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कहाँ होती है
जिज्ञासा के बाद शून्यता
वो तो अनुभवों के
असीम द्वार खोलती है,
हर बचपन एक बार
ओले खाने की
लालसा रखता है
बड़प्पन हमें
'कैसे बनते हैं ओले'
इस प्रश्न पर घुमाता है;
बढ़ता ही रहता है
जिज्ञासा का आकार,
शून्यता तो
जिज्ञासा के बाद
कुछ खोने की
अवस्था में आती है
कि
हर बचपन की आंखों में
एक सपना पलता है
जब वो बड़ा होगा
माँ-पापा को
महलों की नवाज़िशें देगा
मग़र ए दिल
जिज्ञासा युवा पत्नी की
आंखों में शून्य हो जाती है
और बुढ़ापा
वृद्धाश्रम की सीढ़ियों पर
भंडारे की पूड़ियों में दम तोड़ता है।
3 टिप्पणियां:
मार्मिक चित्रण अभिलाषा जी। युवा बेटेका युवा पत्नी की आंखों में खोकर माता पिता के सपनों को रौंदने की कहानी हर बार दोहराई जाती है बस पात्र अलग हो जाते हैं। दुनिया गोल जो घूमती है। बेटे की कहानी दोहराने उसका बेटा आ जाएगा।
स्नेहिल आभार रेणु जी!
शून्यता तो
जिज्ञासा के बाद
कुछ खोने की
अवस्था में आती है---गहन कविता। शून्यता में सारी गहनता है और शून्यता में सबकुछ विलीन...। दर्शन भी शून्य से आरंभ होकर शून्य में ही विलीन होता है...। अच्छी रचना है आपकी। खूब बधाई
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