मेरा शपथ-पत्र



अगर कोरोना से मरी तो नेत्रदान का मेरा संकल्प अधूरा रह जाएगा.

इतनी सुंदर न थी ये आँखें मग़र तुमपर ऐसी टिकी कि ख़ूबसूरत हो गईं.

मेरी आँखों में मेरी आत्मा शेष रहेगी और वो तुम्हारी कविताओं के प्रेम में जीवित रहेंगी.

माँ का संदेश


घण्टी बजते ही मैंने अख़बार किनारे रखकर दरवाज़ा खोला.

"अरे माँ तुम, पहले बता देती तो मैं स्टेशन पर लेने आ जाता" पैर छूकर उनका सामान ले लिया.

"तुम परेशान थे तो हम आ गए. अग़र पहले से बता देते तो तेरी ये ख़ुशी कहाँ दिखती"

"ये इतना क्या सामान लाई हो?" मैंने कौतूहलवश निकालना शुरु किया.

"अरे ये तो मेरी बचपन वाली ड्राइंग कॉपी है. इस पर मैं तुम्हारे चेहरे बनाया करता था, गुस्से वाला, प्यार वाला, हँसी वाला…"

"हाँ और जब हम किसी को दिखा देते थे तो तुम रूठ जाया करते थे"

"सब लोग मुझे हँसते जो थे बस एक तुम्हीं तो थीं जो हर ख़राब ड्राइंग की भी तारीफ़ करती थीं. अब समझ में आया कि तुम माँ थीं, तुम्हें तो अपने बेटे में कोई बुराई दिखती ही नहीं थी. माँ, इधर बैठो मेरे सामने आज फ़िर तुम्हारा चेहरा बनाता हूँ"

"नहीं, इसे रखो किनारे. तुम्हारे लिए कुछ खाने को लाए हैं"

"क्या है इसमें?"

"पुलाव. तुम्हें बचपन से बहुत पसंद है न!"

"माँ अपने हाथों से खिलाओ मुझे"

माँ मुझे पुलाव खिलाती रही और मैं खाता रहा. आज बहुत दिनों के बाद मैंने इतना खा लिया पर मन नहीं भरा. माँ की गोद में सर रखकर बैठा रहा और वो मेरा माथा सहलाती रही. उसकी हथेली इतना सुकून दे रही थी कि अब कभी सर दर्द नहीं होगा. मेरी सारी परेशानियां उसकी गोद में रह गईं और मैं उनकी तस्वीर बनाने को उठ खड़ा हुआ.

"माँ अब बनाने दो ना अपनी तस्वीर"

"नहीं तुम तो ख़ुद मेरी तस्वीर हो. अब अपने बच्चों की माँ की तस्वीर बनाओ. तुम्हारे जीवन में रंग उनको भरने हैं. अब अपनी पत्नी में तुम एक औरत नहीं बल्कि माँ को देखो. अपने बच्चों को वो प्यार दो जो तुम मुझसे चाहते हो. अपनी पत्नी को वो सम्मान दो जो मुझे देते हो. मानसिक संताप और क्रोध किसी समस्या का अंत नहीं स्वयं में एक समस्या ही है"

"...और हाँ व्हाट्स एप और फ़ेसबुक का प्रयोग भी सीमित कर दो. जिन समस्याओं से भागकर उनके पास जाते हो, सच तो ये है कि वही समस्याओं का कारक हैं" माँ अपनी बात कहती जा रही थी और मेरी नज़रें दीवाल पर चुभ गई थीं.

"...तुमने बहुत परेशान होकर हमको याद किया तो हमें आना पड़ा. अब हमारे लिए परेशान मत हो उनके बारे में सोचो जो तुम्हारे पास हैं…" इतना कहते ही माँ की आवाज़ दूर चली गई और मेरी नींद खुल गई. तब मुझे याद आया माँ तो तारा बन चुकी है, शायद वो मुझे यही संदेश देने आई थी.

दो क्षणिकाएँ

१. तुम आग हो
तो मैं एक रसायन
आओ मिलकर बनाते हैं
जैविक हथियार
और समूचे ब्रह्मांड में
फैला देते हैं
प्रेम का वायरस.


२. प्रतीक्षा है मुझे
उस दिन की
जब पृथ्वी
अपना गुरुत्व खो देगी
और मैं
तुम्हारा हाथ थामकर चलूँगी
तुम्हें मंगल ग्रह तक छोड़ने…

कवि होना आसान है!

कवि बदल सकता है कमीज़
हर बार मौसम की अनुकूलता के समान
ताप सहता है तो ठिठुरता भी है
निकाल लेता है छतरी मानसून से पहले
पर कविता होती ही है बड़ी ढीठ
लिखे गए भाव से न पढ़ी गई गर
तो कर ही डालती है अर्थ का अनर्थ,
दिखती रहती हैं कवि की जड़ें
और कविता को पहचानते हैं हम
उस पर उगे फूलों से
नमी चुराती है वो हमारी, तुम्हारी आंखों से,
नहीं रहता कभी कवि का बसंत एक सा
पर कविता का मधुमास तो एक ही होना है
बहुत तल्लीनता अवशोषित करती है कलम
एक कविता बनाने में
वहीं कवि लिख देता है कभी भी कुछ भी
कविता कवि का वह जोखिम है
जो पहनने से पहले कवि
कलफ़ लगाता है शब्दों का
इत्र लगाता है भावों का
तब कहीं रचती है एक सुंदर कविता.

प्रेयसी

प्रेयसी बनना चाहती है वो
पर बिना पहले मिलन
प्रेम सम्भव ही कहाँ,
सुलझाते हुए अपने बालों की लटें
उसे प्रतीक्षा होती है उस फूल की
जो उसका राजकुमार लाएगा
जूड़े में लगाने को.

चढ़ाते हुए चूल्हे पर चाय
वो मिठास ढूँढती है
कि उन हाथों में जाने से पहले प्याला
मद्धम आँच के ज्वार भाटे सहेजेगा,
उद्विग्न हो उठता है उसका मन
प्रेयसी बनने को.

कोई भी शब्द पढ़ने से पहले
समझना चाहती है
इस ब्रह्मांड की सभी मौन लिपियाँ
कि उनके पार जा सके
और जान सके प्रेम के अनकहे रहस्य
प्रेयसी बनकर.

इच्छाओं के समंदर को जीते हुए
वो बनकर रह गई है प्रेम सी
अब उसे अपना मन रिक्त करना है
अपना यायावर प्रेम
लुटाना है उस प्रेमी पर
जिसके साथ पहली ही मुलाक़ात
अभी लंबित है.

अबूझी कहानी

वो यायावर था
वो स्वयं के खोल में भी
एक कोना ढूँढने वाली निर्मोही

जाने कैसे प्रेम हो गया

अब वो अपने आप में
ग़ुम सा शांतिदूत
और वो
उसके मन के ब्रह्मांड को खोजती
अनथक घुमक्कड़.

प्रार्थना

कुछ दिनों के लिए
इस जग से इतर
विलीन हो जाना चाहती हूँ मैं
उस अंतर्ध्वनि में
जो ईश्वर के लिए
किया गया नाद है,
पर तुम मुझे पाते रहोगे
तुम्हारे लिए की गई
मेरी प्रार्थनाओं में.

प्रेम में राजयोग

सुनो ना!
ये जो प्रेम है
मेरी दसों उँगलियों के पोरों पर
चक्र बना गया है
अब तो मानोगे ना
प्रेम में मेरा राजयोग चल रहा.
अगर दाएं पाँव का अँगूठा छोड़ दूँ
तो उन नन्हीं उँगलियों में भी
सारे के सारे चक्र हैं
अब तो ले चलोगे ना
अपने साथ किसी दूसरे ग्रह पर
तब तक मैं
ये अंतिम चक्र भी बनाती हूँ.

प्रेम का महाकाव्य

मैं वो शहर हूँ
जिसके किनारे दर्द की झील बहती है
अक़्सर प्रेमी युगल
एक-दूसरे को सांत्वना देते दिख जाते हैं.
मैं वो पेड़ नहीं बनना चाहता
जिनकी शाखों में उनके प्रेम को अमरत्व मिले
इससे बेहतर है, मैं वो कागज़ बनूँ
जिस पर प्रेम न पा सकने की
वो अपनी रोशनाई उड़ेल दें...
अमर होना चाहूँगा मैं
प्रेम में डूबा दर्द का महाकाव्य बनकर.

कोई राधा तुम्हारे मन में भी बसती तो होगी

तुमसे मिलते ही
मैंने पहला शब्द ब्रह्मांड बोला था
और तुमने असुर
तुम अविश्वास के अनुच्छेद में टहलते रहे
और मैं विश्वास की सूची में
तुमने पलाशों का झड़ना देखा
और मैंने गुलमोहर का खिलना
मेरे लिए बहुत आसान है कहना
कि तुम सही नहीं हो
फ़िर भी पूरे यक़ीन से कहती हूँ मैं
कि तुम ही सही हो...
सहरा में दोआब की कोशिश मेरी थी
ग़लत थी मैं
मैंने चाहा था उस आब से बरसती बूंदे
तुम पर गुलाबी पड़ें
इसका आकलन तुम्हारा मन
मेरी काली सोच कर गया;
मेरी आँखों ने विश्वास को
तुम्हारा सहोदर देखा था
तुम्हें लगा मैं तुमसे रिश्ते की आस में हूँ
स्वप्न में भी तुमसे कोई प्रणय नहीं किया मैंने
कोई राधा बसती होगी तुम्हारे भी मन में
पूछना उससे क्या प्रेम बस इतना ही होता?
कोई एक नाम तो और भी होगा प्रेम का
इस ब्रह्मांड में
मैं चल कर जाना चाहती हूँ उस तक
मृत्यु से पहले ब्लैक होल में समाना भी गवारा होगा
मुझे मंजूर होंगी वो यातनाएँ
जो जीवित अवस्था में भी सलीब पर टाँग दे मुझे
अगर तुम कहते हो सूरजमुखी तुम्हें देखकर नहीं खिलता!

एक प्रार्थना देवदूत से

अग़र आज की रात मैं न रहूँ
तो क्या तुम लौटा कर ला सकोगे वो दिन
जो अपना अस्तित्व खो चुके हैं.
कभी सोचा, कैसे सोती हूँ मैं उन रातों को
जो तुमने अपनी स्याही से सींची थीं
...और भयावह हो जाता है
मेरी आँखों से भीगकर सन्नाटे का शोर...
दर्द भी इन दिनों अपनी फ़ाक़ाकशी में है
कुछ नहीं तो संघर्ष से भरे दुर्दिन में
गरुण पुराण के कुछ अंश मेरे कान में डाल जाओ
मेरी जिह्वा पर अधीरता का मंत्र है
अंतिम प्रहर में आँखें खोलना चाहती हूँ मैं, कि
तुम्हारा अटूट मौन जीतते हुए देखूँ.
मेरी शोक सभा में कोई मर्सिया नहीं पढ़ना
तुम पढ़ना प्रेम कविताएँ, बांटना अपनी रिक्तियां
और उस लोक में ले जाऊँगी मैं
तुम्हारे लिए संचित मोह, अपने गर्भ में छुपाकर
कहीं तो इसे जायज़ हक़ मिलेगा...

मेरी पहली पुस्तक

http://www.bookbazooka.com/book-store/badalte-rishto-ka-samikaran-by-roli-abhilasha.php