शाम की लहर-लहर
मन्द सी डगर-डगर
कुछ अनछुए अहसास हैं
जो ख़ास हैं, वही पास है
साल इक सिमट गया
याद बन लिपट गया
थपकियाँ हैं उन पलों की
सुरमयी सुर हैं बेकलों की
व्हाट्स एप की विश मिली
और कार्ड्स की छुअन उड़ी
बनारस के घाट पर
मोक्ष की फिसलन से परे
ऐ ज़िन्दगी तेरे यहाँ
कितने सवाल अधूरे खड़े
मैं रोज़ उगता हूँ, मैं रोज बीतता हूँ
भागने की होड़ में सुबह जीतता हूँ
दोस्तों संग चाय की टपरी, उम्मीद के पल
जो कल था गुज़रा, वही तो आएगा कल
सोचो मत आगे बढ़ो, तुम जी भर लड़ो
पूरे करने को सपने, अपने आज से जुड़ो
यारों के साथ गॉसिप बूढ़ी न हो जाये
उम्र के उतार में भी दिल जवाँ कहलाये
कैलेंडर पर यूँ बदलते हैं नम्बर
जैसे पतंग डोर छोड़ती है
भरी दोपहर में धूप जैसे
खड़ी मुँडेर मोड़ती है
साल दर साल जाने का, जश्न मनाने का
कल की सूरत पे पड़ा पर्दा उठाने का
गठजोड़ हमपे बाक़ी है
रुख़्सती को है बीस इक्कीस
आने को बीस बाइस
हुल्लड़, मस्ती, शोर अभी बाकी है.