूस का ठेला दिख गया। वैसे तो मैं बाजार की कभी कोई चीज़ नही खाती-पीती थी पर वो जूस उस दिन मुझे अमृत सरीखा लगा। जूस पीने से पहले मेरी दो शर्त थीं। पहली तो ये कि साफ-सफाई हो और दूसरी कि मौसमी मतलब मौसमी, इसके अलावा कोई और जूस न निकाला गया हो। दोनों कैटेगरी में जूस वाले को 100 आउट ऑफ 100 जाते थे। उसका सर्व करने का शालीन तरीका भी मुझे बहुत पसंद आया।
हम दोनों अक्सर रुककर जूस पी लेते थे। एक दिन हम सामने से बिना रुके निकल गए। दूसरे दिन जाते ही उसने पूछा, "मैडम आप कल नहीं आयीं?"
"अरे भैया जी, कल हमारे पास चेंज नहीं था।"
"तो क्या हुआ बाद में ले लेते। अब रोज़ पी लिया करिए पैसे एक साथ लेंगे।"
मैंने उसे सौ का नोट दिया, वो चेंज वापिस करने लगा।
"आप इसे रख लीजिए, कल फिर आऊंगी तो नहीं दूँगी।"
"अरे नहीं मैडम हम ये नहीं लेंगे। आप पहले जूस पियेंगी जब 100 रुपये हो जाएंगे हम इकट्ठा ले लेंगे।"
मैंने ज़बरदस्ती 100 रुपये ठेले पर डाल दिये और चली गयी। रास्ते भर मेरी दोस्त बड़बड़ाती रही, न जान न पहचान क्या जरूरत थी 100 रुपये देने की उसे। ये सब ऐसे ही होते हैं, अगर भाग जाए तो....। मैं चुप रही।
पर उस दिन के बाद से मैं आज तक ताने सुन रही हूँ। मैं भी परेशान हूँ इसलिए नहीं कि पैसों का गम है बल्कि उस जगह वो जूस का ठेला देखने की आदत सी हो गयी थी। अब किसी और जूस में वो टेस्ट नहीं आता था।
मैं उधेड़बुन में थी कि गाड़ी एक गाय से टकराकर डिवाईडर पर पलट गई। मेरी आँखें हॉस्पिटल में खुलीं। बाद में पता चला कि गिरने की वजह से मेरे सर में चोट आ गयी थी। मेरी फ्रेंड किसी की हेल्प से मुझे हॉस्पिटल तक लायी। हेल्प करने वाला कोई और नहीं बल्कि वही जूस वाला था। आज से ठीक 21 दिन पहले उसके बेटे का रोड एक्सीडेंट हो गया था। तब से आज तक वो इसी हॉस्पिटल के आस पास रहता है। पैसों के लिए कभी-कभी मौसमी का जूस भी निकालता है। एकदम बदल सा गया है वो, पहले से बहुत दयनीय लाचार सा दिखने लगा है। मेरे होश में आते ही जूस का गिलास लेकर आ गया। आज कितने दिनों के बाद वो टेस्ट पी रही थी मैं। मेरी फ्रेंड ने पैसे निकालकर देने को हाथ बढ़ाया।
"क्यों शर्मिंदा कर रही हैं मैडम, अभी तो आपके 100 रुपये हैं हमारे पास। हम गरीब हैं पर बेईमान नहीं। बहुत लाचार हो गए बच्चे को कोई दवा असर नहीं कर रही। आपको पैसे देने भी न आ पाए।" मेरी फ्रेंड कुछ बोलती इससे पहले ही डॉक्टर का बुलावा आ गया।
"रामआसरे जी, आपके बच्चे को होश आ गया। डॉक्टर साहब आपको बुला रहे हैं।"
मैं जूस वाले भैया उर्फ रामआसरे को वार्ड की तरफ भागते देख रही थी। मेरी फ्रेंड आँखों की कोरों पर आँसुओं को छुपाने की कोशिश कर रही थी।
एक थी शी
रोज़ की तरह आज भी शी उसे बेपनाह याद किये जा रही थी। शरीर बुखार से तप रहा था फिर भी उसे अपना नहीं ही का ही ख्याल आ रहा था। एक तरफ ही था जो दूर भागता रहता था। शी कितना भी कोशिश करती पर खुद को नहीं समझा पा रही थी। उसके लिए दूरी मौत का दूसरा नाम थी। ही जो पहले उसे इमोशनली सपोर्ट करता था, अब अचानक कतराने लगा था। काफी दिनों से ये सब देखते हुए शी अब अंदर तक टूट गयी थी। एक अलग सा वैक्यूम बन गया था उसके अंदर।
लेटे-लेटे अचानक शी को कुछ घबराहट सी महसूस हुई। अनजाने में ही उसका हाथ गले पर चला गया, बहुत खालीपन सा महसूस हुआ उसे। शी के गले में हमेशा ही एक चैन हुआ करती थी। एक रोज़ ही से बाते करते हुए वो कब उसे निगल गयी पता ही न चला। बहुत परेशान हुई थी वो। उसकी परेशानी का सबब ये नहीं था कि चैन गयी या लोगों को क्या जवाब देगी या चैन के बगैर वो रह नहीं पाएगी बल्कि उसे ये लग रहा था कि माँ से नज़र कैसे मिलाएगी? बहुत प्यार से माँ ने उसे गिफ्ट किया था, क्या कहेगी उनसे कि सम्हाल नहीं सकी उनका प्यार या फिर ये कि ही उसके लिए माँ से भी ज़्यादा इम्पोर्टेन्ट हो गया था।
आज शी की घुटन का सबसे बड़ा कारण यही है कि ही उसकी जिंदगी में ऐसे मिल गया था जैसे हवा में साँसे घुल जाती हैं पर ही ने एक अलग ही दुनिया बना ली थी। जिसमें हर वो शख्स था जिसे वो अपना कहता था अगर कोई नहीं था तो वो शी।
शी के लिए जीने की कोई वजह नहीं थी। यहां तक कि उसने अपने आखिरी वक्त में ही से बोलना भी नहीं जरूरी समझा। कहीं दो शब्द भी न छोड़े अपने ही के लिए।
रात के दो बजे बिस्तर से उठकर माँ के कमरे में आयी। उसका ये वक़्त चुनने का कारण ही था। वो हर रात दो बजे तक उसकी कॉल का वेट करती रहती थी, आज भी किया पर उसे मायूसी इस कदर निगल चुकी थी कि इंतज़ार को एक और रात नहीं दे सकती थी।
"मुझे माफ़ कर दो माँ, मैंने तुम्हारा दिल दुखाया। अब मुझे जीने का कोई हक़ नहीं।" इतना कहकर माँ के पैरों पर सर रख दिया। अब तक नींद की गोलियां अपना असर कर चुकी थीं।
शी इज़ नो मोर नाउ.....
मेरी प्यारी मेट्रो
इंसान बना दिया
हज़रतगंज को हल्दीघाटी का
मैदान बना दिया
गलियों से गुजरते हैं
तब अपने ये आलाकमान हमें
बिल्कुल औरंगज़ेब से लगते हैं
दिलकश तहज़ीब के शहर को
बेजान बना दिया।
हर रोज़ जाम का झाम देकर
खुद आकाश-पाताल की सैर करे
हमें वादे तमाम देकर
मगर ऐ महज़बीं, तूने झूठ बोलना
कुछ और आसान बना दिया।
सबको बहुत लगे खूबसूरत
लोग कहते हैं शहर को थी
एक तेरी बहुत जरूरत
ज़मीं की है तू, ज़मीं पे ही रहना
दिल को तेरा अरमान बना दिया।
दिल से इस्तक़बाल है तुम्हारा
हम तो तुमपे दिल हारे हैं
बोलो क्या ख़याल है तुम्हारा
अपने भाव ज़रा कम ही रखना
एंटीक नहीं तुमको साजो-सामान बना दिया।
कचरे से बोतल बीनते बच्चे!
कभी उन्हें टिकाते हैं जमीन से
बैट की तरह,
कभी उन खाली बोतलों में
हवा भरने की नाकाम कोशिश करते हैं,
सूखे फेफड़ों की फूँक से
निकलने वाला संगीत लुभाता है उन्हें;
उन्होंने देखे होते हैं सारे ब्रांड
पर उनकी प्यास बुझाने वाला
है न उनका सुपर ब्रांड
म्युनिसिपलिटी की डायरेक्ट सप्लाई;
क्योंकि ईश्वर ने भी उन्हें भेजा है
डायरेक्ट सप्लाई वाला टैबू बनाकर;
किसी बड़े रसूखदार के मार्फ़त नहीं भेजा
न ही कोई साधारण सा बच्चा बनाकर
वो तो निम्न सोच की
प्रजनन क्षमता का नमूना हैं:
उन्हें कोई गुरेज नहीं
शीत, ताप, बारिश और बर्फीली हवाओं से
उन्हें तो बस इकट्ठी करनी हैं
कचरे से बीनकर
डिब्बे के संग खाली बोतलें।
दरियादिली
माँ...माँ... कहता हुआ नन्हा मेहुल स्कूल से आते ही गले से लिपटते हुए माँ को दुलारने लगा पर माँ ने उसे झिड़की दे दी।
"देख नहीं रहा अभी मैं क्या कर रही। शारदा देख मेहुल आ गया है इसका बैग लेकर ऊपर जा, ड्रेस चेंज करा देना। कुछ खिला भी देना, अभी मुझे स्वामी जी के साथ थोड़ा सा वक़्त लगेगा।" नौकरानी को आदेश देते हुए मेहुल की माँ फिर से स्वामी जी की आवभगत में लग गयीं।
तब तक दरवाजे पर एक बच्चा भीख मांगते हुए आ गया, "दीदी रोटी दे दो। दो दिन से भूखे हैं।"
"जा भाग यहाँ से, कोई और दरवाजा देख।"
"दीदी कुछ खाने को दे दो, हमने दो दिन से कुछ नहीं खाया है।" बच्चा बहुत दयनीयता से स्वामी जी की ओर देखने लगा।
"भागेगा यहाँ से या बताऊँ?" इतना कहकर माँ ने दरवाजे बंद कर दिए और स्वामी जी के लिए कपड़े और दक्षिणा सम्हाल कर रखने लगीं।
"माँ, इसमें से कुछ पैसे दे दो न बेचारा बहुत भूखा है।" मेहुल के इतना कहते ही उसकी माँ और स्वामी जी एक साथ गुस्सा करने लगे।
"कहाँ चली गयी शारदा, इसे लेकर जा यहाँ से।" माँ चिल्लाते हुए बोली तभी स्वामी जी बात को काटते हुए बोले, "अच्छा अब मैं भी चलता हूँ।"
"अरे स्वामी जी अभी कहाँ, आपने भोजन तो किया ही नहीं।"
"अभी इच्छा नहीं, फिर कभी।"
"दीदी...दीदी...!" शारदा भागते हुए आयी।
"क्या हुआ शारदा?"
"दीदी, मेहुल बाबा कहाँ?"
"अभी तो यहीं था, कहाँ गया?"
माँ और शारदा सीढ़ियों से ऊपर की ओर भागे। चारों तरफ मेहुल के नाम की आवाजें गूँज रहीं थीं पर उसका कहीं पता नहीं। माँ का बुरा हाल था। शारदा उसके पीछे-पीछे दौड़ रही थी। दोनों गेट से बाहर आये। माँ देखकर अवाक रह गयी। अभी कुछ देर पहले जिस बच्चे को उसने डांटकर भगा दिया था, मेहुल उसे अपना बचा हुआ लंच खिला रहा था। स्वामी जी उसकी पीठ पर हाथ फेरने लगे। माँ की आँखों में खुशी और पश्चाताप का मिला-जुला भाव था।
मेरी सोच भी बड़ी खानाबदोश सी हो गयी है
खानाबदोश सी हो गयी है,
कभी तुम पे ठहरती है।
भटकते-भटकते न जाने
कितनी गलियों से गुजरती है।
भूखे बच्चे की आँसुओ की सदा,
कभी बन जाती है
कोई मासूम सी अनाथ की दुआ
आज बन्द तिजोरी में रखे
कागज़ के टुकड़ों में सो गयी है।
किसी बेवा की हया
कभी कोठों की रंगीनियों में
खोई जफ़ा,
आज ऊँचे घरानों की
बेहया ज़ीनतों से लिपटकर रो गयी है
सोने-चांदी की खनक सा
इत्र-गुलाबों में छुपा है
एक मासूम महक सा
नापाक हवा इनसे मिलकर
हो पाक जो गयी है।
खानाबदोश सी हो गयी है,
मेरी पहली पुस्तक
http://www.bookbazooka.com/book-store/badalte-rishto-ka-samikaran-by-roli-abhilasha.php
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